फ़रीदून ईरानी वो सिनेमैटोग्राफ़र थे जिन्होंने भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म शूट की और वो फ़िल्म भी जो ऑस्कर में नॉमिनेट होने वाली भारत की पहली फ़िल्म थी।
फ़िल्मों में जोड़ियों का बहुत महत्त्व रहा है चाहे वो हीरो-हेरोइन की जोड़ी हो, गीतकार-संगीतकार की या डायरेक्टर और कैमरामैन की। वैसे भी एक ही टीम होने से आपसी समझ और तालमेल बेहतर होता है जिससे फ़िल्म निर्माण आसान हो जाता है, शायद इसीलिए हर प्रोडक्शन हाउस की अपनी एक टीम होती है, और अमूमन हर टीम में एक फिक्स कैमरामैन होता है।
जैसे गुरुदत्त प्रोडक्शंस में वी के मूर्ति, आर के फ़िल्म्स में राधू करमाकर, बिमल रॉय प्रोडक्शंस में कमल बोस, इसी तरह महबूब प्रोडक्शंस में थे फ़रीदून ईरानी, जिनके कैमरा ने शूट की थी भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म और वो आइकोनिक फ़िल्म भी जो अकेडमी अवार्ड्स में भारत की पहली नॉमिनेटेड फिल्म थी। फ़रीदून ईरानी वो सिनेमेटोग्राफर थे जिन्होंने उस ऐतिहासिक मीटिंग की अध्यक्षता की जिसके बाद मुंबई में WICA यानी वेस्टर्न इंडिया सिनेमैटोग्राफर्स एसोसिएशन का गठन हुआ।
फ़रीदून ईरानी ने इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी से करियर की शुरुआत की
फ़रीदून ए ईरानी का बचपन बॉम्बे में ही गुज़रा जहाँ उनके पिता का एक डिपार्टमेंटल स्टोर था। वो चाहते थे कि फ़रीदून ईरानी इंग्लैंड जाकर इंजीनियरिंग की पढाई करें मगर फ़रीदून ईरानी को सिनेमा में इतनी रूचि थी कि वो अपना ज़्यादातर समय पैलेस सिनेमा में बिताया करते थे। और वो कहते हैं किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो वो आपको मिल ही जाती है। तो उन्हें भी मेट्रिक की पढाई पूरी करने के बाद इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी में बतौर अप्रेंटिशिप काम मिल गया।
गौर करिएगा जब आप गूगल सर्च में फ़रीदून ईरानी डालेंगे तो अरुणा ईरानी, बोमन ईरानी सब की पिक्चर्स आएँगी सिवाय फ़रीदून ईरानी के। बड़ी मशक्क़त के बाद दो तस्वीरें मिलीं जो एक दूसरे से काफ़ी अलग दिखती हैं पर दोनों को लेकर ये दावा किया गया है कि यही फ़रीदून ईरानी हैं। मैं भी वही तस्वीरें यहाँ शेयर कर रही हूँ। ख़ैर ! ऐसा तो बहुत से फ़नकारों के साथ हुआ है, जिनकी जानकारी भी उपलब्ध नहीं है फ़ोटो तो दूर की बात है।
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फ़रीदून ईरानी लगभग तीन साल तक इम्पीरियल फ़िल्म्स के कैमरा डिपार्टमेंट में काम करते रहे और आख़िरकार उन्हें वो मौक़ा मिल गया जब कैमरा की कमान उनके हाथ में आ गई। ऐसा तब हुआ जब 1929 में अर्देशिर ईरानी ने इम्पीरियल फिल्म कंपनी की सहायक कंपनी के तौर पर सागर मूवीटोन की शुरुआत की, जिसमें उनके पार्टनर बने चिमनलाल देसाई और डॉ अम्बालाल पटेल। हाँलाकि जल्दी ही अर्देशिर ईरानी ने सागर मूवीटोन छोड़ दिया। मगर इम्पीरियल का बहुत सा स्टाफ़ वहाँ काम करता रहा जिसमें एक थे फ़रीदून ईरानी और दूसरे थे महबूब ख़ान। जब ये दोनों साथ आये तो एक नई शुरुआत हुई।
पर उस विषय में बात करने से पहले बात करते हैं उस मौक़े की जिसने फ़रीदून ईरानी को कैमरामैन बनाया। वो मौक़ा उन्हें मिला 1930 में, जब नानूभाई वक़ील ने एक चार रील की फ़िल्म डायरेक्ट की। ये फ़िल्म थी सागर मूवीटोन की दान लीला जिसमें फ़रीदून ईरानी पहली बार कैमरामैन बने। और फिर एक फुल फ्लेजेड फ़ीचर फ़िल्म शूट करने का मौक़ा भी उन्हें दिया नानूभाई वक़ील ने ही। वो थी 1932 में आई गुजराती फिल्म “नरसी मेहता”।
जब 1932 में ही आई “बुलबुल-ए-बग़दाद” तब फ़रीदून ईरानी के कैमरा वर्क को काफ़ी सराहना मिली। इसके बाद उन्होंने सर्वोत्तम बादामी के लिए “गृहलक्ष्मी (34)”, “वैर का बदला ( Vengeance is mine ) 1935”, “डॉ मधुरिका (35)”, “ग्राम कन्या (36)” और “कोकिला (37)” जैसी फ़िल्में शूट कीं।
फ़रीदून ईरानी और महबूब ख़ान की दोस्ती ने कई अमर फ़िल्में दीं
लेकिन इसी बीच उस प्रोफेशनल रिश्ते की नींव पड़ी जिसने भारतीय सिनेमा को कई महत्वपूर्ण फ़िल्में दीं। महबूब खान हीरो बनने के लिए फ़िल्मों में आये थे और इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी की कई फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएँ निभा चुके थे। जब अर्देशिर ईरानी ने सागर मूवीटोन शुरु किया तो वहाँ भी महबूब ख़ान ने बतौर सहायक अभिनेता कई फ़िल्में कीं। इसी दौर में महबूब ख़ान ने एक कहानी लिखी जिस पर वो ख़ुद फ़िल्म बनाना चाहते थे। कहानी तो सबको पसंद आई मगर किसी नए व्यक्ति को निर्देशन का मौक़ा देना एक बड़ा रिस्क था तो उनसे कहा गया कि वो पहले एक रील बनाकर दिखाएँ।
उस वक़्त तक फरीदून ईरानी और महबूब ख़ान अच्छे दोस्त बन चुके थे, तो दोनों ने उस एक रील को शूट किया जिसे देखने के बाद महबूब ख़ान को फ़िल्म के निर्देशन का मौक़ा मिल गया। वो फिल्म थी “अल-हिलाल” जिसे “जजमेंट ऑफ़ अल्लाह” के नाम से भी जाना जाता है। इस फिल्म के बाद महबूब खान और फ़रीदून ईरानी में ऐसी दोस्ती हुई कि बाद में भी महबूब ख़ान के निर्देशन में बनी लगभग हर फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर फ़रीदून ईरानी ही रहे। सागर मूवीटोन की “डक्कन क्वीन”, “मनमोहन”, “जागीरदार”, “हम तुम और वो”, “एक ही रास्ता” और “अलीबाबा” जैसी कई मशहूर फ़िल्मों में कैमरा का कंट्रोल फ़रीदून ईरानी के हाथ में रहा।
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दूसरे विश्व युद्ध के बाद सागर मूवीटोन और जनरल फ़िल्म्स के मर्जर से 1940 में जब नेशनल स्टूडियो अस्तित्व में आया तब महबूब ख़ान के साथ साथ फ़रीदून ईरानी भी नेशनल स्टुडिओज़ से जुड़ गए और वहाँ जो तीन बेहतरीन फ़िल्में महबूब खान ने बनाईं उनमें सिनेमेटोग्राफर फ़रीदून ईरानी ही रहे। ये फिल्में थीं “औरत”, “बहन” और “रोटी”, इनमें से “औरत” और “रोटी” की फ़िल्म इतिहास में ख़ास जगह है।
1942 में महबूब ख़ान ने नेशनल स्टूडियो छोड़ दिया और अपना प्रोडक्शन शुरु किया “महबूब प्रोडक्शंस”। उनकी उस टीम का अटूट हिस्सा रहे फ़रीदून ईरानी। “नजमा”, “तक़दीर” और “हुमायूँ” जैसी शुरुआती फ़िल्मों के बाद उन्होंने शूट की सुपरहिट म्यूज़िकल “अनमोल घड़ी”। उसके बाद एक और म्यूजिकल आई “अंदाज़” जिसमें उनका कैमरा फ़िल्म के मूड के साथ साथ ऐसा बदला कि कई सीन यादगार बन गए।
लेकिन फ़रीदून ईरानी को उस वक़्त काफी सराहना मिली जब आई फ़िल्म “आन”, इस फिल्म को 16mm गेवा कलर में शूट किया गया था और बाद में टेक्नीकलर में कन्वर्ट किया गया। उस समय की ये सबसे महंगी फ़िल्म थी, और पहली भारतीय फ़िल्म थी जिसे UK, US जापान, फ्राँस समेत दुनिया के क़रीब 28 देशों में 17 भाषाओं में subtitle के साथ रिलीज़ किया गया था और ब्रिटिश मीडिया ने इसकी भरपूर सराहना की थी। जिसमें सिर्फ़ निर्देशन, म्यूजिक, अभिनय का ही कमाल नहीं था कैमरा का भी भरपूर कमाल था।
फ़िल्मों की बात करें तो 1957 में आई वो फ़िल्म जो दुनिया भर में मशहूर हुई और जिसने फ़रीदून ईरानी को दिलाया उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड। ये फिल्म थी 1957 में प्रदर्शित “मदर इंडिया” जो ऑस्कर में नॉमिनेट भी हुई, लेकिन सिर्फ़ एक वोट से पीछे रह गई। मदर इंडिया की गिनती आज भी भारत की बेस्ट फ़िल्मों में की जाती है। इसमें बाढ़ का दृश्य हो या खेत जोतने का या फिर क्लाइमेक्स सभी दृश्य यादगार और लाजवाब हैं।
मदर इंडिया की स्क्रिप्ट भी पूरी नहीं हुई थी न ही कलाकारों का चयन हुआ था मगर शूटिंग शुरु हो गई थी। वो ऐसे की फ़िल्म की कहानी में बाढ़ आती है और उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के एक इलाक़े में भयानक बाढ़ की ख़बरें आईं और फ़रीदून ईरानी तुरंत कैमरा लेकर वहाँ पहुँच गए। उन्होंने बाढ़ के बहुत से दृश्य शूट किए जिनमें से कई फ़िल्म में इस्तेमाल भी किए गए।
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“मदर इंडिया” के बाद महबूब ख़ान की “सन ऑफ़ इंडिया” में भी फ़रीदून ईरानी की सिनेमेटोग्राफी थी मगर ये फ़िल्म कोई ख़ास चली नहीं और फिर 1964 में महबूब खान की मौत हो गई। उनकी मौत का फ़रीदून ईरानी पर काफ़ी असर पड़ा। सालों का साथ था जो अचानक छूट गया था इसके बाद उन्होंने बाहर की फिल्में कीं पर बहुत कम। इनमें “पालकी”, “आदमी”, “दुनिया”, “गोपी”, “गैम्बलर” और “दो फूल” जैसी फिल्में शामिल हैं। “दुनिया” फ़िल्म के लिए उन्हें दूसरी दफ़ा फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया। फ़रीदून ईरानी की आख़िरी फ़िल्म थी 1979 में आई “हम तेरे आशिक़ हैं”।