मौहम्मद रफ़ी हिंदी सिनेमा के सबसे ज़्यादा पॉपुलर गायक हैं उनकी आवाज़ ऐसी थी कि हीरो से लेकर कॉमेडियन और विलेन तक को सूट करती थी। इसी आवाज़ ने उन्हें दुनिया भर का चहेता बनाया उन्होंने हिंदी के साथ-साथ विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में भी गाने गाए है। उनकी पुण्यतिथि पर उनके जीवन के संघर्ष पर एक नज़र।
मौहम्मद रफ़ी हमेशा हँसते-मुस्कुराते रहते थे, उनकी कोई भी फोटो उठा के देख लीजिए आपको उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा ही दिखाई देगा। एक बार HMV जब उनके सैड सांग्स का एक रिकॉर्ड निकाल रही थी तो तलाश शुरु हुई उनके उदास फ़ोटो की मगर उन्हें अपनी पूरी लाइब्रेरी में कोई ऐसा फ़ोटो नहीं मिला। फिर सोचा गया कि कोई ऐसा फ़ोटो ले लें जिसमें उनके चेहरे पे मुस्कान न हो मगर ऐसा भी कोई फ़ोटो नहीं मिला।
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बहुत से लोग ये सोच सकते हैं कि इतने बड़े आदमी थे तो उन्हें कहे का दुःख होगा, इसीलिए मुस्कुराते रहते होंगे। मगर ये सच नहीं है, मौहम्मद रफ़ी ने बचपन से ही ग़रीबी देखी थी, नेम फेम दौलत तो बहुत बाद में आई, उससे पहले तो उन्हें भी बहुत ज़्यादा संघर्ष करना पड़ा।
24 दिसंबर 1924 को एक छोटे से गाँव कोटला सुल्तान सिंह में मौहम्मद रफ़ी का जन्म हुआ। वो पिता हाजी अली और माँ अल्लाह राखी की सातवीं औलाद थे, घरवाले प्यार से उन्हें फीको कहते थे। उनके पिता ख़ानसामा थे गाँव में जब भी कोई फंक्शन होता वही दावत का इंतज़ाम करते। पर छोटा सा गाँव था इसलिए आमदनी बहुत ज़्यादा नहीं हो पाती थी। तो उनके पिता 1926 में अपने सबसे बड़े बेटे मोहम्मद दीन के साथ लाहौर चले गए, जहाँ उन्होंने एक छोटा सा ढाबा शुरु किया और बेटे ने एक नाई की दूकान खोल ली।
मौहम्मद रफ़ी को बचपन से ही पतंगें उड़ने के अलावा अलग-अलग जानवरों की आवाज़ें निकलने का शौक़ था और जैसे सब बच्चे गुनगुनाते हैं वो भी गुनगुनाते थे। मगर उनकी आवाज़ में बचपन से ही वो कशिश थी कि जो सुनता उनकी आवाज़ पर मोहित हो जाता। लेकिन पढाई में दिल नहीं लगता था इसलिए चौथी क्लास में फ़ैल हो गए थे। उनके दो सबसे क़रीबी दोस्त थे एक कुंदन और दूसरा सरदार बख्शीश सिंह। वो अपने इन दोस्तों के साथ मस्ती करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। गाँव में एक ही स्कूल था और प्रेयर में जब वो गाते तो सभी उनकी आवाज़ से मोहित हो जाते थे।
लगभग इसी दौरान जब मौहम्मद रफ़ी 12 साल के थे तो उनका पूरा परिवार लाहौर चला गया जहाँ उनके पिता का काम चल निकला था और आमदनी पहले से बहुत बेहतर हो गई थी। लाहौर में रफ़ी साहब से स्कूल तो छूट गया लेकिन म्यूज़िक के प्रति दीवानगी बनी रही। एक बार वो घर में आराम कर रहे थे कि उन्हें एक फ़क़ीर की आवाज़ सुनाई दी उस आवाज़ में न जाने कैसा जादू था कि वो उसकी तरफ़ खिंचे चले गए। उसके बाद तो ये रोज़ का शग़ल हो गया।
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एक दिन वो फ़क़ीर मौहम्मद रफ़ी के घर के सामने आकर गाने लगा, और वापस अपने रोज़ के ठिकाने पर चला गया। उस दिन पहली बार उन्होंने फ़क़ीर से दोबारा गाने की फरमाइश की। फ़क़ीर ने पूछा – ऐसी क्या बात है इस गाने में तो 12 -13 साल के मौहम्मद रफ़ी ने कहा – ख़ासियत गाने में नहीं आपकी आवाज़ में है। फ़क़ीर ने बहुत गौर से उन्हें देखा और समझ गया कि इस बच्चे में कुछ तो बात है। तब फ़क़ीर ने उनसे गाना गाने को कहा और जब उनका गाना सुना तो कहा “तुम्हारी आवाज़ क़ायनात पर हुकूमत करेगी।” और उस फ़क़ीर की बात सच हुई उनकी आवाज़ ने वाक़ई सबके दिलों पर राज किया।
लाहौर आकर मौहम्मद रफ़ी ने अपने भाई की दुकान में काम करना शुरु कर दिया था मगर उनका दिल संगीत में डूबा रहता था। वो काम करते हुए गाना गाते रहते, ग्राहक भी तारीफ़ करते। उस समय तक आते-आते उनकी आवाज़ और गायकी के चर्चे होने लगे थे, महफ़िलों में उन्हें गाने के लिए बुलाया जाता। उनका टेलेंट देखकर उनके बड़े भाई हमेशा उनकी हौसलाअफ़ज़ाई करते लेकिन उनके पिता को उनका गाना गाना बिलकुल पसंद नहीं था। इसी बीच 14 साल की उम्र में, उनके चाचा की बेटी से उनकी शादी कर दी गई।
एक दिन की बात है, ऑल इंडिया रेडियो में संगीत विभाग के प्रोग्राम एक्सेक्यूटिव जीवनलाल मट्टू उनके मोहल्ले से गुज़र रहे थे, मौहम्मद रफ़ी हमेशा की तरह दुकान पर अपनी ही धुन में गा रहे थे। मट्टू साहब ने कुछ देर ठहर कर उन्हें सुना और फिर अंदर गए और उनसे पूछा कि क्या वो रेडियो सिंगर बनेंगे। रफ़ी साहब की तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। और फिर उन्होंने रेडियो पर ऑडिशन दिया और ज़ाहिर है वो पास हो गए।
इसी दौर में ये एहसास भी हुआ कि सिर्फ़ आवाज़ काफ़ी नहीं है उन्हें तालीम की भी ज़रुरत है। फिर मौहम्मद रफ़ी ने बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ और छोटे ग़ुलाम अली ख़ाँ से कुछ समय के लिए शास्त्रीय संगीत की बेसिक ट्रैंनिंग ली। उसके बाद उस्ताद बरक़त अली ख़ाँ और अब्दुल वाहिद ख़ान से भी तालीम ली। रेडियो पर भी उनकी आवाज़ को काफ़ी पसंद किया गया। और यही से उन्हें एक और मौक़ा मिला।
संगीतकार श्याम सुन्दर अपनी अगली पंजाबी फिल्म “गुल बलोच” के लिए एक नई आवाज़ की तलाश में थे। रेडियो पर मौहम्मद रफ़ी की आवाज़ को सुनकर उन्होंने मौहम्मद रफ़ी को इस फ़िल्म में गाने की पेशकश की और इस तरह “गुल बलोच” रफ़ी साहब की पहली फ़िल्म बन गई। इसमें उन्होंने ज़ीनत बेगम के साथ एक डुएट गाय था “गोरिए नी हीरिये नी” ये गाना 1942 में रिकॉर्ड हुआ था लेकिन फिल्म रिलीज़ हुई 1944 में।
मौहम्मद रफ़ी के बड़े भाई के एक दोस्त थे हमीद जिन्हें रफ़ी साहब की क़ाबिलियत पर पूरा भरोसा था और उनकी ट्रैंनिंग भी उन्हीं के कहने पर हुई थी। हमीद साहब को लगा कि लाहौर में मौहम्मद रफ़ी की प्रतिभा खुलकर बाहर नहीं आ पाएगी, अगर कुछ करना है तो लाहौर से निकल कर मुंबई जाना होगा। रफ़ी साहब के बड़े भाई भी उनसे सहमत थे। और फिर तैय्यारियाँ शुरू हो गईं लेकिन असल समस्या थी उनके वालिद को मानाना जो संगीत के नाम से ही नफ़रत करते थे। पहले तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया मगर बड़े बेटे के बहुत समझने पर राज़ी हो गए।
मौहम्मद रफ़ी के बड़े भाई ने अपने दोस्त हमीद को रफ़ी साहब के साथ मुंबई भेजा और उनके हर उतार चढाव में हमीद उनके साथ बराबर खड़े रहे। उनके लिए मौके तलाशने से लेकर उनका घर बसाने तक में उनका योगदान रहा। रफ़ी साहब के बड़े भाई ने उनसे कहा था कि कामयाब हुए बिना वापस मत आना। लाहौर छूटने के साथ ही पत्नी बशीरा का साथ भी छूटा उन दोनों का एक बेटा था सईद।
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मुंबई जितना ख़ूबसूरत था उतना ही महँगा, मगर बहुत खोजने पर उन दोनों को भेंडी बाज़ार की एक छोटी सी चॉल में ठिकाना मिल गया। वहाँ जल्दी ही अपने अचार-व्यवहार से उन दोनों का काफ़ी लोगों से मेलजोल हो गया। साथ ही काम की तलाश भी शुरु हुई। एक दिन पता लगा कि पास ही एक महफ़िल होने वाली है जिसमें शायद के एल सहगल भी गाने वाले हैं। जो सरदार जी उस महफ़िल का आयोजन कर रहे थे उनसे बात की गई और महफ़िल में जाने का इंतज़ाम हो गया। वहाँ पहले के एल सहगल ने गीत गाये फिर खान साहब ने ग़ज़लें गाकर समां बाँधा।
जब ख़ान साहब की ग़ज़लें ख़त्म हुई तो हमीद ने सरदार जी से कहा कि एक गाना गाने का मौक़ा उनके दोस्त को भी दे दीजिए।सरदार जी ने खान साहब से पूछा तो उन्होंने कुछ देर मौहम्मद रफ़ी को देखकर हाँ में सर हिला दिया। उस समय जो महफ़िल होती थीं उनमें लोग कलाकारों को पैसे दिया करते थे। तो ये announce किया गया कि उन्हें पैसे नहीं चाहिए सिर्फ़ गाना गाने का मौक़ा दें, पसंद आये तो हौसला हफ़साई कर दें।
मौहम्मद रफ़ी ने वहाँ एक क्लासिकल सांग गाया और इतनी ख़ूबी से गाया कि ख़ान साहब भी हैरत में पड़ गए, उन्होंने सोचा था कि दूसरे नौजवान लड़कों की तरह वो भी कोई फ़िल्मी गाना गाएँगे लेकिन इतना बढ़िया क्लासिकल सुन कर वो बेहद मुतास्सिर हुए साथ भी दर्शक भी एक ने तो उन्हें 10 रुपये इनाम भी दिया। लेकिन उन्होंने वो पैसे नहीं लिए, हाँलाकि उस वक़्त उन दोनों को उन पैसों की सख़्त ज़रुरत थी।
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इसके बाद रफ़ी साहब ने एक ग़ज़ल गाई और जैसे पूरी महफ़िल लूट ली। लोगों को उनका गाना इतना पसंद आया कि नोटों की बारिश हो गई। सरदार जी जब उन्हें वो नोटों के बैग देने लगे तो हमीद साहब ने ये कहकर वो पैसे लेने से मना कर दिया, कि ये महफ़िल ख़ान साहब की है इसलिए इन पैसों पर उन्हीं का ह्क़ है।
ख़ान साहब ने भी बहुत कहा मगर उन्होंने पैसे नहीं लिए मगर इसके बाद एक प्रोडूसर ने रफ़ी साहब को बुलाया, उनसे डुएट गवाया और उन्हें 30 रूपए दिए। बाद में पता चला कि ये मौक़ा ख़ान साहब ने दिलाया था। उस गाने के बारे में कोई ज़्यादा डिटेल नहीं मिलती शायद वो एक तरीक़ा था उस नौजवान क़ाबिल गायक की हौसलाअफ़ज़ाई का।
मुश्किल वक़्त में भी रफ़ी साहब की जो आदतें बनी रहीं वो थीं - नवाब मस्जिद में नमाज़ और समंदर किनारे रियाज़।
उस समय संगीतकार के तौर पर नौशाद साहब का बहुत नाम था और हमीद भाई ने सोचा कि अगर नौशाद मौहम्मद रफ़ी को चांस दें तो क़िस्मत खुल सकती है। उन्हें पता चला कि नौशाद के पिता लखनऊ कोर्ट में मुंशी हैं, तो दोनों वहाँ पहुँच गए और उनसे एक सिफ़ारिशी पत्र लिखवा लाए। हाँलाकि नौशाद के पिता भी संगीत को पसंद नहीं करते थे पर जाने क्या सोचकर उन्होंने एक लेटर लिख कर दे दिया कि “अगर इस लड़के में क़ाबिलियत हो तो इसे मौक़ा दे दो” और ज़ाहिर है बात बन गई।
फिर 1944 में आई फ़िल्म “पहले आप” में मौहम्मद रफ़ी को श्याम सुन्दर और अल्लाउद्दीन के साथ एक कोरस गाना गाने का मौक़ा मिला। गाना था – हिन्दुस्ताँ के हम हैं हिन्दुस्ताँ हमारा। ये गाना फ़ौजियों पर फ़िल्माया जाना था और उनके मार्च की आवाज़ भी गाने में चाहिए थी तो सभी गायक अपने जूतों से आवाज़ निकाल रहे थे जो रिकॉर्ड हो रही थी।
रिकॉर्डिंग ख़त्म हुई तो नौशाद साब बहुत खुश हुए उन्होंने मौहम्मद रफ़ी को 10 रूपए इनाम दिया, तभी उनकी नज़र उनके पैरों पर पड़ी, देखा तो उनके पैरों से खून निकल रहा था। नौशाद साब के पूछने पर रफ़ी साहब ने कहा – हमीद भाई ने नए जूते लेके दिए थे। तो नौशाद साब ने कहा – आपने कुछ बोले क्यों नहीं तो रफ़ी साहब ने बड़ी सादगी से कहा – कि वो हम गाना गए रहे थे !
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मुंबई में शुरुआत तो हो गई थी मगर कामयाबी अभी कोसों दूर लग रही थी। मौहम्मद रफ़ी पंजाबी फ़िल्मों के गाने गए रहे थे, महफिलों में ग़ज़लें गा लिया करते थे, बल्कि उन्होंने कोरस में भी गाया। इसके बाद 1945 में एक बार फिर संगीतकार श्याम सुन्दर के उन्हें गाने का मौक़ा दिया फिल्म थी गाँव की गोरी। के एल सहगल के अलावा वो जिस गायक को admire करते थे वो थे G M दुर्रानी इस फिल्म में मौहम्मद रफ़ी उन्हीं के साथ गाने का मौक़ा मिला और ये उनका पहला हिट हिंदी गाना था। फिल्म थी – गाँव की गोरी और गाना था – “दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी तैसी”
इसके बाद 1946 में नौशाद के साथ आई – अनमोल घड़ी। उसमें मौहम्मद रफ़ी का गाया गाना “तेरा खिलौना टूटा बालक” हिट हो गया। रफ़ी साहब अपने आइडल के एल सहगल के साथ एक गाना गाना चाहते थे। उन्होंने नौशाद साहब से गुज़ारिश की कि किसी तरह उनका ये सपना पूरा करा दें, आखिर कहने के लिए ये तो हो जाएगा कि मैंने इतने बड़े गायक के साथ गाना गाया।
आख़िर नौशाद साहब ने उनका ये सपना पूरा किया, और वो इकलौता ऐसा गाना है जिसमें मोहम्मद रफ़ी और के एल सहगल की आवाज़ एक साथ सुनी जा सकती है।वो गाना आया 1946 की फ़िल्म “शाहजहाँ” में। इस गाने के आखिर में स्क्रीन पर एक फ़क़ीर आता है और गाना गाता है वो आवाज़ रफ़ी साहब की है।
उस समय तक आते आते मौहम्मद रफ़ी की गायकी के अलावा उनके उर्दू डिक्शन की भी तारीफ़ होने लगी थी इसीलिए कई अलग-अलग संगीतकारों ने उन्हें अपनी फिल्म में गाने का मौक़ा दिया। उन्होंने पं गोबिंदराम के साथ “हमारा संसार (1945)”, फ़िरोज़ निज़ामी के साथ “आँखें (1945)” और “अमर राज (1946)” हफ़ीज़ ख़ान के साथ “ज़ीनत (1945)” फिल्म में गाने गाए। फ़िरोज़ निज़ामी ने 1947 की फ़िल्म “जुगनू” में मौहम्मद रफ़ी से नूरजहाँ के साथ एक डुएट गवाया “यहाँ बदला वफ़ा का”, नूरजहाँ उस समय तक एक बड़ा नाम बन चुकी थीं और रफ़ी साहब के लिए ये एक बड़ा मौक़ा था।
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“जुगनू” और 1945 की “लैला मजनूँ” में रफ़ी साहब स्क्रीन पर भी नज़र आए। 1947 में कई बड़े संगीतकारों के लिए उन्होंने बेहतरीन गीत गाये। एस डी बर्मन के लिए “दो भाई” में – दुनिया में आज मेरे अँधेरा ही अँधेरा है। सी रामचंद्र के लिए “साजन” में – हमको तुम्हारा ही आसरा। 1944 से 1948 के बीच मोहम्मद रफ़ी के क़रीब 100 गाने आए। फिर आया 30 जनवरी 1948 का दिन जब महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गई थी। उस घटना से सभी स्तब्ध थे। गाँधी जी की याद में हुस्नलाल भगतराम ने एक गाना कंपोज़ किया, जिसके बोल लिखे राजेंद्र कृष्ण ने और उस गाने को आवाज़ दी मौहम्मद रफ़ी ने।
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इस गाने ने सब कुछ बदल दिया। पं जवाहर लाल नेहरू ने रफ़ी साहब को दिल्ली बुलाया और उनसे ये गाना सुना। और भारत की आज़ादी की पहली सालगिरह पर 24 साल के मौहम्मद रफ़ी को सिल्वर मैडल से नवाज़ा गया।
अपने करियर में मौहम्मद रफ़ी ने नौशाद, SD बर्मन, ख़ैय्याम, ओ पी नैय्यर, मदन मोहन, चित्रगुप्त, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी जैसे नामी संगीतकारों के लिए बेहद कामयाब गीत गाये। उन्होंने बहुत से कलाकारों के करियर में इम्पोर्टेन्ट रोल प्ले किया। चाहे वो ट्रैजिक स्टार दिलीप कुमार हों कॉमेडियन जॉनी वॉकर या याहू शम्मी कपूर या फिर जुबली कुमार राजेंद्र कुमार। शम्मी कपूर के लिए उन्होंने 190 गाने गाए, जॉनी वॉकर के लिए 155, शशि कपूर के लिए 129, देवानंद के लिए 100 और दिलीप कुमार के लिए 77। इनके अलावा वो भारत भूषण, जॉय मुखर्जी, राजकुमार, राजेश खन्ना से लेकर ऋषि कपूर तक बहुत से कलाकारों की आवाज़ बने।
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मुंबई में जब मौहम्मद रफ़ी अपने हमीद भाई के साथ संघर्ष कर रहे थे। उन्हीं दिनों में हमीद भाई ने ज़ेबुनिसा नाम की एक ख़ातून से शादी कर ली थी। उन्हीं की एक छोटी बहन थी बिल्क़ीस जिनसे मौहम्मद रफ़ी की दूसरी शादी हुई। 40s की ही बात है जब जेबुनिसा ने रफ़ी साहब को अपनी बहन से शादी का प्रपोजल दिया लेकिन रफ़ी साहब ने एकदम मना कर दिया क्योंकि वो तब तक वो स्टैब्लिश ही नहीं हो पाए थे। लेकिन तब हमीद साहब ने भी समझाया और आख़िरकार उन्हें मना ही लिया। इस तरह 1945 में मोहम्मद रफ़ी की दूसरी शादी हुई। पहली शादी से एक बेटे के अलावा दूसरी शादी से उनके तीन बेटे और तीन बेटियाँ हैं।
1950 के बाद का हर दशक रफ़ी साहब की कामयाबी और उनकी सादगी की कहानी लेकर आया। इन सालों ने उन्हें वो मौहम्मद रफ़ी बनाया कि जब 31 जुलाई 1980 में वो इस दुनिया से रुख़सत हुए तो उनकी मौत पर ये गीत बनाया गया – “मौहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया।”
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