मोहम्मद रफ़ी वो आवाज़ जो 100 सालों से हमारे साथ है।
मोहम्मद रफ़ी, वो आवाज़ जिसने सालों साल, सुख में, दुःख में, मस्ती में, हँसी में, हमारा साथ दिया है। आप रोमांटिक हों या प्रकृति प्रेमी इस आवाज़ ने कभी निराश नहीं किया। आज वो ज़िंदा होते तो 100 साल के होते पर ऐसा लगता भी तो नहीं कि वो नहीं हैं, क्योंकि ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब टीवी पर, रेडियो पर, इंटरनेट पर उनकी आवाज़ सुनाई न देती हो और उसे सुनकर आप ख़ुद भी न गुनगुनाते हों ! ऐसा लगता है आज वो ज़िंदा होते तब भी उनकी आवाज़ ऐसी ही होती, अपनी सी।
मोहम्मद रफ़ी के साथ विवाद कभी नहीं जुड़े
फ़िल्मों से मोहम्मद रफ़ी का नाता क़रीब 36 साल तक रहा पर कमाल की बात है कि उनके नाम के साथ विवाद कभी नहीं जुड़े। जो शख़्स संगीत में डूबा रहता हो, इतना विनम्र हो कि शोहरत पाने के बाद भी किसी गाने में एक लाइन गाने के लिए तैयार हो जाये, इतना मददगार हो कि हज़ारों की फ़ीस होने के बावजूद किसी की मजबूरी जानकर बिना कोई फ़ीस लिए गाना गा दे। ऐसे इंसान से तो विवाद भी शर्मा जाते होंगे।
मोहम्मद रफ़ी के पूरे करियर पर नज़र डालें तो सिर्फ़ दो बार उनका नाम किसी कंट्रोवर्सी में आया है। एक तो है लता मंगेशकर के साथ रॉयल्टी को लेकर विवाद, पर इसे विवाद न कहकर मतभेद कहना ज़्यादा बेहतर होगा। लता मंगेशकर का कहना था कि गानों की रॉयल्टी सिंगर्स को भी मिलनी चाहिए जबकि रफी साहब का मानना था कि किसी ख़ास गाने के लिए पेमेंट मिलने के बाद सिंगर्स का रॉयल्टी माँगना एथिकल नहीं है।
इसी विषय पर दोनों में मतभेद हुआ और इतना बढ़ा कि क़रीब छह साल तक दोनों ने एक-दूसरे से बात नहीं की और न ही साथ में गाना गाया। बाद में एसडी बर्मन म्यूजिक नाइट में दोनों एक ही मंच पर दिखाई दिए और डुएट गाया।
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एक विवाद ज़रुर एक ज़माने में फ़िल्मी गलियारों में गूँजा। लेकिन वो क़िस्सा आप सुनेंगे तो हैरान रह जाएंगे क्योंकि मोहम्मद रफ़ी इतने अच्छे इंसान थे, उनकी रेपुटेशन इतनी अच्छी थी कि फ़िल्म इंडस्ट्री में किसी ने भी यक़ीन ही नहीं किया कि रफ़ी साहब ने ऐसा कुछ किया होगा। एक संगीतकार हुआ करते थे “सरदुल क्वात्रा”, रफ़ी साहब ने उनकी कुछ फ़िल्मों के गीत गाए थे।
रफी साहब ने निम्नलिखित 12 फिल्मों में सरदूल क्वात्रा के लिए गीत गाए
- 1950 – जलते दीप
- 1950 – मन का मीत
- 1952 – गूंज
- 1954 – पिलपिली साहब
- 1955 – सन ऑफ़ अलीबाबा
- 1956 – चार मीनार
- 1956 – काला चोर
- 1957 – मिर्ज़ा साहिबाँ
- 1960 – एयर मेल
- 1961 – जिप्सी गर्ल
- 1961 – खिलाड़ी
- 1962 – काला चश्मा
जब सरदुल क्वात्रा नए-नए बम्बई आये थे तो उनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था। उस समय रफ़ी साहब के घर की ऊपर की मंज़िल ख़ाली थी तो उन्होंने वो सरदुल क्वात्रा को रहने के लिए दे दी। कहते हैं रफ़ी साहब किराया नहीं लेना चाहते थे पर सरदुल क्वात्रा नहीं माने। लेकिन बाद में मकान ख़ाली करवाने को लेकर बात इतनी बढ़ गई कि पुलिस तक पहुँच गई। सरदुल क्वात्रा ने उनपर और उनके परिवार पर कई तरह के इल्ज़ाम लगाए।
लेकिन इस घटना के बारे में जब इंडस्ट्री के दूसरे लोगों को पता चला तो किसी ने भी सरदुल क्वात्रा की बात पर विश्वास नहीं किया। बल्कि इंडस्ट्री ने एक तरह से उन्हीं का बायकॉट कर दिया। आज के ज़माने में हम ऐसा सोच भी नहीं सकते क्योंकि आज तो झूठी अफवाह भी उड़े तो उसे इस तरह फैलाया जाता है कि वही सच लगने लगता है। इस वाक़ये में कौन सही था कौन ग़लत, ये तो वो दोनों ही जान सकते हैं पर रफ़ी साहब पर ख़ुदा का कितना बड़ा करम था कि न तो जीते जी, न ही इस जहाँ से जाने ले बाद उनकी छवि पर कोई दाग़ लगा।
26000 गीत !!!!
मोहम्मद रफ़ी से तो विवाद दूर रहे पर उनके चाहने वालों के बीच एक विवाद ज़रुर है कि रफ़ी साहब ने अपने जीवन काल में कितने गाने गाए?
एक अनुमान है कि रफ़ी साहब ने अपने पूरे करियर में क़रीब 517 अलग-अलग क़िरदारों को अपनी आवाज़ दी मगर उनके गीतों की संख्या को लेकर अलग-अलग लोग अलग-अलग बात कहते हैं। कितनों ने तो अतिश्योक्ति की सीमा ही लांघ दी…. 26000 गाने !!! लेकिन फैक्ट्स कुछ और कहते हैं।
मोहम्मद रफ़ी ने 1944 की पंजाबी फ़िल्म “गुल बलोच” में गीत गाने से पार्श्वगायन की शुरुआत की। यहीं से काउंट किया जाए तो 1980 तक 36 साल होते हैं। इनमें से लगभग एक-डेढ़ साल, जब वो हज करके लौटे थे तो उन्होंने कोई काम नहीं किया। अगर 35 साल भी मानके चलें तो 12, 775 दिन होते हैं, अगर हर दिन उन्होंने दो गाने भी रिकॉर्ड किए हों तब भी 26,000 संभव नहीं है। इंसान बीमार पड़ता है कभी गला भी ख़राब होता है ऐसे में बिना सोचे समझे 26000 की संख्या पर विश्वास कर लेना मुझे नहीं लगता सही है।
ये मुद्दा तब उठा जब लता मंगेशकर ने गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में 25000 गीत रिकॉर्ड करने का दावा पेश किया, उसी दौर में मोहम्मद रफ़ी ने एक इंटरव्यू में लता जी से ज़्यादा गीत रिकॉर्ड करने की बात कही। हाँलाकि बाद में लता जी के उस दावे को रिकॉर्ड बुक से हटा दिया गया। अभी तक के रेकॉर्ड्स के मुताबिक सिर्फ़ आशा भोसले हैं जिन्होंने 12,000 से ज़्यादा गाने रिकॉर्ड किए, जो आशा जी के लम्बे करियर को देखें तो संभव भी लगता है।
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मोहम्मद रफ़ी के गाए गीतों की दूसरी सँख्या है क़रीब 7000 गीत, जो तब बनती है जब इस लिस्ट में तीन और तरह के गीतों को शामिल कर लिया जाता है। जैसे Multi-Part songs यानी वो गीत जो एक ही फ़िल्म में दो या तीन बार सुनाई देते हैं। दूसरे जो 78 आरपीएम पर मिलते हैं और जिनमें सिर्फ़ 2 अन्तरे हैं, लेकिन वही सेम गीत जब LP में सुनाई देते हैं तो उनमें 3 अन्तरे हैं। कुछ फैंस ऐसे डिफरेंस वाले गानों को भी दो गानों की तरह काउंट करते हैं।
तीसरे Snippet Songs जो पूरे गाने नहीं हैं, सिर्फ़ 30 से 90 सेकंड तक के बोल हैं। जैसे मुशायरे में तरन्नुम में पढ़े गए शेर या वो गाने जिन्हें रिकॉर्ड तो पूरा किया गया था मगर फ़िल्म में उनका सिर्फ़ एक ही अंश इस्तेमाल हुआ। या छोटे musical pieces . इन सबको जोड़ा जाए तब जाकर रफ़ी साहब के गीतों की संख्या 7000 होती है। Snippets को सम्पूर्ण गीत मान लेना, या दो और तीन stanzas वाले सांग्स को सेपरेट काउंट करना कितना सही है ये आप डिसाइड कीजिए।
मोहम्मद रफ़ी के पूरे गीतों की बात करें तो शोधकर्ताओं के मुताबिक़ एक अनुमान है कि 1944 से 1950 तक रफ़ी साहब ने 376 फ़िल्मी गीत गाए। 1951 से 1960 तक 1534 | 1961 से 1970 तक 1724 और 1971 से जो गाने पाए गए उनकी संख्या है – 1224 है। इस तरह काउंट करें तो टोटल फ़िल्मी सांग्स 4858 हैं। इनमें कुछ नॉन-फ़िल्मी सांग्स इंक्लूड कर दें साथ ही रीजनल लैंग्वेज के गानों और कुछ फॉरेन गीतों को भी जोड़ दें तो 5500 गाने होते हैं।
मोहम्मद रफ़ी के गाए गीतों की बात करते हुए हमें ये भी ध्यान देना होगा कि हम जिस दौर की बात कर रहे हैं उस समय की बहुत सी फिल्में और रिकार्ड्स आज अवेलेबल नहीं हैं। कई फ़िल्मों के नाम मिलते हैं मगर उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती, तो संभव है कि उन फ़िल्मों में भी रफ़ी साहब ने कुछ गीत गाए हों। लेकिन ऐसी फिल्मों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है।
तो माना जा सकता है कि रफ़ी साहब के गाए गीतों की संख्या 5500 से 7000 तक हो सकती है जो विश्वसनीय भी लगती है।
मददगार इंसान और सादगी की मिसाल
मोहम्मद रफ़ी की दरियादिली के क़िस्से भी बहुत मशहूर हैं। सब जानते हैं कि उन्होंने कभी पैसों के लिए कोई गाना नहीं ठुकराया बल्कि अगर कोई निर्माता या संगीतकार कम बजट के कारण उनकी फ़ीस देना अफोर्ड नहीं कर सकता था तो वो सिर्फ़ एक रुपया लेकर गीत गा देते थे। ऐसा कई गानों के साथ हुआ है, इनमें सबसे मशहूर है ‘पुनर्मिलन’ फ़िल्म की ग़ज़ल ‘पास बैठो तबियत बहल जाएगी’।
कहते हैं पंजाबी फ़िल्मों में पंजाबी फ़िल्मों में शबद और भजन गाने के लिए वो कोई फ़ीस नहीं लेते थे। 1969 की फ़िल्म ‘नानक नाम जहाज़ है’ के गीत उन्होंने बिना किसी फ़ीस के गाए, इसके अलावा 1978 की हव्वा ख़ातून के लिए भी उन्होंने कोई फ़ीस नहीं ली। गुज़रे ज़माने के एक संगीतकार हुए “निसार बज़्मी” जिन्होंने 40-50 के दशक की कुछ हिंदी फ़िल्मों में संगीत दिया था। बाद में वो पाकिस्तान चले गए और वहाँ उन्होंने बहुत नाम कमाया।
1953 में उनके संगीत से सजी फ़िल्म आई थी ‘खोज’ जिसका बजट बहुत ही कम था। मगर निसार चाहते थे कि एक गाना – “चंदा का दिल टूट गया रोने लगे हैं सितारे”, मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में रिकॉर्ड किया जाए। पर निर्माता उनकी फ़ीस अफ़ोर्ड नहीं कर सकते थे फिर भी निसार इस गाने का ऑफर लेकर रफ़ी साहब के पास चले गए और उन्हें सारी सिचुएशन भी बता दी, कि निर्माता इस गाने के लिए उन्हें 50 रुपए से ज़्यादा नहीं दे पाएँगे। रफ़ी साहब ने उस गाने के लिए सिर्फ़ 1 रूपया लिया और गाना भी इतने परफेक्शन से गाया कि उस समय ये बहुत मशहूर हुआ।
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कभी कभी फिल्ममेकर्स की एक टीम बन जाती है जिसके साथ वो कम्फर्टेबल होते हैं। और संगीतकार के अपने कुछ पसंदीदा सिंगर्स भी होते हैं, दूसरा संगीतकार को गायकों के कैलिबर का भी पता होता है। ऐसे में जब फ़िल्ममेकर और संगीतकार की पसंद क्लैश करती है तो कभी-कभी दिक्कत हो जाती है, जैसा कि व्ही शांताराम की फ़िल्म सेहरा के साथ हुआ। सेहरा के गीतों की रिकॉर्डिंग हो रही थी, एक गीत पर आकर बात अटक गई।
रामलाल उसे मोहम्मद रफ़ी से गवाना चाहते थे मगर व्ही शांताराम के ज़ोर देने पर उन्हें वो गीत महेंद्र कपूर की आवाज़ में रिकॉर्ड करना पड़ा। क्योंकि इससे पहले महेंद्र कपूर ने नवरंग में गीत गाए थे जो काफ़ी मशहूर भी हुए। पर इस एक गीत के बारे में रामलाल जी को लगता था कि ये रफ़ी साहब का गाना है इसीलिए वो एक बार फिर से व्ही शांताराम के पास गए और उनसे गुज़ारिश की कि एक बार इस गीत को रफ़ी साहब से रिकॉर्ड कराके सुन लें।
व्ही शांताराम राज़ी हो गए और जब गाना सुना तो उन्होंने भी माना कि ये गाना मोहम्मद रफ़ी के लिए ही बना है फिर उन्हीं की आवाज़ में रिकॉर्ड किया गीत फ़िल्म में रखा गया। वो गाना था – तक़दीर का फ़साना जाकर किसे सुनाएँ, इस दिल में जल रही हैं अरमानों की चिताएँ।
मोहम्मद रफी / किशोर कुमार
70 के दशक में आराधना की रिलीज़ के बाद किशोर कुमार राजेश खन्ना की आवाज़ बन गए थे, निर्माता-निर्देशकों के अलावा ख़ुद राजेश खन्ना अपने गीतों के लिए किशोर दा की आवाज़ ही पसंद करते थे। ऐसे में आई एक फ़िल्म “हाथी मेरे साथी” लगभग सभी गीत किशोर कुमार की आवाज़ में रिकॉर्ड हो गए थे। एक आख़िरी गीत बचा था, जब किशोर कुमार ने उसकी धुन सुनी, बोल पढ़े तो उसे रिकॉर्ड करने से मना कर दिया ।
किशोर कुमार ने साफ़-साफ़ कहा कि ये गाना सिर्फ़ मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में ही सूट करेगा। लेकिन राजेश खन्ना अपनी स्क्रीन इमेज के साथ कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। तब किशोर कुमार ख़ुद राजेश खन्ना के पास गए, उन्हें कन्विंस किया और फाइनली वो गाना मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में ही रिकॉर्ड किया गया। वो गाना था ‘नफ़रत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में ख़ुश रहना मेरे यार” ये फ़िल्म में तब सुनाई देता है जब हाथी की मौत हो जाती है।
मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार दोनों एक दूसरे की बहुत इज़्ज़त करते थे दोनों ने साथ में कई गाने गाये। पहली बार दोनों ने 1949 की फ़िल्म कनीज़ का ये गाना ‘दुनिया में अमीरों को आराम नहीं मिलता’ साथ में गाया था जिसमें उनके अलावा S D बातिश की भी आवाज़ है। इसके बाद तो ‘मालकिन’, ‘मस्ताना’, ‘नया अंदाज़’, ‘भागमभाग’, ‘फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी’, ‘अक़्लमंद’ और ‘नन्हा फरिश्ता’ जैसी बहुत सी फ़िल्मों में दोनो ने साथ में गाया।
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70 के दशक में भी कई गाने मिल जाएँगे लेकिन 1969 में एक फ़िल्म आई थी “प्यार का मौसम” इस फ़िल्म का एक गाना है “तुम बिन जाऊँ कहाँ” जिसे RD बर्मन ने दोनों की आवाज़ में रिकॉर्ड किया। ये गाना हीरो शशि कपूर और हीरो के पिता भारत भूषण दोनों पर फ़िल्माया गया था। यहाँ एक अलग सा एक्सपेरिमेंट किया गया, मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में रिकॉर्ड ये गाना शशि कपूर पर फ़िल्माया गया और किशोर दा का वर्ज़न भारत भूषण पर पिक्चराइज़्ड हुआ।
दोनों ही वर्ज़न कमाल के हैं लेकिन इस गाने के आते ही मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार के प्रशंसकों में एक होड़ लग गई कि किसने बेहतर गाया है, एक अनकहा मुक़ाबला शुरू हो गया। उनके प्रशंसक और समीक्षक हर मौक़े पर दोनों की तुलना एक दूसरे से करने लगे। हाँलाकि दोनों सिंगर्स को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा क्योंकि दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे। कितने ऐसे गाने हैं जिनमें स्क्रीन पर किशोर कुमार दिखाई देते हैं मगर गाने में आवाज़ पर मोहम्मद रफ़ी की है।
- 1956 – पैसा ही पैसा – ले लो सोने का लड्डू
- 1956 – भागमभाग – हमें कोई ग़म है | दिल दिया दौलत को
- 1956 – शरारत – अजब है दास्ताँ तेरी ऐ ज़िंदगी
- 1958 – रागिनी – मन मोरा बावरा
- 1961 – करोड़पति – ओ मेरी मैना – रफ़ी एंड किशोर
- 1964 – बाग़ी शहज़ादा – मैं इस मासूम चेहरे को अगर छू लूँ
- 1972 – प्यार दिवाना – अपनी आदत है सबको सलाम करना
इंतक़ाल से पहले किशोर कुमार के साथ मोहम्मद रफ़ी का आख़िरी डुएट सुनाई दिया फ़िल्म दीदार-ए-यार में, उस गीत के बोल हैं – मेरे दिलदार का बाँकपन हाय बाँकपन अल्लाह-अल्लाह।
किशोर कुमार ही नहीं अपने दौर के लगभग हर गायक-गायिका के साथ मोहम्मद रफ़ी ने डुएट गाये हैं। लेकिन सबसे ज़्यादा डुएट उन्होंने गायकों में मन्ना डे के साथ और गायिकाओं में आशा भोसले के साथ गाए। संगीतकारों में सलिल चौधरी के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वो रफ़ी साहब को प्रेफरेंस नहीं देते थे बल्कि बहुत मजबूरी हो तभी उनसे गाना गवाते थे। अनिल बिस्वास ने भी मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ का इस्तेमाल बहुत कम किया। उनका कहना था कि जिस तरह का संगीत वो बनाते हैं उसमें मोहम्मद रफ़ी की पंजाबी earthy वॉइस फ़िट नहीं होती।
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इनके अलावा शायद ही कोई ऐसा संगीतकार होगा जो मोहम्मद रफ़ी के लिए धुनें न बनाना चाहता हो। एक ज़माने में संगीतकारों का सपना हुआ करता था कि मोहम्मद रफ़ी उनके लिए गाएँ। और रफ़ी साहब ने लगभग सभी के लिए गीत गाए। लेकिन सबसे ज़्यादा गाने उन्होंने संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए गाए। लगभग 369 गाने जिनमें से 186 सोलो थे। रफी साहब ने जो आख़िरी गाना गाया वो फ़िल्म ‘आस-पास’ के लिए था “शाम फिर क्यों है उदास” इसके संगीतकार भी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ही थे।
मोहम्मद रफ़ी जैसे महान गायक की गायकी के विषय में कुछ कहना ऐसा ही होगा जैसे चराग़ को रौशनी दिखाना। एक और महान गायक थे मन्ना डे जिन्हें शास्त्रीय गायन में महारत हासिल थी। एक बार उन्होंने कहा था
“सभी गायकों की अपनी सीमाएं होती हैं, जिनमें मैं भी शामिल हूं। लेकिन अगर कोई ऐसा है जो कुछ भी गा सकता है तो वह मोहम्मद रफी हैं।” – मन्ना डे
वाक़ई आप चाहें उछलते कूदते शम्मी कपूर को सुने, या मसखरी करते महमूद और जॉनी वॉकर को। भजन, ग़ज़ल गाते भारत भूषण या दिलीप कुमार को सुने या रोमांटिक बिस्वजीत, राजेंद्र कुमार को, नाचते थिरकते ऋषि कपूर हों या ही-मैन धर्मेंद्र या कोई और नया कलाकार। जब आप उस कलाकार को परदे पर देखते हैं तो ऐसा लगता है कि वो कलाकार ही गा रहा है। और जब आप रफ़ी साहब की आवाज़ में कोई गाना सुन रहे होते हैं तो ज़हन में उस हीरो की शक़्ल घूम जाती है जिस पर वो गाना फ़िल्माया गया होगा।
ये ख़ासियत बहुत कम गायकों में होती है कि वो उस हीरो की पर्सनेलिटी में अपनी आवाज़ को ढाल लें। ठीक पानी की तरह जो हर रंग को अपना लेता हैं हर आकार में ढल जाता है। और उनकी आवाज़ की यही ख़ासियत रफ़ी साहब को वो रुतबा देती है जिसके लिए आज भी हम उन्हें याद करते हैं और ताउम्र करते रहेंगे।