चित्रगुप्त का नाम शायद बहुत से लोगों ने न सुना हो मगर इस बात की गारंटी है कि उनकी बनाई धुनें गुनगुनाई ज़रुर होंगी। वो धुनें जिनमें छेड़छाड़ भरी शरारत है तो एक गंभीर रोमानी एहसास भी विरह का दर्द है तो क़ुदरती ठंडक भी।
चित्रगुप्त डबल MA थे
संगीतकार आनंद मिलिंद का नाम किसी के लिए अंजाना नहीं है, क़यामत से क़यामत तक जैसी म्यूजिकल हिट देकर इन दोनों भाइयों ने फ़िल्म संगीत में झंडे गाड़ दिए थे। इन भाइयों को संगीत अपने पिता चित्रगुप्त श्रीवास्तव से विरासत में मिला। बिहार के कमरेनी गाँव में 16 नवम्बर 1917 को जन्मे चित्रगुप्त ने पहले इकोनॉमिक्स में और बाद में जर्नलिज्म में मास्टर्स की डिग्री ली। चित्रगुप्त अपने समय के सबसे शिक्षित संगीतकार थे, शुरूआती फ़िल्मों में उनके नाम के साथ लिखा जाता था चित्रगुप्त MA.
चित्रगुप्त श्रीवास्तव अपने बड़े भाई ब्रज नादान आज़ाद से कोई 11 साल छोटे थे इसीलिए उन्हें पिता जैसी इज़्ज़त देते थे और उनसे प्रभावित भी थे। ब्रज नादान आज़ाद पत्रकार थे और उन्हें संगीत का बहुत शौक़ था साथ ही वो बहुत अच्छे तबला प्लेयर भी थे। लेकिन चित्रगुप्त की रूचि थी गायन में इसीलिए उन्होंने पंडित शिव प्रसाद से संगीत सीखा। रियाज़ के लिए वो लखनऊ के भातखंडे कॉलेज से संगीत के नोट्स मंगवाया करते थे। इसी दौरान वो पटना यूनिवर्सिटी में कुछ समय तक लेक्चरर भी रहे।
चित्रगुप्त की शुरुआत स्टंट फिल्मों से हुई
चित्रगुप्त के एक दोस्त थे जो मुंबई जाकर क़िस्मत आज़माना चाहते थे तो उन्हीं के साथ चित्रगुप्त भी मुंबई चले आए। वहाँ किसी तरह उनकी मुलाक़ात नितिन बोस से हुई जिन्होंने उन्हें कोरस में गाने का मौक़ा दिया। फिर कुछ संगीतकारों ने जान-पहचान हुई और फिर वो एस एन त्रिपाठी के सहायक बन गए। और उन्हीं की वजह से चित्रगुप्त को 1946 में अपना पहला ब्रेक मिला। फ़िल्म को लेकर मतभेद है एक मत के मुताबिक पहली फ़िल्म थी – फाइटिंग हीरो और दूसरे मत के मुताबिक़ फ़िल्म थी लेडी रॉबिनहुड पर इतना कन्फर्म है कि वो एक स्टंट फ़िल्म थी।
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इसके बाद सिलसिला चल निकला चित्रगुप्त ने अलग-अलग जॉनर की फ़िल्मों में संगीत दिया जिसका एक नुकसान ये हुआ कि उनका कोई एक स्टाइल नहीं बना मगर यही उनकी ख़ासियत भी रही कि जब जिस तरह के संगीत की ज़रुरत महसूस हुई उन्होंने वैसा ही म्यूजिक दिया। जिनमें स्टंट के अलावा धार्मिक, सामाजिक फिल्में भी शामिल रहीं। ऐसी ही फिल्म थी AVM प्रोड़कशन्स की “शिवभक्त” 1955 में आई ये फ़िल्म बड़े बैनर की उनकी पहली फ़िल्म थी।
S D बर्मन की वजह से मिली थी पहली बड़े बैनर की फ़िल्म
AVM प्रोडक्शंस के मालिक मयप्पन इस फ़िल्म का ऑफर लेकर पहले एस. डी. बर्मन के पास गए थे क्योंकि 50s में फ़िल्म संगीत में एस. डी. बर्मन का बोलबाला था। मगर बर्मन दा ने उन्हें ये कहकर मना कर दिया कि वो एक समय में दो-तीन से ज़्यादा फ़िल्मों पर काम नहीं करते। वैसे भी एस. डी. बर्मन धार्मिक फ़िल्मों में संगीत देने से बचते थे। इसलिए उन्होंने ही A.V. मयप्पन को चित्रगुप्त का नाम सुझाया जो उन दिनों धार्मिक फ़िल्मों में ही संगीत दे रहे थे। इस तरह चित्रगुप्त को अपनी पहली बड़े बैनर की फ़िल्म “शिवभक्त” में संगीत देने का मौक़ा मिला।
“शिवभक्त” से चित्रगुप्त को बतौर संगीतकार पहचान मिली और फिर असली सफलता और लोकप्रियता भी मिली AVM की ही फिल्म “भाभी” से। भाभी का संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ, मोहम्मद रफ़ी का गाया “चल उड़ जा रे पंछी” जीवन की सच्चाई बताते उदास गीतों में पहले नंबर पर गिना जाता रहा है। “चली चली रे पतंग मेरी चली रे” मकर सक्रांति में आज भी रेडियो पर सुनाई दे जाता है। भाभी के बाद उन्होंने AVM के साथ तीन और फ़िल्में कीं, “बरखा”, “मैं चुप रहूँगी” और “मैं भी लड़की हूँ”।
उस दौर में चित्रगुप्त के संगीत का जादू ऐसा चला था कि फिल्में भले ही फ्लॉप हो जाएँ पर उन का संगीत कभी फ्लॉप नहीं हुआ। “नया संसार”, “गेस्ट हाउस”, “ज़बक”, “ओपेरा हाउस”, “काली टोपी लाल रुमाल”, “बर्मा रोड”, “गंगा की लहरें”, “आकाशदीप”, “ऊँचे लोग”, “वासना”, और “औलाद” जैसी फ़िल्मों में उन्होंने एक से एक मधुर गीत दिए।
घर-घर गूँजते थे उनके संगीतबद्ध किये भजन
चित्रगुप्त खुद एक अच्छे गायक और गीतकार थे लेकिन फ़िल्मों में उन्होंने उस वक़्त के लगभग हर बड़े गीतकार के साथ काम किया। लेकिन G S नेपाली और चित्रगुप्त की जोड़ी चर्चित गीतकार-संगीतकार जोड़ियों में गिनी जाती है। इसी जोड़ी ने कई ऐसे यादगार बाकमाल गीत दिए जो अमर हैं इस जोड़ी के कुछ भजन तो आज भी हिदुस्तान के घर घर में सुनाई देते हैं। जैसे फ़िल्म “तुलसीदास” का भजन “मुझे अपनी शरण में ले लो राम” या “नवरात्रि” का “अम्बे तू है जगदम्बे काली”, “तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो” ये प्रार्थना शायद आपने भी स्कूल में गाई होगी!
चित्रगुप्त और G S नेपाली
चित्रगुप्त बहुत सीधे-सादे संकोची स्वभाव के इंसान थे। जिस वक़्त दूसरे संगीतकार लाखों में फीस लेते थे वो कुछ हज़ार मांगते हुए भी शर्माते थे। और ये सब उस वक़्त की बातें हैं जब उनकी व्यस्तता का आलम ये था कि कई गीतकार उनके घर पर गीत लिख रहे होते थे और वो बारी-बारी सबसे उन पर चर्चा करते थे। पर ऐसे समय में भी उनके मन में कभी न तो लालच आया न ही घमंड।
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इसे भी चित्रगुप्त की महानता कहा जाएगा कि उन्होंने बड़े बैनर की फ़िल्में मिलने के बाद भी लो बजट या बी ग्रेड फ़िल्मों में संगीत देना बंद नहीं किया। उनका मानना था कि जिन लोगों ने उन्हें पहला मौक़ा दिया कामयाब होने के बाद वो उन्हें मना कैसे कर सकते थे।
चित्रगुप्त के संगीत में पूरबी लोक शैली की मिठास जगह जगह मिलती है। भोजपुरी की पहली फिल्म “हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो” और “लागी नाही छूटे रामा” में तो उन्होंने लोक संगीत का ऐसा रस बिखेरा कि फिर कितनी ही सुपरहिट भोजपुरी फिल्मों में चित्रगुप्त का संगीत गूंजा। भोजपुरी के अलावा उन्होंने पंजाबी, गुजराती फिल्मों में भी म्यूज़िक दिया।
वो हमेशा एक अन्धविश्वास के शिकार रहे
चित्रगुप्त यूँ तो कर्म में विश्वास रखते थे पर एक बात को लेकर वो ज़रा अंधविश्वासी थे। उनकी एक चप्पल थी जिसे वो अपने लिए लकी मानते थे। उसके टूट जाने के बाद भी वो रिकॉर्डिंग के समय उसी चप्पल को पहनते थे। इस वजह से लोग उनका बहुत मज़ाक़ भी बनाते थे पर उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। एक बार तो लता मंगेशकर ने भी मज़ाक़ में उनसे कह दिया था कि उन्हें लताजी की गायकी से ज़्यादा भरोसा अपनी चप्पल पर है।
लता मंगेशकर के साथ उनका सिर्फ़ प्रोफेशनल रिश्ता ही नहीं था बल्कि लता जी का उनके घर भी आना जाना था। दरअस्ल चित्रगुप्त बहुत मिलनसार स्वाभाव के थे। वो अपने परिवार और दोस्तों-साथियों को पूरा समय देते थे। कहते हैं उनके बेटे मिलिंद का नामकरण लता मंगेशकर ने ही किया था।
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1968 में चित्रगुप्त को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके करियर को काफ़ी नुक्सान हुआ। फिर उस समय तक फ़िल्मी संगीत भी बदलाव से गुज़र रहा था और उस माहौल में वो खुद को फिट नहीं कर सके। हाँलाकि 70-80 के दशक में भी उन्होंने कई फिल्मों में संगीत दिया। पर उन फ़िल्मों का उनके करियर में कोई ख़ास योगदान नहीं रहा। 1988 में उनकी आख़िरी फ़िल्म आई “शिव गंगा” और उसी साल आई उनके बेटों आनंद-मिलिंद के संगीत से सजी फ़िल्म “क़यामत से क़यामत तक” जिस का संगीत सुपर डुपर हिट रहा था।
चित्रगुप्त अपने बेटों आनंद और मिलिंद के साथ
1991 में 14 जनवरी के दिन 72 साल की उम्र में चित्रगुप्त इस दुनिया से चले गए। लेकिन उनका मधुर संगीत जब जब गूंजता है वो उनकी मौजूदगी का एहसास बनाये रखता है और इसी तरह तो कोई फनकार मर कर भी अमर हो जाता है!