शारदा राजन अयंगर जिन्हें हम शारदा के नाम से बेहतर जानते हैं इन्हीं गायिका संगीतकार और गीतकार शारदा के जन्मदिन है। उनके इस ख़ास दिन पर उनकी बीती हुई ज़िंदगी पर एक नज़र डालते हैं।
शारदा के गाने की वजह से फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड में बदलाव हुए
शारदा का नाम आते ही सबसे पहले ज़हन में आता है “सूरज” फ़िल्म का गाना ‘तितली उड़ी’, जिसने अपने वक़्त में इतिहास रच दिया था। यही वो गाना है जिस की वजह से फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में प्लेबैक के लिए दो कैटगरी बननी शुरू हुई। जब ये फिल्म रिलीज़ हुई तो लोगों ने इस गाने को इतना पसंद किया कि टॉप चार्ट-बस्टर्स में जितना लोकप्रिय मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में गाया “बहारों फूल बरसाओ” रहा उतने ही वोट “तितली उड़ी” को भी मिले। उस साल बेस्ट सिंगर का अवार्ड तो रफ़ी साहब को दिया गया मगर शारदा को स्पेशल अवार्ड से नवाज़ा गया। इसी के बाद से मेल प्लेबैक सिंगर और फीमेल प्लेबैक सिंगर को अलग अवॉर्ड दिए जाने लगे।
हिंदी सिनेमा में ये वो दौर था जब गायक-गायिकाओं में कुछ चुनिंदा नाम ही सुनाई देते थे। गायकों में मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, मुकेश, किशोर कुमार, हेमंत कुमार गायिकाओं में लता मंगेशकर, आशा भोसले, शमशाद बेगम, सुमन कल्याणपुर। 60 के दशक के मध्य में इन्हीं आवाज़ों के बीच एक अलग सी आवाज़ सुनाई दी। जिसमें खनक थी, वो सुरीली भी थी, और जिसके गाए गाने मशहूर भी बहुत हुए। मगर शायद उस आवाज़ का पारम्परिक रूप से थोड़ा अलग होना ही उसके आगे न बढ़ने की वजह बन गया, ये आवाज़ थी गायिका शारदा की।
हिंदी गीतों से लगाव के कारण शारदा ने कर्नाटक संगीत सीखना बंद कर दिया
शारदा का जन्म 25 अक्टूबर 1937 को तमिलनाड के कुम्भकोणम में एक परम्परावादी ब्राह्मण परिवार में हुआ। वो 6 बहनें और एक भाई में सबसे बड़ी रही। बचपन से ही उन्हें गाने का शौक़ था, कॉलेज या परिवार में कोई भी समारोह होता तो वो गाने गाया करती थीं। जब अपनी कजिन से उन्होंने हिंदी गाने सुने तो वो उनकी दीवानी हो गईं। संगीत के प्रति उनके शौक़ को देखते हुए उनके माता-पिता ने सोचा कि उन्हें कर्नाटक संगीत सीखना चाहिए और उन्होंने शिक्षा लेनी शुरु भी की लेकिन कुछ ही वक़्त में उन्हें ये एहसास हो गया कि हिंदुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत एक दूसरे से काफी अलग हैं।
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शारदा को महसूस हुआ कि कर्नाटक संगीत सीखकर हिंदी गीत गाना संभव नहीं होगा इसलिए उन्होंने बीच में ही कर्नाटक संगीत सीखना बंद कर दिया। 1950 में उनके पिता का ट्रांसफर तेहरान हो गया, और वो भी तेहरान चली गईं। लेकिन अपने इस हुनर के कारण वो वहां सभी भारतीयों में जल्दी ही लोकप्रिय हो गईं। उन दिनों राज कपूर किसी फ़िल्म की रिलीज़ के सिलसिले में वहाँ गए हुए थे। भी तेहरान में थे उनके लिए जो पार्टी दी गई थी उसमें शारदा ने एक गाना गाया था। उन्होंने शारदा का गाना सुना तो उन्हें मुंबई आकर वॉइस-टेस्ट देने को कहा और वो 1959 में राज कपूर के बुलावे पर मुंबई आ गईं।
मुंबई में एक साल तक गाना गाने का मौक़ा ही नहीं मिला
शारदा जब मुंबई आईं राजकपूर अपनी फ़िल्म “जिस देश में गंगा बहती है” की रिलीज़ में व्यस्त थे और अगली फ़िल्म की तैय्यारियाँ हो रही थीं। उन्होंने शारदा का वॉइस-टेस्ट लिया, जिसमें उन्होंने बरसात का गाना गाकर सुनाया, सबको उनकी आवाज़ पसंद आई। लेकिन उन्हें ट्रैंनिंग की ज़रुरत थी इसलिए राजकपूर ने उन्हें संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन से मिलने भेज दिया। शंकर जयकिशन से मिलने पर ये तय हुआ कि उन्हें कुछ वक़्त तक हिंदुस्तानी संगीत सीखना चाहिए। और वो पं जनन्नाथ प्रसाद, पं लक्ष्मण प्रसाद और निर्मला देवी से संगीत की शिक्षा लेने लगीं।
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गुरुजनों से ट्रैंनिंग लेने के साथ-साथ शारदा हफ्ते में एक बार शंकर-जयकिशन के साथ स्टूडियो में भी ट्रैंनिंग लेती थीं। इसी तरह एक साल बीत गया पर R K बेनर से अभी तक किसी फ़िल्म में गाने का कोई मौक़ा उन्हें नहीं मिला था। लेकिन संगीतकार शंकर के सहयोग से काम की तलाश जारी थी। ट्रायल हुए, कुछ गानों की रिकॉर्डिंग्स भी हुईं पर कुछ बात बन नहीं रही थी। फिर 1965 में आई शंकर जयकिशन के संगीत से सजी फ़िल्म “गुमनाम” जिसमें पहली बार लोगों ने शारदा की आवाज़ सुनी। इसमें शारदा की आवाज़ में एक डुएट था और एक सोलो सांग।
दरअस्ल सबसे पहले रिकॉर्ड तो हुआ था “सूरज” फ़िल्म का गाना “तितली उड़ी” पर “गुमनाम” पहले रिलीज़ हो गई। “तितली उड़ी” के बाद तो शारदा के गानों ने धूम मचा दी थी। वो उनका सुनहरा दौर था जब वो बड़े बेनर की फिल्में कर रही थीं, बड़े संगीतकारों के लिए गा रही थीं, और उनके लगभग सभी गाने हिट हो रहे थे। हाँलाकि जिस हस्ती के बुलावे पर वो बॉम्बे आई थीं उनकी यानी RK बेनर की किसी फ़िल्म में उन्हें गाने का मौक़ा नहीं मिला। लेकिन राजकपूर के अभिनय से सजी दो फ़िल्मों में उन्हें गाने का मौक़ा ज़रुर मिला।
एक थी “सपनों का सौदागर” और दूसरी “अराउंड द वर्ल्ड” जिस के सभी गाने बहुत लोकप्रिय हुए थे। “अराउंड द वर्ल्ड” में नायिका के सभी गीत उनकी आवाज़ में थे। 1969 की फ़िल्म “जहाँ प्यार मिले” के गीत “बात ज़रा है आपस की” के लिए शारदा को फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया। चार साल लगातार उनका नाम बेस्ट सिंगर के लिए नॉमिनेट हुआ, बावजूद इसके उन्हें बहुत ज़्यादा मौके नहीं मिल रहे थे। उनका मानना है कि इंडस्ट्री के कुछ लोगों ने उनके साथ भेदभाव किया। उन्हें ऐसा लगता है कि इंडस्ट्री में लोगों को उनके ख़िलाफ़ किया गया।
शारदा इंडस्ट्री की पॉलिटिक्स का शिकार हो गईं
संगीतकार शंकर-जयकिशन जो एक तरह से शारदा के मेंटोर थे, उनके अलावा रवि, इक़बाल क़ुरैशी, उषा खन्ना, एन दत्ता जैसे कई संगीतकारों के लिए शारदा ने गीत गाए पर उन फ़िल्मों में एक या दो गीत ही उनसे गवाए गए। फिर कई बार ऐसा हुआ कि गाने रिकॉर्ड होते मगर फ़िल्म में शामिल नहीं हो पाते। ऐसे में शारदा ने जिस तेज़ी से शोहरत पाई थी उसी तेज़ी से उनका करियर ग्राफ़ नीचे आता गया। उनका सितारा सिर्फ़ 3-4 साल तक बुलंदी पर रहा।
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शारदा मानती हैं कि फ़िल्मी दुनिया की राजनीति, उसके दाव-पेच उनकी समझ में नहीं आए, और उनका कोई फ़िल्मी बैकग्रॉउंड भी नहीं था। फ़िल्मों में गाने के कारण उनका परिवार भी उनसे ख़फ़ा था तो ऐसे में निराश होकर उन्होंने गाना बंद कर दिया। क़रीब डेढ़-दो साल तक उन्होंने कोई काम नहीं किया। शारदा ने जब दोबारा फ़िल्मी दुनिया का रुख़ किया तो एक गायिका नहीं एक संगीतकार से दुनिया का परिचय हुआ। और ऐसा संभव हो पाया 1971 में आये उनके म्यूजिक एल्बम की वजह से।
फ़िल्मों में दूसरी पारी की शुरुआत
शारदा पॉप म्यूजिक का एल्बम बनाने वाली पहली गायिका है। उनका ये एल्बम देखने सुनने के बाद फ़िल्मकारों को लगा कि कम ख़र्च में भी मॉडर्न म्यूज़िक बनाया जा सकता है। और फिर उनकी एक नई पारी शुरु हुई। “माँ बहन और बीवी”, “मंदिर-मस्जिद”, “मैला आँचल”, “क्षितिज”, “सोने का पिंजरा”, “गुनाह की क़ीमत”, “ज़हरीली’ जैसी बहुत सी फ़िल्मों में उन्होंने संगीत दिया। ये फ़िल्में कम बजट की ज़रुर थीं पर सिर्फ़ शारदा जी के अच्छे व्यवहार के कारण मोहम्मद रफ़ी जैसे गायकों ने भी उनके संगीत निर्देशन में गाया।
फ़िल्मों में जब शारदा ने गाना छोड़ा उसके 14 साल बाद संगीतकार शंकर के कहने पर उन्होंने फिर से फिल्मों में प्लेबैक देना शुरु किया। 1984 की “पापी पेट का सवाल है”, 1986 की “काँच की दीवार” और “कृष्णा-कृष्णा” जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने गाने गाए। इतना ही नहीं उन्होंने “सिंघार” नाम से कई गीतों के बोल भी लिखे। दरअस्ल वो अक्सर संगीतकार शंकर के साथ म्यूजिक सिटिंग्स में बैठा करती थीं। जब शंकर कोई धुन बनाते तो वो शौक़िया तौर पर बोल लिख देती। उनमें से कुछ गीतों के बोल संगीतकार शंकर को इतने पसंद आए कि उन्होंने उन्हें फ़िल्मों में शामिल कर लिया।
1980 में आई फ़िल्म “गरम ख़ून” का एक मशहूर गीत है “परदेसिया तेरे देस में दिल इस तरह मिलता है क्या” या फिर 1980 की ही “चोरनी” फिल्म में एक गीत है “देखा है तुम्हें कहीं न कहीं” ये गीत शारदा ने ही लिखे हैं “सिंघार” नाम से। फ़िल्मों से अलग होने के बाद उन्होंने बच्चों के लिए गीत लिखे उनकी धुनें बनाईं। उन्होंने बच्चों के लिए एंटरटेनिंग एंड एडुकेशनल म्यूजिक आइटम्स बनाए हैं और वो बच्चों के लिए म्यूजिक वर्कशॉप्स का भी आयोजन करती हैं। साथ ही वॉयस कल्चर की ट्रैंनिंग भी देती हैं।
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शारदा के गाए भजन और ग़ज़लों के एल्बम भी आए। इनके अलावा वो देश-विदेश में स्टेज शोज़ भी करती हैं। शारदा ने अपने समय में डुएट्स बहुत गाए हैं न सिर्फ़ मौ रफ़ी, मुकेश जैसे गायकों के साथ बल्कि आशा भोसले, सुमन कल्याणपुर, मुबारक बेगम जैसी गायिकाओं के साथ भी। और अपने कुछ साथियों से उन्हें भरपूर सहयोग भी मिला जिनमें राज कपूर और संगीतकार शंकर के अलावा मौ रफ़ी और मुकेश साहब का आभार वो आज भी मानती हैं, जिन्होंने हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया और हमेशा उनका मार्गदर्शन किया।