K N सिंह अपने ज़माने के ख़तरनाक विलेन दिखने में बेहद सोफ़ेस्टिकेटेड थे, असल ज़िन्दगी में भी और परदे पर भी मगर फ़िल्म में जैसे ही उनकी एंट्री होती तो दर्शक संभल कर बैठ जाते थे कि अब आएगा कहानी में ट्विस्ट।
K N सिंह थे अपने ज़माने के सोफ़ेस्टिकेटेड विलेन
K N सिंह को जब आप परदे पर अभिनय करते हुए देखते हैं तो एक स्टाइल तो ज़रूर नज़र आता है मगर वो स्टाइल आम ज़िंदगी के आस-पास का दिखता है। कोट और हैट पहने, मुँह में पाइप दबाए, कुछ समझने वाले अंदाज़ में अपनी गर्दन को ऊपर नीचे करना और आँखों को सिकोड़कर, एक भोह को ऊपर उठाना, और फिर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान, यही था उनका अंदाज़। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों से ब्लैक एंड वाइट इरा के दर्शक सहम जाते थे।
लेकिन इसी डराने वाले अंदाज़ में एक खुली सी हँसी भी शामिल थी जो बतौर विलेन शायद उतना इम्पैक्ट नहीं डालती थी लेकिन उनके सफेदपोश किरदार को बहुत सूट करती थी। अक्सर उनके किरदार की पोल आख़िर में ही खुलती थी लेकिन दर्शकों को पता ही होता था कि असली culprit हैं K N सिंह। और ये इमेज इस हद तक हावी थी कि असल ज़िंदगी में भी लोग उन्हें विलेन ही समझ लेते थे।
एक बार की बात है शूटिंग से लौटते हुए उनके एक दोस्त ने उन्हें एक लिफ़ाफ़ा दिया जो उन्हें अपने रास्ते में पड़ने वाले एक पते पर पहुँचाना था। वो दोस्त के दिए पते पर पहुँचे और डोर बेल बजाई। एक महिला दरवाज़ा खोलने के लिए आईं लेकिन जैसे ही उस महिला ने K N सिंह को सामने खड़ा देखा, वो चीख़ते हुए अन्दर भाग गई, डर के मारे वो दरवाज़ा भी खुला छोड़ गईं। ऐसा ख़ौफ़ हुआ करता था उनका।
K N सिंह लोकप्रियता में किसी हीरो से कम नहीं थे
लेकिन ख़ौफ़ के बावजूद उन्होंने इतनी लोकप्रियता भी पाई कि जहाँ जाते थे भीड़ इकठ्ठा हो जाती थी। एक बार वो फ्रंटियर मेल से कहीं जा रहे थे, उसी ट्रैन में उस समय के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद भी यात्रा कर रहे थे और उनसे मिलने स्टेशंस पर काफ़ी भीड़ इकठ्ठा हो थी। मगर कुछ ही स्टेशंस के बाद जाने कैसे लोगों को पता चला कि उस ट्रैन में K N सिंह भी यात्रा कर रहे हैं तो सब उनके डिब्बे की तरफ़ भी इकठ्ठा होने लगे।
तब डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपने सेक्रेटरी से पूछा कि दूसरे कम्पार्टमेंट में कौन है ? मगर उन्हें पता नहीं था इसलिए वो उतरे और उस डिब्बे में जाकर बैठे। देखा कि बाहर से क्रेजी भीड़ की आवाज़ सुनकर K N सिंह खड़े हुए और उन्होंने ये भी पूछा कि आपको कैसे पता चला कि मैं इस डिब्बे में हूँ? तो भीड़ में से आवाज़ आई कि पिछले स्टेशन से फ़ोन आता है जिसमें उनके डिब्बे की डिटेल्स बताई जाती थी और इस तरह हर स्टेशन पर उनसे मिलने के लिए भीड़ जमा हो जाती थी।
K N सिंह ने वक़ालत के पेशे को ठुकरा दिया
कृष्ण निरंजन सिंह यही था उनका पूरा नाम, हाँलाकि उनके पिता चंडी प्रसाद ने उनका नाम निरंजन सिंह रखा था, पर उनके गुरु ने कहा कि तुम्हारे घर कृष्ण आये हैं। तो उनके नाम के आगे कृष्ण लगा दिया गया और उनका नाम हो गया कृष्ण निरंजन सिंह जो फ़िल्मों में आने पर हो गया K N सिंह। उनके पिता उन्हें अपनी ही तरह वक़ील बनाना चाहते थे और उनकी पढ़ाई-लिखाई भी इसी तरह से कराई गई थी ताकि वो विलायत जाकर वक़ालत कर सकें। मगर उन्हीं दिनों एक घटना घटी जिसने K N सिंह का वक़ालत से मोहभंग कर दिया।
हुआ ये कि देहरादून के एक गेस्ट हाउस में एक महिला का भयानक क़त्ल करके उसे वहीं ज़मीन में गाड़ दिया गया। उस समय सभी को पता था कि क़त्ल किसने किया। मगर उस रईस व्यक्ति को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया। और उस क़ातिल को बचाने में उनके अपने पिता की भूमिका थी। इसी के बाद उन्होंने वक़ालत का ख़याल छोड़ दिया।क्योंकि वो किसी क़ातिल का केस लड़ने की सोच भी नहीं सकते थे।
K N सिंह ने वक़ालत का ख़याल छोड़ने के बाद मिलिट्री सप्लाई, लांड्री,और प्रिंटिंग वर्क्स का बिज़नेस शुरू किया। एक समय पर उन्होंने रुड़की में स्कूल भी खोला, लेकिन दो साल बाद जब उनके पिता बीमार पड़े तो उन्हें घर लौटना पड़ा। K N सिंह ने एक समय में देहरादून के रॉयल मिलिट्री कॉलेज में दाखिला लिया था। सुबह जल्दी उठकर हर रोज़ मीलों दौड़ लगाना, नियमित रूप से ट्रेनिंग लेना, ये उनका पसंदीदा काम था।
इस दौरान उन्होंने अपने खेल पर फ़ोकस किया। शॉर्ट पुट और जेवलिन थ्रो में उनका नाम 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए सेलेक्ट हो चुका था। सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी, वो अपने सपनों की उड़ान भरने के लिए तैयार ही थे कि क़िस्मत ने उनसे वो मौक़ा भी छीन लिया। उनके पिता ने उन्हें उनकी बहन के घर कोलकाता भेज दिया। उनकी बहन के पति उस समय इंग्लैंड गए हुए थे और उनकी आँखों की सर्जरी होनी बहुत ज़रुरी थी।
K N सिंह पाँच भाई थे और उनकी एक बहन थी सभी भाई-बहनों में वो सबसे बड़े थे इसलिए उन्हें कोलकाता भेज दिया गया। वक़ालत के बाद ओलंपिक्स खेलने का मौक़ा भी उनके हाथ से चला गया। एक इंटरव्यू में उन्होंने ये भी कहा था कि वो सेना में भर्ती होना चाहते थे मगर हमारी सोच और हमारा भाग्य हमेशा एक दूसरे के विपरीत ही काम करते हैं।
उनके साथ अच्छा ये रहा कि वो जब सिनेमा में आए तो अपनी इतनी मज़बूत पहचान बनाई कि उनसे पहले जो बेहद मशहूर विलेन हुआ करते थे याक़ूब, उन्होंने उनसे कहा था “सिंह अब तुम किंग हो, अब मैं चरित्र भूमिकाएँ निभाऊँगा”। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है ?
कोलकाता से शुरू हुआ फ़िल्मी सफ़र
1 सितम्बर 1908 को देहरादून में जन्मे K N सिंह ने पढ़ाई की देहरादून और लखनऊ से, और फ़िल्मी सफ़र शुरु किया कोलकाता से, क़रीब 28 साल की उम्र में। उससे पहले कहीं कोई फ़िल्मी माहौल नहीं था कोई तैयारी नहीं थी। शायद कुछ लोग कुछ ख़ास काम के लिए ही बने होते हैं जिसके लिए उन्हें किसी प्रशिक्षण की ज़रुरत नहीं होती। KN सिंह उन्हीं में से थे क्योंकि उनकी ऑब्ज़र्वेशन और याददाश्त बहुत अच्छी थी, और स्टाइल तो उनका यूनिक था ही। इसी वजह से फ़िल्मों में उन्हें काम मिल गया।
कोलकाता में K N सिंह की मुलाक़ात पृथ्वीराज कपूर से हुई जो उस समय तक कोलकाता फिल्म इंडस्ट्री में क़दम जमा चुके थे। इस मुलाक़ात ने उनकी ज़िंदगी को एक नई दिशा दे दी। क्योंकि पृथ्वीराज कपूर ने ही उन्हें न्यू थिएटर्स के निर्देशक देबकी बोस से मिलवाया और 1936 में वो बतौर सहायक 80 रूपए महीने की तनख़्वाह पर उनके साथ काम करने लगे। उनका अंदाज़ देखकर देबकी बोस ने उन्हें अपनी फ़िल्म ‘सुनहरा संसार’ में डॉक्टर की छोटी सी भूमिका ऑफर की।
कहते हैं जब फ़िल्म की स्क्रीनिंग की जा रही थी तो K N सिंह वहाँ से भागने की कोशिश करने लगे, पहली फ़िल्म थी, घबराहट थी जाने कैसा काम किया होगा लेकिन देबकी बोस ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें बैठा लिया और कहा – चीज़ों से कभी भागो मत, तुम्हें सच्चाई का सामना करना होगा” और फिर हुआ ये कि सबने उनके काम की तारीफ़ की जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और फिर वो दिखे हीरो के रोल में, उनकी ये फ़िल्म थी “हवाई डाकू” जो हीरो के रूप में उनकी आख़िरी फ़िल्म भी थी।
बतौर खलनायक कई दशकों तक फ़िल्मी परदे पर छाए रहे
न्यू थिएटर्स की “अनाथाश्रम” में K N सिंह एक bad मैन के रूप में दिखाई दिए, जो एक बच्चे का अपहरण कर लेता है। और as a villain ये उनकी पहली फ़िल्म थी। फिर आई विद्यापति जिसमें उनका बहुत अच्छा करैक्टर रोल था। इसी फ़िल्म की शूटिंग के दौरान उनकी दूसरी शादी हुई। दरअस्ल उनकी पहली शादी 1930 में हुई थी मगर दो साल में ही उनकी पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। 1937 में जब देहरादून से उनकी शादी का बुलावा आया तो विद्यापति की शूटिंग चल रही थी।
वो दो दिन की छुट्टी लेकर देहरादून गए, शादी की और वापस लौट आये। फिल्म के एक सीन में जब वो पृथ्वीराज कपूर के दरबार में प्रवेश करते हैं तो एंट्री से पहले वो ग़ैर शादीशुदा थे मगर दूसरे ही दृश्य में जब वो दरबार में दिखाई पड़ते हैं तो उनकी शादी हो चुकी थी। शूटिंग की वजह से ही वो बस जल्दी जल्दी शादी करके लौट आए। इसी वजह से उनकी शादी की कोई तस्वीर भी नहीं ली गई।
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जिन दिनों विद्यापति रिलीज़ हुई उन्हीं दिनों A R कारदार एक ऐसे अभिनेता की तलाश कर रहे थे जो उनकी फ़िल्म “मिलाप” में वक़ील की दमदार भूमिका निभा सके।फ़िल्म विद्यापति में K N सिंह के अभिनय को देखकर उन्हें लगा कि यही वो अभिनेता है जो ये रोल कर सकता है। “मिलाप” आई थी 1937 में, उस फ़िल्म में K N सिंह का एक 4 पेज लम्बा संवाद था और तैयारी के लिए सिर्फ़ 2 दिन का समय दिया गया था। जिसे उन्होंने एक ही दिन में याद कर लिया था।
जब शूटिंग शुरु हुई तो इतना लम्बा संवाद उन्होंने एक ही टेक में ओके किया। ऐसी ही थी उनकी याददाश्त और तैयारी। रिटायर होने के बाद भी उन्हें अपनी फ़िल्में उनसे जुड़े लोग और घटनाएं तारीख़ों के साथ याद थीं। एक और ख़ास बात थी उनमें वो बहुत जल्दी सीखते थे इसीलिए कई किरदार इतने जानदार हो जाते थे।
शक्ति सामंत की 1956 में आई फ़िल्म “इंस्पेक्टर” में जब उन्हें विक्टोरिया चालक की भूमिका निभानी थी तो उन्होंने कई दिनों तक विक्टोरिया चालकों के उठने-बैठने के तरीक़े, बात करने स्टाइल, विक्टोरिया चलाने के ढंग को ऑब्ज़र्व किया। यहाँ तक कि किंग्स सर्कल पर विक्टोरिया चलकर भी देखा और किसी से पूछ कर चोर बाज़ार से विक्टोरिया चालक की ड्रेस भी ले आए और उसी को पहनकर शक्ति सामंत के सामने पहुँच गए।
शक्ति सामंत उन्हें विक्टोरिया चालक समझ कर डाँटने ही वाले थे कि उनकी नज़र K N सिंह के चेहरे पर पड़ी और वो हैरान हो गए। रोल तो K N सिंह का विलेन का ही था मगर किरदार के पेशे से जुड़े ऐसे रिसर्च आपके काम को हक़ीक़त के क़रीब ले आते हैं। सिर्फ़ K N सिंह ही नहीं हर सशक्त अभिनेता का यही मानना रहा है कि ये कोई निर्देशक आपको नहीं सिखा सकता, ये आपको ख़ुद सीखना पड़ता है।
मुंबई में मिली असली पहचान
कोलकाता से जब A R कारदार जब मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की तरफ़ रवाना हुए तो K N सिंह भी उनके साथ बॉम्बे फ़िल्म इंडस्ट्री में भाग्य आज़माने पहुँच गए। बॉम्बे में 1938 में आई फ़िल्म ‘बाग़बान’ जिसने K N सिंह को स्टार विलेन की पंक्ति में सबसे आगे लाकर खड़ा कर दिया। उन दिनों याक़ूब और ईश्वरलाल मशहूर विलेन हुआ करते थे K N सिंह ने उनकी बहुत सी फिल्में देखी थीं। मगर उन्होंने AR कारदार से साफ़ कह दिया था कि वो किसी की नक़ल नहीं करेंगे बल्कि उस किरदार को अपने स्टाइल में करेंगे।
इसके लिए उन्होंने एक सीन टीम के सामने परफॉर्म भी किया और कहा कि अगर पसंद न आए तो आप किसी और को ले लेना। जब वो सीन पूरा हुआ तो A R कारदार ने कुछ नहीं कहा मगर उनकी पत्नी बहार को K N सिंह की ख़ौफ़नाक आँखों ने बहुत प्रभावित किया। एक बड़ी फ़िल्म मैगज़ीन में दिए K N सिंह के इंटरव्यू के मुताबिक A R कारदार कन्विंस नहीं थे मगर बाक़ी सबकी रज़ामंदी देख K N सिंह को इस किरदार के लिए साइन कर लिया गया।
लेकिन जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई तो याक़ूब ने उन्हें किंग कहकर सम्बोधित किया और ये भी कहा कि अब वो विलेन के रोल नहीं करेंगे बल्कि उनकी फ़िल्मों में कॉमिक रोल करेंगे और बाद में कई ऐसी फ़िल्में आईं जिसमें याक़ूब ने कॉमेडी की और K N सिंह विलेन के किरदार में दिखाई दिए। “बाग़बान” के बाद K N सिंह के पास फ़िल्मों की लाइन लग गई। उन्होंने नानूभाई देसाई, चंदूलाल शाह, सोहराब मोदी और देविका रानी के साथ कई फ़िल्में कीं। देविका रानी ने उन्हें 1600 रूपए महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर बॉम्बे टॉकीज़ में हायर किया था, साथ ही पिक एंड ड्राप के लिए कार की सुविधा अलग से थी।
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K N सिंह की स्क्रीन प्रेसेंस काफ़ी दमदार थी वो जब सीन में होते थे तो कोई और नज़र ही नहीं आता था। इसलिए उन्हें सीन-स्टीलर कहा जाता था। वो लगातार अपने स्टाइल में बदलाव करते रहते थे, इसी बदलाव के कारण वो इंडस्ट्री में क़रीब 5 दशकों तक टिके रहे। और यहाँ पृथ्वीराज कपूर और K L सहगल से उन की बहुत अच्छी दोस्ती रही।
1938 से बॉम्बे के जिस इलाक़े में वो रह रहे थे उसे एक समय में मिनी हॉलीवुड ऑफ़ बॉम्बे कहा जाता था, क्योंकि वहाँ उस समय के लगभग सभी छोटे बड़े स्टार्स रहा करते थे। पृथ्वीराज कपूर, K L सहगल, मदनपुरी, मनमोहन कृष्ण, जयंत, सितारा देवी, मन्ना डे, फणी मजूमदार, जयराज और भी कई लोग वहां रहते थे। शाम के वक़्त अक्सर लोग एक दूसरे के घर पर इकठ्ठा होते और अच्छी ख़ासी महफ़िल सजती।
राज कपूर को “राज साहब” न कहना
K N सिंह ने राज कपूर के साथ “बरसात” और “आवारा” जैसी फ़िल्में की थीं मगर इस के बाद दोनों ने कभी साथ में काम नहीं किया। इसकी वजह कही जाती है उनका राज कपूर को राज साहब न कहना। राज कपूर उनके साथी पृथ्वीराज कपूर के बेटे थे, K N सिंह ने राज कपूर को गोद में खिलाया था। वो दुनिया के लिए साहब हो सकते थे पर K N सिंह के लिए तो वो उनके दोस्त के बेटे ही थे।
दोनों ही अपनी-अपनी जगह स्टार भी थे इसलिए दोनों का ईगो टकराया गया। लेकिन आवारा ने दुनिया भर में धूम मचाई रूस में भी यव फ़िल्म रिलीज़ हुई और K N सिंह अकेले ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने रुसी भाषा में अपनी डबिंग ख़ुद की थी।
K N सिंह ने जब फ़िल्मों में क़दम रखा था तो खलनायक की इमेज एकदम अलग हुआ करती थी। लेकिन उन्होंने उस स्टीरियो टाइप छवि को तोडा। आप उनकी फ़िल्में देखें तो न तो आपको गालियों भरे संवाद सुनाई देंगे न, ज़्यादा चीख़-चिल्लाहट, या ओवर-एक्टिंग मिलेगी। उन्होंने कम बोलकर अपने चेहरे से, आँखों से, अपनी ओवर आल प्रजेंस से दर्शकों में ख़ौफ़ पैदा किया। आपको शायद यक़ीन न हो पर हर फ़िल्म में वो ख़ुद ये तय करते थे कि उनका किरदार किस हद तक बुरा दिखेगा।
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शायद वो अकेले ऐसे खलनायक होंगे जिनकी परदे पर सबसे कम पिटाई हुई। होती भी कैसे असल ज़िन्दगी में भी उनका एक रौब हुआ करता था, कोई उनका अपमान करने की हिम्मत नहीं करता था। कहते हैं कि उनकी पॉपुलैरिटी और अभिनय क्षमता के अलावा फिल्म निर्माता उन्हें इसलिए भी कास्ट करते थे क्योंकि उनके कारण दूसरे कलाकार शूटिंग पर टाइम पर आ जाते थे।
खलनायकी का जलवा दिखाते हुए K N सिंह ने कई महत्वपूर्ण चरित्र भूमिकाएं भी कीं। बरसात, सज़ा, आवारा, बाज़ी, जाल, मरीन ड्राइव, CID, इंस्पेक्टर, चलती का नाम गाड़ी, हावड़ा ब्रिज, काली टोपी लाल रुमाल, बरसात की रात, ऑपेरा हाउस, मेरा साया, आम्रपाली, एन इवनिंग इन पेरिस, स्पाई इन रोम, मेरे हुज़ूर, हिम्मत, हाथी मेरे साथी, लोफर, मजबूर, काला सोना, दोस्ताना कालिया जैसी बहुत सी फ़िल्मों में उन्होंने छोटे-बड़े गुंडे से लेकर डॉन, वकील, जज, डॉक्टर, पुलिस ऑफ़िसर, ज़मींदार, जैसे कई पॉज़िटिव किरदार भी निभाए।
आख़िरी वक़्त में उनकी दुनिया अँधेरी हो गई थी
उम्र बढ़ने के साथ-साथ वो अपने किरदारों को लेकर काफ़ी चूज़ी हो गए थे,और विलेन के रोल भी काफ़ी कम कर दिए थे। उनका मानना था कि वही रोल करने चाहिए जो उनकी उम्र को सूट करें साथ ही हीरो और विलेन एक बराबर दिखें। हाँलाकि कई बार निर्माता-निर्देशक की बात माननी भी पड़ती पर वो ख़ुद ऐसा नहीं चाहते थे। K N सिंह की आख़िर फ़िल्म “दानवीर” 1996 में रिलीज़ हुई जिसमें वो प्रेम चोपड़ा को खलनायकी के गुर सिखाते नज़र आये।
1908 से साल 2000 लगभग एक सदी का वक़्त क्या-क्या नहीं देखा होगा उन्होंने देश की आज़ादी के संघर्ष से लेकर आज़ादी का दिन। दुनिया में हुए दो भयंकर युद्ध, सामाजिक-राजनितिक बदलाव, बदलता हुआ सिनेमा, तकनीक। इन सबसे उपजी हज़ारों कहानियाँ थीं उनके पास, जिन्हें सुनाने का उन्हें बहुत शौक़ भी था। उन कहानियों को वो घर के बच्चों को सुनाते थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, उन्होंने अपने भाई के बेटे पुष्कर को गोद लिया था, लेकिन घर के सभी बच्चे उन्हें बड़े पापा कहते थे।
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K N सिंह आख़िर तक ख़ुद को सिनेमा का स्टूडेंट मानते रहे उन्होंने इस विषय पर बहुत सी किताबें पढ़ीं, हॉलीवुड फ़िल्में देखीं जिनसे उन्हें अपने किरदार निभाने की प्रेरणा भी मिली। एक वक़्त था जब वो हाईएस्ट पेड विलेन थे। और फिर धीरे-धीरे वक़्त बदला। अपनी जिन बड़ी आँखों से वो रौब दिखाते थे, उनकी इन्हीं आँखों ने उन्हें धोखा दे दिया। 1984 तक आते-आते उनके मोतियाबिंद के दो ऑपरेशन हो चुके थे मगर उनकी ऑप्टिक नर्व्स सूखने लगी थीं जिनकी वजह से उनकी आँखों की रौशनी जाती रही।
लगभग 30 दशकों तक K N सिंह अपनी उलटी आंख से ही काम चला रहे थे। क्योंकि उनकी दाईं आंख की रौशनी लगभग जा चुकी थी। 89 तक आते-आते दूसरी आँख से भी वो बिना स्पेशल चश्मे के नहीं देख पाते थे। बाद के दौर में तो दिखना बिलकुल ही बंद हो गया था। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दस साल अंधेरी दुनिया में गुज़ारे। न वो पढ़ सकते थे, न टीवी देख सकते थे, पर वो किसी पर निर्भर नहीं होना चाहते थे इसलिए अपने काफ़ी काम ख़ुद करने की कोशिश किया करते थे। सदी की शुरुआत में 31 जनवरी को वो इस अँधेरी दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए।