पारुल घोष का नाम शायद आपने न सुना हो, क्योंकि उनका करियर बहुत छोटा रहा। उन्होंने अपने पति को सपोर्ट के लिए ही फ़िल्मों में गाना शुरु किया था और मक़सद पूरा होते ही गाना बंद कर दिया। पुराने ज़्यादातर रेकॉर्ड्स पर उनका नाम मि. घोष ही लिखा मिलता है। वो अपने समय के मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास की बहन थीं मगर अनिल बिस्वास ने कभी भी अपनी बहन को फ़ेवर नहीं किया। बहन ही नहीं उनकी दूसरी पत्नी मीना कपूर के साथ भी उन्होंने कभी पक्षपात नहीं किया। हाँलाकि दोनों ही अपनी-अपनी जगह बेहतरीन गायिकाएं थीं।
पारुल बिस्वास से पारुल घोष बनने की कहानी
पारुल बिस्वास का जन्म 1915 में बरिसाल में हुआ जो अब बांग्लादेश में है। तीन भाई बहनो में अनिल बिस्वास सबसे बड़े थे उनसे चार साल छोटी थीं पारुल और उनसे भी चार साल छोटे एक भाई और थे जिनका नाम था सुनील। गीत-संगीत पारुल को अपनी माँ से विरासत में मिला था, उन्होंने अपनी माँ जैसी ही आवाज़ भी पाई थी। उनकी माँ ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी और घर में भजन कीर्तन का माहौल तो था ही। ऐसे ही माहौल में बच्चों की परवरिश हुई।
मशहूर बाँसुरीवादक पन्नालाल घोष जिन्होंने बाँसुरी को लोक से निकाल कर स्टेज तक पहुँचाया और उसे कंसर्ट्स में मान- सम्मान दिलाया वो अनिल बिस्वास के बचपन के दोस्त थे। उनकी ये दो जिस्म एक जान वाली दोस्ती उस वक़्त रिश्ते में बदल गई जब उनकी 9 साल की छोटी सी बहन पारुल की शादी 14 साल के पन्नालाल घोष से कर दी गई और पारुल बिस्वास पारुल घोष बन गईं।
1930 में अनिल बिस्वास हिंदुस्तान रिकॉर्डिंग कंपनी में काम करने के लिए कोलकाता चले गए। कुछ समय बाद पन्नालाल घोष को भी वहां बतौर इंस्ट्रूमेंटलिस्ट काम मिल गया। जब अनिल बिस्वास ने न्यू थिएटर्स ज्वाइन किया तो पन्नालाल भी न्यू थिएटर्स से जुड़ गए, इस तरह दोस्ती और रिश्ता गहराता गया।
पारुल घोष का फ़िल्मी सफ़र
जब न्यू थिएटर्स की पहल से भारतीय फ़िल्मों में प्लेबैक की शुरुआत हुई तो 1935 की फ़िल्म “धूप छाँव” वो फ़िल्म बनी जिसमें पहली बार प्लेबैक टेक्नीक का इस्तेमाल किया गया। इस फिल्म में एक गाना था – “मैं खुश होना चाहूँ”- इसमें तीन फीमेल वॉइसेस में से एक आवाज़ पारुल घोष की भी थी। इस के बाद हालात बदले, अनिल बिस्वास कोलकाता छोड़कर मुंबई चले गए, पारुल घोष एक बेटी की माँ बनी। फिर 1940 में ये पूरा परिवार भी मुंबई शिफ़्ट हो गया जहाँ अनिल बिस्वास अपनी एक मज़बूत जगह बना चुके थे।
कहते हैं कि हर सक्सेसफुल आदमी के पीछे एक महिला का हाथ होता है। और ये बात पन्नालाल घोष पर बिलकुल फिट बैठती है। मुंबई आकर पन्नालाल घोष तो अपने हुनर को निखारने में जुट गए और पारुल घोष ने हर प्रकार की ज़िम्मेदारियाँ अपने ऊपर ले ली थीं ताकि पन्नालाल घोष के रियाज़ में कोई रुकावट न आए।
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उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ में ऑडीशन दिया और वहाँ उन्हें 1000 रुपए महीने की तनख़्वाह पर काम मिल गया, वो रेडियो पर भी गाने लगी थीं। 1942 में जब फ़िल्म बसंत रिलीज़ हुई तो पहली बार पारुल घोष का नाम बतौर गायिका उभर कर आया। इस फिल्म में उनके गाये गाने बेहद मशहूर हुए। इस फिल्म में मधुबाला ने बेबी मुमताज़ के नाम से काम किया था और उनपर जो गाना फिल्माया गया था, उसे आवाज़ दी थी पारुल घोष की बड़ी बेटी सुधा ने।
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बसंत के बाद 1943 में बॉम्बे टॉकीज़ की सुपर-डुपर हिट मूवी किस्मत आई जिसके ज़्यादातर गाने अमीरबाई कर्नाटकी ने गाये थे सिर्फ़ एक गाने में पारुल घोष की आवाज़ थी -“पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए” लेकिन मज़ेदार बात ये है कि उस एक गाने को सुनने के लिए एक रंगीन तबीयत ज़मींदार नाइट शो की पूरे हफ़्ते भर की एडवांस बुकिंग कराते थे। कलफ लगे, साफ़ सुथरे धोती कुरता पहन कर हाथों में गजरा लपेट कर रोज़ाना आते थे और उस गाने को सुनते थे और इसके बाद उठ कर चले जाते थे और ये सिलसिला महीनों तक चला।
किस्मत का संगीत अनिल बिस्वास ने ही दिया था चाहते तो अपनी बहन से वो गाने गवा सकते थे इस पर अनिल दा का कहना था कि अगर वो किस्मत के गाने पारुल घोष से गवाते तो उनपर पक्षपात का आरोप लग जाता इसीलिए उन्होंने पारुल घोष से गाने नहीं गवाए। वैसे भी वो समय उनके लिए बॉम्बे टॉकीज़ में बहुत कठिन था।
बॉम्बे टॉकीज़ को 1934 में हिमांशु राय और उनकी पत्नी देविका रानी ने स्थापित किया था। सेकंड वर्ल्ड वॉर से पहले ये सबसे बड़े स्टूडियोज़ में से एक था। जिसमें काम करने के लिए यूरोप से बेस्ट टेक्नीशियन्स बुलाये गए थे। देश भर की चुनिंदा प्रतिभाएं यहाँ काम करती थी। लेकिन 1940 में हिमांशु राय के निधन के बाद वहां के हालात बदल चुके थे।
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जब कंपनी की कमान देविका रानी ने संभाली तो बॉम्बे टॉकीज अंदर ही अंदर दो गुटों में बंट गया। एक में देविका रानी और अमिय चक्रवर्ती जैसे निर्देशक थे तो दूसरे में राय बहादुर चुन्नीलाल और शशधर मुखर्जी उनके साथ अशोक कुमार, ज्ञान मुखर्जी और कवी प्रदीप भी थे। ये तय हुआ था कि दोनों ग्रुप बारी बारी से एक-एक फ़िल्म बनाएंगे। उसी दौरान संगीतकार अनिल बिस्वास ने बॉम्बे टाल्कीज़ में काम करना शुरू किया था।
उनके आने के तुरंत बाद फ़िल्म बनाने की बारी थी शशधर मुखर्जी के ग्रुप की और संगीत अनिल दा को ही देना था। वो फ़िल्म थी – क़िस्मत और क्योंकि अनिल बिस्वास देविका रानी के आदमी थे तो दूसरे ग्रुप को उन पर डाउट होना लाज़मी था। इसलिए उन्हें एक-एक क़दम फूँक फूँक कर रखना पड़ रहा था बहुत सी अड़चनें आईं, मगर अनिल दा ने फिल्म में ऐसा संगीत दिया कि सुनने वाले सुनते ही रह गए।
क़िस्मत के बाद बॉम्बे टाल्कीस की हमारी बात(43), ज्वार भाटा(44), मिलन(46) में पारुल घोष के गाये गीत सुनाई दिए। “ज्वार भाटा” फिल्म दिलीप कुमार की भी पहली फिल्म होने की वजह से हमेशा याद की जाती है। लेकिन इसमें इस भाई बहन की जोड़ी के कई बेहतरीन गाने हैं। अपने पति और भाई के सगीत निर्देशन के अलावा भी पारुल घोष ने नौशाद, रफ़ीक ग़ज़नवी, सी रामचंद्र और पं गोविंदराम जैसे कई और संगीतकारों के लिए भी उत्कृष्ट गीत गाए।
1947 के आस-पास पारुल घोष ने ख़ुद ही फ़िल्मों से दूरी बनाना शुरु कर दिया था, उनका आखिरी गाना 1951 की फिल्म “आंदोलन” में सुनाई दिया। उस समय तक पन्नालाल घोष की एक ख़ास जगह बन चुकी थी तो पारुल घोष अपनी घर गृहस्थी और दो बेटियों सुधा और नूपुर की परवरिश में व्यस्त हो गईं। लेकिन वो अपने पति के शिष्यों से गीत-संगीत पर चर्चा में हमेशा शामिल रहती, उन्हें सलाह देती इस तरह गीत-संगीत उनसे कभी नहीं छूटा।
1951 में उनकी छोटी बेटी नूपुर की स्माल पॉक्स से मौत हो गई। इस दुःख ने न केवल पारुल घोष को बल्कि पन्नालाल घोष को गहरा धक्का पहुँचाया। 1956 में पन्नालाल घोष को आकाशवाणी दिल्ली जॉइन करने का ऑफर आया और पूरा परिवार दिल्ली आ गया। लेकिन कुछ ही साल बाद 1960 में हार्ट-अटैक से पन्नालाल घोष का निधन हो गया। इसके बाद पारुल घोष वापस मुंबई आ गईं। पहले बेटी और फिर पति की मौत से वो मानसिक और शारीरिक रूप से एकदम टूट गई थीं और फिर एक और ट्रेजेडी हुई। 1975 में उनकी बड़ी बेटी सुधा भी कैंसर से चल बसी।
सभी अपनों की मौत का दुःख देखने के बाद 13 अगस्त 1977 को पारुल घोष ने भी अंतिम साँस ली। उनकी मौत के बाद उनकी लिखी एक मैनुस्क्रिप्ट मिली जिसमें पन्नालाल घोष के करियर पर डिटेल में रौशनी डाली गई है लेकिन कहीं भी पारुल घोष ने अपने आप को कोई क्रेडिट नहीं दिया।
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अपने बहुत छोटे से करियर में पारुल घोष ने हिंदी-बांग्ला की क़रीब 25 फ़िल्मों में 100 गाने गाये। हाँलाकि उनमें से बहुतों के वीडियो उपलब्ध नहीं है। कुछ के ऑडियो भी नहीं हैं मगर कलाकार, फ़नकार चाहें कितने भी भुला दिए जाएँ उनका फ़न उन्हें मरने नहीं देता इसीलिए फ़नकार अमर होते हैं।
पारुल घोष के गाये कुछ लोकप्रिय गीत
- देवदासी – को तुम को तुम बोलो / मैं क्षमा आप से चाहूँ
- नजमा- भला क्यों वो हो /फ़स्ल-ए-बहार गाए जा
- पुलिस – मेरे सैयां सिपहसालार / लगाए जा तू ज़िंदगी का दाव -with अमीरबाई
- नौका डूबी (बांग्ला) – Ogo Dakhin Haoa / अमार नयन तुमार नयन तले
- प्रतिमा – तुम प्यास बुझाना भूल गए /आता है लबों पे नाम तेरा
- कंचन – मोरे मन की नगरीया
- बीसवीं सदी – कूक रे तू प्राण पपीहे
- AR कारदार की फिल्म नमस्ते – आये भी वो गए भी वो / नैक टाई वाले बाबू /आओ जी कभी तो आओ जी / आन मिलो मोरे श्याम
- ज्वार-भाटा – मोरे अँगने में छिटकी चाँदनी / भूल जाना चाहती हूँ /अंधकार जलते जुगनू के समान / भुला भटका पथ हारा मन
- क़िस्मत – पपीहा रे
- बसंत – कांटा लगो रे सजनवा मोसे /उम्मीद उनसे क्या थी /बालम धीरे बोल / आया बसंत सखि /एक दुनिया बसा ले मेरे मन /गोरी मोसे गंगा के पार मिलना
- मिलन – पुरानी बेरियां बीती जाएँ /गुनगुन गुनगुन बोले भँवरा / मैं किसकी लाज निभाउँ /जिसने बनाई बाँसुरी
- सवाल – बीत गया पतझड़ फिर / मेरे सपनों पे छाई अनोखी तरंग
- परिंदे – ऊपर हो चाँद तारे / आजा सलोने सिपहिया / कभी तो जागो हे सोनेवालों /
- ज़िद – आते नहीं वो आते नहीं
- भक्त पुंडलिक – उजड़ गया संसार
- नई माँ – आजा री निंदिया
- लेडी डॉक्टर – कुछ अपना बना के छोड़ दिया
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Parul Ghosh
You might not have heard the name of Parul Ghosh, because his career was very short. She started singing in films only to support her husband and stopped singing as soon as the purpose was fulfilled. On most of the old records, his name is Mr. Ghosh only gets written. She was the sister of famous musician Anil Biswas of his time, but Anil Biswas never favored his sister. Not only his sister, he never took any partisanship with his second wife Meena Kapoor as well. However, both were excellent singers in their respective places.
Parul Biswas to Parul Ghosh
Parul Biswas was born in 1915 in Barisal which is now in Bangladesh. Anil Biswas was the eldest of three siblings, Parul was four years younger than him and there was another brother who was four years younger than her, whose name was Sunil. The songs and music Parul had inherited from his mother, he also had a voice similar to that of his mother. Their mother had taken classical music lessons and there was an atmosphere of bhajan kirtan in the house. Children were raised in such an environment.
The famous flute player Pannalal Ghosh, who took the flute out of the public to the stage and brought him respect in concerts, was a childhood friend of Anil Biswas. Their friendship turned into a relationship when their 9-year-old younger sister Parul was married to 14-year-old Pannalal Ghosh and Parul Biswas became Parul Ghosh.
In 1930, Anil Biswas moved to Kolkata to work in Hindustan Recording Company. After some time Pannalal Ghosh also got work as an instrumentalist there. When Anil Biswas joined New Theatres, Pannalal also joined New Theatres, thus deepening the friendship and relationship.
Film journey of Parul Ghosh
When playback began in Indian films with the initiative of New Theatres, the 1935 film “Dhoop Chhaon” became the film in which playback techniques were used for the first time. There was a song in this film – “Main Khush Hona Chahun” – one of the three female voices was also of Parul Ghosh. After this the situation changed, Anil Biswas left Kolkata and moved to Mumbai, Parul Ghosh became the mother of a daughter. Then in 1940 this entire family also shifted to Mumbai where Anil Biswas had made a strong place for himself.
It is said that behind every successful man there is a woman. And this thing fits perfectly on Pannalal Ghosh. Coming to Mumbai, Pannalal Ghosh started to hone his skills and Parul Ghosh had taken all kinds of responsibilities on himself so that there would be no hindrance in the practice of Pannalal Ghosh.
She auditioned in Bombay Talkies and there she got a job with a salary of 1000 rupees a month, she also started singing on the radio. When the film Basant was released in 1942, Parul Ghosh first emerged as a singer. The songs sung by her in this film became very famous. In this film Madhubala acted as Baby Mumtaz and the song which was filmed on her was voiced by Parul Ghosh’s elder daughter Sudha.
Basant was followed in 1943 by Bombay Talkies’ super-duper hit movie Kismat, most of which was sung by Amirbai Karnataki, only one song had Parul Ghosh’s voice – “Papiha re mere piya se kahiyo jaye” but the strange thing is that to listen to the song, a colorful whealthy landlord used to make advance booking for a whole week of night shows. Wearing a clean dhoti kurta, wearing a clean dhoti kurta, he used to come daily and listen to that song and after that he used to get up and leave and this process continued for months.
Anil Biswas had given the music of Kismat, if he wanted he could have made his sister sing songs, on this Anil Da said that if he had sung the songs of Kismat with Parul Ghosh, he would have been accused of favoritism, that is why he did not sing from Parul Ghosh. Lost. Anyway, that time was very difficult for him in Bombay Talkies.
After Kismat, songs sung by Parul Ghosh were heard in Bombay Talkies’ Hamari Baat (43), Jwar Bhata (44), Milan (46). The film “Jwar Bhata” is always remembered for being the first film of Dilip Kumar. But it has many great songs of this brother-sister duo. Apart from directing the music of her husband and brother, Parul Ghosh also sang excellent songs for many other musicians like Naushad, Rafiq Ghaznavi, C Ramachandra and Pt Govindram.
Around 1947, Parul Ghosh began to distance herself from films, her last song being heard in the 1951 film “Andolan”. By that time, Pannalal Ghosh had a special reputation in his field, then Parul Ghosh got busy in raising her household and two daughters Sudha and Nupur. But she was always involved in discussing songs and music with her husband’s disciples, giving them advice, thus never leaving her songs and music.
In 1951, his younger daughter Nupur died of smallpox. This grief shocked not only Parul Ghosh but also Pannalal Ghosh. In 1956, Pannalal Ghosh got an offer to join Akashvani Delhi and the whole family moved to Delhi. But a few years later, in 1960, Pannalal Ghosh died of a heart attack. After this Parul Ghosh came back to Mumbai. She was completely broken mentally and physically by the death of first daughter and then husband and then another tragedy happened. In 1975, her elder daughter Sudha also died of cancer.
Parul Ghosh breathed last on 13 August 1977 after seeing the grief of the death of all her loved ones. After her death, a manuscript written by her was found in which the career of Pannalal Ghosh has been thrown in detail but nowhere did Parul Ghosh give any credit to herself.