अमृता, साहिर और इमरोज़ की प्रेम कहानी। प्रेम व्यथा कथा है या परिकथा ये तो हर इंसान के अपने निजी अनुभव पर निर्भर करता है। पर कुछ लोग प्रेम को एक आध्यात्मिक अनुभव में बदल देते हैं, जहाँ प्रेम एक ऐसे स्तर पर पहुँच जाता है कि फिर कुछ पाने की इच्छा बाक़ी नहीं रहती। इस प्रेम त्रिकोण की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
अमृता प्रीतम
20 सदी की एक प्रमुख पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम जिन्होंने अपने दौर के हर बंधन को तोड़ा और अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जिया, हर मुख़ालिफ़त को सहकर भी सर उठाकर चलती रहीं। बचपन में सिर से माँ का साया उठा तो हाथों ने क़लम थाम ली, पिता ने हौसलाअफ़ज़ाई की तो उनके नक़्शे-क़दम पर चल पड़ीं।
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पहले जिस क़लम ने इश्क़ के नग़्मे लिखे, उसने लोगों का दर्द भी साँझा किया। 16 साल की उम्र में शादी तो हुई पर दिल कभी नहीं मिले, फिर पार्टीशन का दर्द भी झेला, क़रीब से उस मंज़र को देखा जो किसी के भी रोंगटे खड़े कर देता। तब औरतों की तन्हाई और बेबसी भी उनकी क़लम का विषय बनी, उस क़लम से विरोध के स्वर भी उभरे और क्रांति का आग़ाज़ भी हुआ।
साहिर लुधियानवी
साहिर लुधियानवी हिंदी फ़िल्मों के एक ऐसे गीतकार जिन्होंने अपनी शायरी में स्त्री पर ज़ुल्म ढाते समाज से सवाल किए। फ़िल्मी गीतों से उन्हें लोकप्रियता मिली तो अदब की दुनिया में सम्मान और ऊंचा मक़ाम भी हासिल हुआ। लेकिन बचपन में सख़्त-मिज़ाज पिता के अजीब व्यवहार, और फिर माता-पिता के अलगाव की कड़वी यादों से वो कभी ख़ुद को मुक्त नहीं कर पाए। बचपन की इन्हीं तल्ख़ियों ने साहिर के हाथ में भी क़लम थमाई और कॉलेज तक आते आते वो बतौर शायर मशहूर हो गए। तल्खियाँ और परछाइयाँ ये दो नगीने काफ़ी थे उनके चाहने वालों में इज़ाफ़ा करने के लिए। जिनमें से एक थीं अमृता प्रीतम, और वो भी अमृता की लेखनी के क़ायल थे।
वो मुलाक़ात जिसने प्रेम का दिया जलाया
1944 में एक मुशायरे में पंजाबी साहित्य और उर्दू अदब की इन दो हस्तियों की मुलाक़ात हुई। दोनों एक दूसरे की प्रतिभा से आकर्षित हुए फिर खतों-ख़िताबत शुरु हुई और दोनों को महसूस हुआ कि कुछ है जो दोनों को कहीं बहुत गहरे जोड़ता है। मगर अमृता शादीशुदा एक बेटे और एक बेटी की माँ थीं। इसी बीच देश का विभाजन हो गया। अमृता के शब्दों को नया आसमान मिला दिल्ली में और साहिर मुंबई की फ़िल्मनगरी में बुलंदियाँ छूने लगे। अगर कुछ रुका हुआ था तो दोनों का रिश्ता, हाँलाकि प्रेम अपने अर्थ खोजता रहा और एक राब्ता भी हमेशा बना रहा। मगर अनकही ख़ामोशियों को आवाज़ नहीं मिली।
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वो प्रेम अमृता के लिए इतना बड़ा था कि उन्होंने अपने अतीत को अलविदा कहा और अपने पति को तलाक़ देकर अपने बच्चों के साथ अलग रहने लगीं। अमृता प्रीतम ने साहिर के प्रति अपने प्रेम को हमेशा ज़ाहिर किया पर साहिर बहुत ही अंतर्मुखी और कम बोलने वाले इंसान थे। कभी-कभार होने वाली मुलाक़ातों के बीच भी अक्सर गहरी ख़ामोशी का दख़ल रहता। बातें होतीं भी तो कविताओं में… कहते हैं कि जिस कविता संग्रह “सुनहेड़े” के लिए अमृता को साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था वो कुछ हद तक अमृता की साहिर से की गई एकतरफ़ा बातचीत थी।
अवार्ड मिलने की ख़बर साहिर को सुनाने के लिए अमृता टेलीफोन बूथ तक गईं लेकिन फोन कर पातीं उससे पहले ही उनकी नज़र अख़बार में छपी एक खबर पर पड़ी जिसमें लिखा था “साहिर का नया प्यार – “सुधा मल्होत्रा,” ये पढ़ने के बाद वो बिना फोन किये वापस लौट आईं। दोनों तरफ़ से ख़ामोशी का लिबास पहन लिया गया। मोहब्बत का एहसास दोनों दिलों में था मगर मोहब्बत नसीब में नहीं थी।
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कहते हैं कि अपने अतीत के तजुर्बात की वजह से साहिर इस रिश्ते को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाए। मगर ये भी सच है कि साहिर अपनी माँ के बहुत क़रीब थे और उनकी माँ इस रिश्ते के ख़िलाफ़ थीं। साहिर का झुकाव शायद सुधा मल्होत्रा की तरफ़ हुआ हो मगर मोहब्बत तो उन्हें अमृता से ही थी। पर उनके अलावा एक और शख़्स था जिसने अमृता को चाहा, न सिर्फ़ चाहा बल्कि बिना किसी उम्मीद के ताउम्र उनका साथ भी दिया। उस शख़्स ने मोहब्बत नहीं इश्क़ किया।
इमरोज़ का निःस्वार्थ प्रेम
वो शख़्स थे – राइटर पेंटर इंदरजीत जिनका उपनाम था “इमरोज़” और फिर अमृता ने भी दुनिया की हर रवायत को किनारे कर दिया और अपने से क़रीब 10 साल छोटे इस शख़्स के साथ “लिव-इन” में रहने लगीं। वो किसी फ़िल्मी बैकग्राउंड से नहीं थी, एक मिड्ल क्लास परिवार से थीं, सोचिये क्या क्या नहीं कहा होगा लोगों ने, क्या क्या नहीं सहा होगा उन्होंने। आज का समाज भी खुलेआम ऐसे रिश्तों को स्वीकार नहीं करता फिर ये तो कोई 50-60 साल पहले की बात है। वैसे भी जो रिश्ते चोरी छुपे बनते हैं वो गुनाह होते हैं और अमृता ने अपने किसी रिश्ते को गुनाह नहीं बनाया। साहिर को चाहा तो भी सबके सामने स्वीकार किया और इमरोज़ को अपनाया तो भी।
और फिर इमरोज़ उनके फ्रेंड, कम्पैनियन, क्रिटिक सभी कुछ बन गए, अमृता तो इमरोज़ की सब कुछ थीं ही। 40 साल का ये साथ अमृता की मौत के बाद भी ख़त्म नहीं हुआ न ही इमरोज़ के जाने के बाद। लोग भले ही साहिर और अमृता की कहानी पर अफ़सोस ज़ाहिर करें, भले ही उन्हें अमृता की कविताओं में साहिर के लिए सन्देश दिखाई दें। मगर उस मोहब्बत से बहुत ऊपर था इमरोज़ का इश्क़ जो ये जानते हुए भी अमृता के साथ रहे कि अमृता के दिल की गहराइयों में सिर्फ़ साहिर की यादें हैं।
आसान नहीं होता है एक ही राह पर किसी के साथ होते हुए भी अकेले चलना ?
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