आनंद बख्शी शब्दों के वो जादूगर जिन्होंने हिंदी फ़िल्मी गीतों को नई ज़ुबान, नया लहजा दिया, उनमें वो काबिलियत थी कि हर सिचुएशन पर तुरंत एक शानदार गीत लिख देते थे। पांच दशकों में 3500 से ज़्यादा गाने लिखने वाले आनंद बख्शी ने फिल्म इंडस्ट्री की कई पीढ़ियों के साथ काम किया, और हर बार उनके गीतों में वो ताज़गी मिली जो उस पीढ़ी के मिज़ाज के अनुरूप थी।
आनंद बख्शी का शुरुआती जीवन
आनंद बख्शी का जन्म हुआ 21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी में। थिएटर और फ़िल्मों का शौक़ उन्हें बचपन से था, पर परिवार में किसी को भी उनका ये शौक़ पसंद नहीं था, क्योंकि उनके परिवार में ज़्यादातर लोग या तो बैंक की नौकरी में थे या फ़ौज में। उनकी माँ की मौत तभी हो गई थी जब वो दस साल के थे। और उनके पिता फ़िल्मों को बहुत बुरी नज़र से देखते थे बल्कि फिल्म से जुड़े लोगों को “कंजर” कहकर बुलाते थे।
इसलिए घर से मुंबई जाने की आज्ञा मिलना मुमकिन ही नहीं था। पर वो मुंबई जाना चाहते थे इसीलिए जब स्कूल में फ़ेल हो गए तो उन्होंने नेवी ज्वाइन कर ली इस उम्मीद पर कि शायद कोई जहाज़ उन्हें मुंबई ले जाए। उनका मुंबई पहुँचने का ख़्वाब तो पूरा नहीं हुआ मगर इसी बीच देश का बँटवारा हो गया और उन्हें घर वापस लौटना पड़ा। दंगों के दौरान रावलपिंडी से लखनऊ आते वक़्त उन्होंने सिर्फ़ अपनी माँ की तस्वीरें ही लीं क्योंकि उनके लिए वही सबसे ज़्यादा क़ीमती थीं।
उस वक़्त वो सिर्फ़ 17 साल के थे, लेकिन घर-परिवार की ज़िम्मेदारी उन के कन्धों पर आ गई थी। घर चलाने के लिए उन्होंने गैराज में नौकरी की, टेलीफोन एक्सचेंज में भी काम किया, फिर रिफ्यूजी कोटा से उन्हें फ़ौज में नौकरी मिल गई और बाद में उनकी शादी भी हो गई। आमतौर पर शादी के बाद इंसान लगी-लगाई नौकरी छोड़ने का रिस्क नहीं लेता, मगर आनंद बख्शी ने लिया।
मुंबई में संघर्ष
क्योंकि हर तरह का काम करने के बाद भी फ़िल्मों का शौक़ और जूनून बरक़रार था। और आख़िरकार ये शौक़ उन्हें मुंबई ले गया पर जब कोई बात नहीं बनी तो वो वापस फ़ौज में लौट आए। बचपन से ही वो थोड़ा-बहुत लिखा करते थे फ़ौज में भी नाटक किया करते थे। जब-जब रेडियो पर किसी गीतकार का नाम आता तो उनके मन में एक क़सक़ सी उठती वो सोचते कि क्या कभी उनका नाम भी इसी तरह लिया जाएगा ! उन्होंने अपने इस शौक़ को भूलने की बहुत कोशिश की पर नहीं भूल पाए। और एक बार फिर फ़ौज की नौकरी छोड़ कर मुंबई जा पहुँचे अपनी क़िस्मत आज़माने।
दूसरी बार जब आनंद बख्शी मुंबई गए तो उनकी मुलाक़ात हुई भगवान दादा से जो उस समय “भला आदमी” नाम की फ़िल्म बना रहे थे। उसमें लिखने का मौक़ा बस इत्तिफ़ाक़न ही मिल गया। हुआ ये कि एक दिन भगवान दादा थोड़े परेशान से अपने दफ़्तर में बैठे हुए थे, इसी समय बख्शी साहब अंदर पहुँचे तो दादा ने पूछा तुम क्या करते हो ? और जब पता चला कि वो गीत लिखते हैं तो कहा-चलो बैठो, गीत लिखो। और आनंद बख्शी की क़ाबिलियत देखिए उन्होंने वहीं बैठे-बैठे चार गीत लिख दिए।
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उस वक़्त उन्हें लगा कि उन्हें मंज़िल मिल गई पर जल्दी ही पता चल गया कि मंज़िल अभी बहुत दूर थी। जब वो मुंबई चले आए तो उनकी पत्नी और छोटी सी बेटी लखनऊ में ही रहे। काफ़ी दिनों बाद जब आनंद बख्शी लखनऊ गए तो उनकी बेटी ने अपनी माँ से पूछा – ये आदमी कौन है ? इसके बाद वो अपने परिवार को भी मुंबई ले आए। उनके चार बच्चे हुए सबसे दो बेटियाँ और दो बेटे। मुंबई में जब उनका संघर्ष का दौर था तब उनके साथ-साथ उनके परिवार ने भी काफ़ी बुरा वक़्त देखा। लेकिन जब क़िस्मत मेहरबान हुई तब भी आनंद बख्शी अपने उस वक़्त को भूले नहीं।
कहते हैं कि साहिर लुधियानवी ने उन्हें सिखाया कि कविता को फ़िल्मी गीतों में कैसे पिरोया जाता है। बल्कि साहिर ने यश चोपड़ा समेत कई निर्माताओं से उनके नाम की सिफारिश भी की। आनंद बख्शी को पहली बार पहचान मिली सूरज प्रकाश की फ़िल्म “मेहँदी लगी मेरे हाथ” के गीतों से। उसके बाद कई अच्छे गीत आए जिन्हें लोगों ने पसंद किया, इनमें Mr. X IN BOMBAY का मशहूर गीत “मेरे महबूब क़यामत होगी” भी शामिल है।
कामयाबी का दौर
पर जिस फ़िल्म ने आनंद बख्शी को बतौर गीतकार अपार लोकप्रियता दिलाई और इंडस्ट्री में स्थापित किया वो थी सूरज प्रकाश की ही एक और फ़िल्म “जब जब फूल खिले” इसका गाना “परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना” रातों रात हिट हो गया और आनंद बख्शी को कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।
“आमने-सामने”, “अनीता”, “फ़र्ज़”, “मिलन”, “अंजाना”, “आराधना”, “आया सावन झूम के”, “दो रास्ते”, “जीने की राह”, “आन मिलो सजना” जैसी अनेक सुपरहिट फ़िल्मों में उनके लिखे गीत सुनाई दिए।। एक बार जिसने उनके साथ काम किया वो बार-बार उनके साथ काम करना चाहता था क्योंकि वो क़ाबिल होने के साथ-साथ बहुत स्पॉन्टेनियस थे। कोई भी सिचुएशन हो वो बहुत ही आसानी से तुरंत गीत लिख दिया करते थे। साधारण सरल बोल उनकी ख़ासियत थी, ऐसे अल्फ़ाज़ जो सुनने में मामूली लगते हैं वो जब उनके गीतों में आते तो उनके मायने बहुत गहरे हो जाते।
उन्होंने हर तरह के गीत लिखे – रोमेंटिक, सैड, पेपी, हलके-फुल्के, डिस्को, उनके सवाल-जवाब वाले गीत भी बेहद पसंद किए गए। जहाँ उन्होंने लोकसंगीत की छाया लिए गीत लिखे वहीं साहित्यिक समझ वाले गीत भी लिखे। ऐसी ही फ़िल्म थी “अमर-प्रेम” जिसके गीतों ने उन्हें बहुत प्रशंसा दिलाई। “अमर प्रेम” का एक गीत है – “चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए, सावन जो अगन लगाए उसे कौन बुझाए” कहते हैं कि किसी गीतकार ने उनसे कहा था कि “मेरा पूरा दीवान ले लो बस ये एक गीत मुझे दे दो” इससे बड़ी तारीफ़ और क्या हो सकती है !
गायक आनंद बख्शी
आनंद बख्शी को गाना गाने का भी बहुत शौक़ था। दरअस्ल वो मुंबई आए थे गायक बनने, एक्टिंग करने। पर क्योंकि वो गीत बेहतरीन लिखते थे तो नाम और पहचान गीतों से ही मिली और गाना और अभिनय पीछे छूट गया। लेकिन इंडस्ट्री में सभी उनके गायन के हुनर से वाक़िफ़ थे, शायद इसीलिए कई म्यूज़िक डायरेक्टर्स ने उनके इस हुनर का लाभ उठाया।
पहली बार उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के निर्देशन में “मोम की गुड़िया” फ़िल्म का गीत गया – “बाग़ों में बहार आई, होंठों पे पुकार आई” ये एक डुएट था लताजी के साथ। और लताजी हैरान थीं क्योंकि जिस कॉन्फिडेंस और फ्लो के साथ उन्होंने ये गाना गाया उससे लग ही नहीं रहा था कि वो पहली बार किसी फ़िल्म के लिए गा रहे थे। “चरस” का गाना “आजा तेरी याद आई” इस गीत की शुरुआत उन्हीं की आवाज़ से हुई थी। “शोले” फ़िल्म में भी एक गाना था उनकी आवाज़ में, पर फ़िल्म पहले ही बहुत लम्बी थी इसलिए वो गाना फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया। लेकिन जब फ़िल्म का रिकॉर्ड रिलीज़ हुआ तो उसमें वो गाना शामिल था।
आनंद बख्शी की क़लम कभी आउटडेटिड नहीं हुई
आनंद बख्शी ने अपने पूरे फ़िल्मी सफ़र में क़रीब 5000 से ज़्यादा गाने लिखे। सबसे ज़्यादा गीत उन्होंने संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए लिखे। एक ही ख़ानदान की कई पीढ़ियों के साथ उन्होंने काम किया। जहाँ उन्होंने संगीतकार रोशन के लिए गीत लिखे वहीं उनके बेटे राजेश रोशन लिए भी गीत लिखे। S D बर्मन के साथ उनका फ़िल्मी सफ़र फ़िल्म “आराधना” से शुरु हुआ था जो 13 फ़िल्मों तक चला। उनके बेटे R D बर्मन के लिए तो उन्होंने क़रीब 99 फ़िल्मों के गीत लिखे। कल्याणजी आनंदजी के साथ-साथ उन्होंने कल्याणजी के बेटे विजु शाह के लिए भी गीत लिखे।
अभिनेता-अभिनेत्रियों, निर्माता-निर्देशकों की भी दूसरी पीढ़ी के साथ उन्होंने काम किया। और इसकी वजह ये कही जा सकती है कि वो कभी पुराने नहीं हुए, OUTDATED नहीं हुए बल्कि वक़्त के साथ बदलते रहे।अपने पूरे फ़िल्मी सफ़र में आनंद बख्शी का नाम पुरस्कारों के लिए क़रीब 40 बार नामांकित हुआ लेकिन उन्हें अवार्ड मिले सिर्फ़ 4 बार। अपना पहला अवार्ड पाने के लिए उन्हें 20 साल इंतज़ार करना पड़ा। 1977 की फ़िल्म “अपनापन” के लिए उन्हें पहली बार फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ गीतकार अवार्ड मिला।
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दूसरी बार यही अवार्ड मिला “एक दूजे के लिए” फ़िल्म के लिए तीसरी बार “दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे” और चौथी बार “ताल” के गीतों के लिए। फ़िल्म “हाथी मेरे साथी” का एक गाना है “नफ़रत की दुनिया को छोड़ के” इस गाने लिए उन्हें “Society For Prevention of Cruelty to Animals” ने पुरस्कृत किया, इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। अवार्ड्स कोई भी हो उत्साह बढ़ाते ही हैं, पर असल पुरस्कार जनता देती है जिसने आनंद बख्शी के गीतों को न सिर्फ़ पसंद किया गुनगुनाया बल्कि अपने दिल में बसाकर उन्हें अमर कर दिया।
साल 2000 से आनंद बख्शी की तबियत बिगड़नी शुरु हो गई थी। उन्हें दिल के साथ-साथ फ़ेफ़डों की बीमारी भी हो गई थी। 2001 में उनकी जो हार्ट सर्जरी हुई उसमें इन्फेक्शन के कारण उनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया था और 2002 में 30 मार्च को वो इस दुनिया से चले गए और पीछे छोड़ गए अपनी बेहतरीन रचनाओं का खज़ाना। जब-जब हम उनके लिखे गीत सुनेंगे गुनगुनाएंगे तब-तब उनका नाम हमें याद आएगा।
जिस दौरान वो बीमार थे सुभाष घई की फ़िल्म के गीतों पर काम कर रहे थे। बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उन्होंने अपना आख़िरी गीत लिखकर सुभाष घई को तोहफ़े में दिया। उस गीत के बोल थे – मैं कोई बर्फ़ नहीं जो पिघल जाऊँगा, मैं कोई लफ़्ज़ नहीं जो बदल जाऊँगा, मैं तो जादू हूँ….. जादू हूँ चल जाऊँगा।
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