K L सहगल हिंदी सिनेमा के पहले मेल सुपर स्टार, सिंगिंग स्टार। उनकी आवाज़ ने न जाने कितने नए सिंगर्स को इंस्पायर किया। गायकी उनके लिए पूजा थी, एक ऐसा पैशन जो वक़्त के साथ साथ बढ़ता ही गया।
बचपन में ही K L सहगल के बड़े गायक बनने की भविष्यवाणी कर दी गई थी
बचपन से ही उन्हें हर शय में संगीत सुनाई देता था और इतनी तन्मयता से वो अपनी माँ से भजन-कीर्तन, लोरी सुनते कि पांच साल की उम्र में उन्हें हू-ब-हू कॉपी भी कर लिया करते थे। उनकी उस सधी हुई आवाज़ ने उन्हें शहर भर में शोहरत दिला दी थी। लेकिन तभी न जाने क्या हुआ कि उनकी आवाज़ ने साथ देना बंद कर दिया। और उनके लिए न गा पाने की तड़प कुछ ऐसी ही था जैसे कोई प्यासा कुआँ सामने होते हुए भी पानी न पी पाए। फिर उनकी माँ उन्हें उन्हीं पीर बाबा के पास लेकर गईं जिन्होंने उनके बचपन में ही ये भविष्यवाणी कर दी थी कि वो बहुत बड़े गायक बनेंगे।
इसके बाद K L सहगल का ज़्यादातर समय मज़ार पर ही गुज़रता। पीर बाबा उन्हें ज्ञान की बातों के साथ-साथ घंटों रियाज़ भी कराते। कहते हैं कि ये सिलसिला क़रीब दो साल चला और तब तक उनकी आवाज़ तप कर सचमुच कुंदन बन गई थी। मगर अच्छी आवाज़ और भविष्यवाणी का मतलब ये नहीं होता कि सब कुछ थाली में सजा के मिल जायेगा। संघर्ष तो हर इंसान को करना पड़ता है और K L सहगल को तो इतना संघर्ष करना पड़ा कि हफ्ते भर खाना नहीं मिला, बेहोश हो गए। उन्होंने भी फ़िल्मों तक पहुँचने की अपनी यात्रा में कई और काम किए तब जाकर वो “The K L Saigal” कहलाए।
K L सहगल सुन-सुन कर ही शास्त्रीय संगीत में माहिर हो गए थे
कुन्दनलाल सहगल यानी K L सहगल का जन्म 4 अप्रैल 1904 को जम्मू में हुआ था उनके पिता अमरचंद सहगल वैसे तो जालंधर के रहने वाले थे पर जब उन्हें जम्मू का तहसीलदार बनाया गया तब से वो जम्मू जाकर बस गए। उनकी माँ केसरबाई धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं, जिनकी संगीत में काफ़ी रुचि थी, मगर उनके पिता को संगीत पसंद नहीं था। लेकिन जब वो काफ़ी छोटे थे तो उनके बड़े भाई रामलाल को फेफड़ों की बीमारी हो गई थी तब डॉक्टर ने सलाह दी कि अगर उन्हें शास्त्रीय संगीत की प्रैक्टिस कराई जाए तो फ़ायदा हो सकता है।
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न चाहते हुए भी K L सहगल के पिता ने उनके भाई को क्लासिकल संगीत सिखाने के लिए एक उस्ताद का अर्रेंजमेन्ट किया मगर उन्होंने इस बात का पूरा ख्याल रखा कि घर के दूसरे बच्चों में संगीत का ये शौक़ पैदा न हो। इसलिए उस्ताद एक बंद कमरे में संगीत सिखाते थे पर K L सहगल बंद कमरे के बाहर कान लगा कर सुनते और अकेले में उसकी प्रैक्टिस करते। और बिना किसी फ़ॉर्मल ट्रैंनिंग के वो इतने माहिर हो गए कि जब 12 साल की उम्र में वो अपने पिता के साथ कश्मीर के महाराज के दरबार में गए तो उनकी सधी हुई आवाज़ सुनकर महाराज बहुत प्रभावित हुए।
उस तारीफ़ को सुनकर हर पिता की तरह उनके पिता भी खुश तो हुए मगर तब भी वो ये नहीं चाहते थे कि उनका बेटा गायक बने। मगर K L सहगल तो ये लिखवाकर आए थे और होनी को भला कौन टाल सका है। इस घटना के बाद तो वैसे ही शहर भर में उनके चर्चे होने लगे थे। तब जम्मू की रामलीला के प्रबंधक उनके पिता के पास गए और न चाहते हुए भी पिता ने रामलीला में अभिनय की इजाज़त दे दी,और तब से K L सहगल रामलीला में सीता की भूमिका निभाने लगे।
पिता ने कहा – संगीत या घर में से किसी एक को चुन लो
उसी दौरान K L सहगल के पिता नौकरी से रिटायर हो गए और फिर पूरा परिवार वापस जालंधर आ गया। वहाँ पहुँच कर K L सहगल ने कई छोटे-मोटे काम किए मगर उनका मन म्यूजिक में रमा रहता था इसलिए किसी भी काम पर ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाते थे। लेकिन जब पिता ने संगीत और घर में से किसी एक को चुनने को कहा तो उन्होंने घर छोड़ दिया और दिल्ली आ गए। कई नौकरियां की, कई शहर बदले और अपनी तबियत के मुताबिक़ छोड़े भी, फिर रेलवे की नौकरी में थोड़ा ठहरे।
दिल्ली रेलवे में टाइमकीपर की, नौकरी के बाद मुरादाबाद रेलवे में क्लर्क का काम किया। वहाँ के स्टेशन मास्टर उनकी गायन प्रतिभा के क़ायल हो गए, उनकी पत्नी सहगल साब से संगीत सीखा करती और उन्हें अंग्रेज़ी सिखातीं। लेकिन वो फिर दिल्ली लौट आए और रेलवे यार्ड में नौकरी करने लगे पर गीत-संगीत नहीं छूटा। बल्कि जहाँ भी गए उनके गीत-संगीत के चर्चे ख़ूब हुए लेकिन ऐसा कोई काम नहीं मिल पा रहा था जिससे म्यूजिक का शौक़ भी पूरा होता और रोज़ी-रोटी भी चलती रहती।
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यहीं K L सहगल की मुलाक़ात एक संगीत-प्रेमी से हुई जो शिमला में एक एमेच्योर ड्रेमेटिक क्लब चलाते थे। वहाँ उस क्लब का काफ़ी नाम भी था तो 1930 में वो शिमला चले गए। शाम के वक़्त वो उस क्लब के नाटकों में हिस्सा लेते। और पूरा दिन बिताने के लिए उन्होंने एक नौकरी ढूंढ ली, वो रेमिंग्टन टाइपराइटर कंपनी में काम करने लगे। लेकिन एक बार फिर पहिया घूमा और उन्हें कंपनी की तरफ़ से दिल्ली भेज दिया गया। अबकी बार काम था सेल्समेन का, वो टाइपराइटर का आर्डर लेने अलग-अलग शहरों में जाते पर फिर उनका दिल ऐसा उखड़ा कि उन्होंने वो नौकरी छोड़ दी।
जीवन के संघर्ष में तपकर बने K L सहगल
नौकरी छोड़ने के बाद K L सहगल मुंबई चले गए मगर वो ज़माना मूक फ़िल्मों का था तो उन्हें मायूस लौटना पड़ा। फिर एक दिन जो जमा पूँजी थी उसे लेकर बिना किसी को बताए कानपुर पहुँच गए। कंपनी के काम के सिलसिले में वो पहले भी वहाँ गए थे मगर इस बार उन्हें भुखमरी और तंगहाली का सामना करना पड़ा। असली स्ट्रगल यहीं से शुरु हुआ, जो जमा पूँजी थी वो ख़त्म हो गई और काम कोई मिल नहीं रहा था। एक बार सात दिन के भूखे प्यासे सड़क पर बेहोश होकर गिर पड़े, तब पास के कारखाने के कारीगरों ने उन्हें खाना खिलाया।
एक दिन ऐसा भी हुआ कि K L सहगल अपना ग़म हल्का करने को गंगा के घाट पर बैठ कर गा रहे थे तो लोगों ने भिखारी समझ लिया पर उसी दिन एक कपड़ों का व्यापारी भी वहाँ पहुँचा और उसे लगा कि ये इंसान भिखारी नहीं हो सकता तो उसने सहगल साब से सारा हाल जाना और सच जानने के बाद उसने उन्हें फेरी लगा कर साड़ियां बेचने का काम दे दिया। अब वो दिन में फेरी लगाते और शाम उस्तादों की संगत में बिताते। कहते हैं कि कानपुर की एक बहुत मशहूर तवायफ़ जिन्हें वो गुरु माँ कहते थे उन से सहगल साब ने ठुमरी-दादरा सीखा, उस्तादों को सुन-सुन कर राग-रागिनियाँ सीखीं।
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उन्हीं दिनों उन्हें एक महफ़िल में गाने का मौक़ा मिला वो गाना लोगों को इतना पसंद आया कि चंद हफ़्तों में पूरे कानपुर में K L सहगल का नाम गूँजने लगा। और उन्हीं दिनों अपने एक जानने वाले की सलाह पर वो कोलकाता जा पहुँचे जहाँ न्यू थिएटर्स में सवाक फ़िल्में बनना शुरु हो गई थीं। और यहाँ से उनके जीवन की वो यात्रा शुरु हुई जिसकी आस उन्होंने लगाई थी जिसके ज़रिए संगीत साधना भी हुई और जीवनयापन भी। और यहीं जन्म हुआ हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार नायक-गायक K L सहगल का।
K L सहगल की ज़िंदगी के बारे में जानने के बाद ये बात सच ही महसूस होती है कि ज़िंदगी में हर बात का वक़्त तय है और वो तभी होगी जब आप उसके लिए पूरी तरह तैयार होंगे और उससे पहले जो कुछ भी होता है वो आपकी तैयारी होती है जो आपके अनुभव के ख़ज़ाने में जहाँ मोती डालती है वहीं बड़े-बड़े पत्थर भी डालती है ताकि हम उन दोनों का फ़र्क़ अच्छी तरह समझ जाएँ और अगले पड़ाव के लिए पूरी तरह रेडी हो जाए। उनके फ़िल्मी पड़ाव की चर्चा किसी और दिन।
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