बॉम्बे टॉकीज़ फ़िल्म इतिहास में सबसे अलग खड़ा दिखने वाला स्टूडियो |
स्टूडियो एरा
भारत में हर साल अलग-अलग भाषाओं की 1800 से ज़्यादा फिल्में बनती हैं, और उसी हिसाब से बहुत से प्रोडक्शन हाउसेस भी हैं। प्रोडक्शन हाउसेस एक फैक्ट्री की तरह होते हैं जहाँ साल भर फ़िल्म या टीवी सीरिअल्स का प्रोडक्शन होता है। इनकी शुरुआत सिनेमा की शुरुआत के साथ ही हो गई थी लेकिन तब और अब में बहुत फ़र्क़ है। आजकल कलाकार निर्देशक गीतकार संगीतकार सब फ्रीलांसर्स होते हैं, जो अलग-अलग बैनर्ज के साथ काम करते हैं मगर शुरुआत में ऐसा नहीं था।
प्रोडक्शन हाउसेस में काम करने वाले टेक्निशियंस से लेकर म्यूजिशियन्स, गीतकार, कलाकार और निर्देशक तक सब उनके एम्प्लॉईज़ होते थे, जो महीने की तनख्वाह पर काम करते थे। आजकल सब कुछ बहुत प्रोफ़ेशनल हो गया है, तब सब मिलकर एक परिवार की तरह रहते थे, काम करते थे और पूरे पैशन के साथ सिनेमा की नई-नई आई कला के लिए डिवोटेड थे। सिनेमा के उस दौर को कहा जाता था-स्टूडियो एरा।
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स्टूडियो एरा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्टूडियो था बॉम्बे टॉकीज़
बॉम्बे टॉकीज़ अपने समय के सबसे बड़े स्टुडिओज़ में से एक था जिसकी स्थापना हिमांशु राय और उनकी दूसरी पत्नी देविका रानी ने की थी। हिमांशु राय ने कोलकाता में वक़ालत की डिग्री ली और बैरिस्टर बनने के इरादे से लंदन पहुँच गए। लेकिन वहाँ जाकर उनका झुकाव थिएटर की तरफ़ हो गया, उनकी मुलाक़ात हुई लेखक निरंजन पाल से जो मशहूर स्वतंत्रता सेनानी बिपिन चंद्र पाल के बेटे थे, उनके लिखे नाटक “The Godess” में हिमांशु राय ने मुख्य भूमिका निभाई।
वो नाटक बहुत कामयाब रहा और तब उन्होंने लॉ छोड़ कर थिएटर पर फ़ोकस किया। ये नाटक जिस ड्रामा ट्रूप का था, वहीं एक जर्मन अभिनेत्री भी काम करती थीं, जिनका नाम था – मैरी हैनली । हिमांशु राय और मैरी एक दूसरे से प्रेम करने लगे और फिर दोनों ने शादी कर ली, उनकी एक बेटी भी हुई। इसी दौरान हिमांशु राय ने कुछ साइलेंट फ़िल्मों का निर्माण किया। “The Light of Asia” जिसमें उन्होंने ही गौतम बुद्ध की भूमिका भी निभाई। फिर प्रेम- सन्यास, शीराज़, a थ्रो ऑफ़ डाइस और कर्मा।
कर्मा अपने 4 मिनट लम्बे ऑन -स्क्रीन किसिंग सीन के लिए बहुत चर्चित हुई, लेकिन A Throw of Dice वो फिल्म है जिसके दौरान हिमांशु राय देविका रानी से मिले। देविका रानी उनसे क़रीब दस साल छोटी थीं और बेहद ख़ूबसूरत भी। तब तक हिमांशु राय अपनी फ़िल्मों वजह से इंग्लैंड और जर्मनी में तब तक काफ़ी मशहूर हो चुके थे और देविका रानी के लिए उनका व्यक्तित्व बहुत बड़ा था वो उनसे काफी प्रभावित भी थीं। हिमांशु राय पर भी देविका रानी की प्रतिभा और ख़ूबसूरती की गहरी छाप पड़ चुकी थी। फिर हिमांशु राय ने देविका रानी से शादी कर ली और उनके साथ भारत लौट आये।
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बॉम्बे टॉकीज़ की स्थापना 1934 में हुई थी और बहुत ही कम समय में बॉम्बे टॉकीज़ अपने समय का एक बड़ा स्टूडियो बन गया था। मुंबई के मलाड में बने बॉम्बे टॉकीज़ के स्टूडियो में साउंड प्रूफ़ स्टेज के अलावा लेबोरटरी, एडिटिंग रूम और प्रीव्यू थिएटर भी थे। वो भारत का पहला कॉरपोरेट स्टूडियो था, बड़े-बड़े बिज़नेस मैन उसके बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स थे। बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो में क़रीब 400 लोग काम करते थे, जिनमें उच्च कोटि के टेक्निशियन्स भी थे जो यूरोप से बुलाए गए थे। डायरेक्टर फ्रैंज़ ऑस्टिन और सिनेमेटोग्राफर जोज़फ़ विर्शिंग (Josef Wirsching) सेट-डिज़ाइनर, साउंड इंजीनियर सब जर्मन थे।
इंडियन फ़िल्म-मेकिंग में बॉम्बे टॉकीज़ ने बहुत high standards सेट किए, न सिर्फ़ टेक्नीकली बल्कि aesthetically भी। उन्होंने ड्रामा और कॉमेडी के साथ-साथ कई ऐसे सामाजिक विषयों पर फ़िल्म बनाने का रिस्क लिया जिन्हें पहले किसी ने छूने की हिम्मत नहीं की थी। बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो की ज़्यादातर फिल्में हिट रहीं और ज़्यादातर को आज भी क्लासिक की श्रेणी में रखा जाता है।
बॉम्बे टॉकीज़ की पहली फ़िल्म जवानी की हवा 1935 में आई, जिसमें देविका रानी हेरोइन थीं और नजमुल हसन हीरो, शूटिंग के दौरान दोनों एक दूसरे की तरफ़ आकर्षित हो गए। और ये प्रेम इस क़दर हावी हुआ कि अगली फ़िल्म “जीवन नैया” की शूटिंग के बीच में ही वो दोनों बिना किसी को बताये मुंबई छोड़कर कोलकाता चले गए। लेकिन शशधर मुख़र्जी के समझाने पर और कुछ शर्तों के साथ देविका रानी हिमांशु राय के पास वापस मुंबई आईं, मगर इसके बाद पति-पत्नी होते हुए भी दोनों के बीच सिर्फ़ कारोबारी रिश्ता ही रह गया।
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फ़िल्मी दुनिया का फ़लसफ़ा भी है न, शो मस्ट गो ऑन तो बॉम्बे टॉकीज़ की फ़िल्म “जीवन नैया” की शूटिंग फिर से शुरु की गई लेकिन अब मुश्किल थी नए हीरो की। वो हीरो हिमांशु राय को दिखाई दिया अपने लैब असिस्टेंट में, जो थे – अशोक कुमार। हाँलाकि अशोक कुमार कहते रहे कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती है पर हिमांशु राय बोले वो हम सीखा देंगे उसकी चिंता मत करो। इस तरह अशोक कुमार “जीवन नैय्या” से हीरो बन गए। ये फ़िल्म तो कोई ख़ास नहीं चली मगर अशोक कुमार और देविका रानी की अगली फ़िल्म “अछूत कन्या” सुपरहिट रही।
1939 तक बॉम्बे टॉकीज़ में “इज़्ज़त”, “जीवन-प्रभात”, “प्रेम कहानी”, “सावित्री”, “भाभी”, “निर्मला”, “वचन” और “कंगन” जैसी फ़िल्मों का निर्माण हुआ। इनमें से ज़्यादातर फ़िल्मों में देविका रानी हेरोइन थीं। उनकी ख़ूबसूरती की चर्चा हर जगह हुआ करती थी। उनके एक्टिंग स्टाइल की तुलना ग्रेटा गार्बो से की जाती थी इसीलिए उन्हें इंडियन ग्रेटा गार्बो भी कहा जाता था। उनके ग्रेस, ग्लैमर, अभिनय और ख़ूबसूरती की वजह से ही उन्हें “फर्स्ट लेडी” एंड “फर्स्ट डीवा ऑफ़ इंडियन सिनेमा” माना जाता है।
दूसरे विश्व युद्ध के शुरु होने से बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो पर असर पड़ने लगा, उस पर एक और घटना घटी, उनके लंदन के साथी निरंजन पाल जो शुरू से बॉम्बे टॉकीज़ में बतौर लेखक काम कर रहे थे, उन से भी हिमांशु राय की अनबन हो गई। हालात काफ़ी बिगड़ने लगे थे और सब कुछ सँभालने की कोशिश में हिमांशु राय पर इतना स्ट्रेस पड़ा कि 1940 में उनका नर्वस ब्रेकडाउन हुआ और 16 मई 1940 में सिर्फ़ 48 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई।
उनकी मौत के बाद मेजर शेयरहोल्डर होने की वजह से बॉम्बे टॉकीज़ का कंट्रोल देविका रानी के हाथों में आ गया। और यहीं से बॉम्बे टॉकीज़ दो गुटों में बँट गया – एक में देविका रानी के साथ अमिय चक्रबर्ती और दूसरे में शशधर मुखर्जी और अशोक कुमार थे। ऐसे हालात में कई लोग स्टूडियो छोड़ कर चले गए जिनमें पहली फीमेल म्यूज़िक डायरेक्टर सरस्वती देवी भी थीं जिन्होंने शुरुआत ही बॉम्बे टॉकीज़ से की थी। उनकी जगह ली अनिल बिस्वास ने और तभी आई फिल्म क़िस्मत जिसने एक ही सिनेमा हॉल पर सबसे ज़्यादा दिन चलने का रिकॉर्ड बनाया। साथ ही उस समय की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म भी बनी।
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क़िस्मत से पहले बंधन, पुनर्मिलन, झूला, नया संसार जैसी मशहूर फ़िल्में आ चुकी थीं और बाद में भी आई मगर अंदरुनी आपसी विवाद ने बॉम्बे टॉकीज़ को काफ़ी नुकसान पहुँचाया। 1943 में शशधर मुखर्जी ने भी बॉम्बे टॉकीज़ छोड़ दिया और राय बहादुर चुन्नीलाल के साथ भागीदारी में अपना अलग स्टूडियो बनाया- फिल्मिस्तान। जिसमें उनके साथ बॉम्बे टॉकीज़ के कई और लोग भी शामिल हुए जिनमें अशोक कुमार और ज्ञान मुखर्जी भी थे।
देविका रानी के लिए भी इस माहौल में स्टूडियो संभालना आसान नहीं था। 1945 में उन्होंने रशियन पेंटर स्वेतोस्लाव रोरिक से शादी कर ली और बॉम्बे टॉकीज़ का पूरा आर्काइव अपने साथ ले गईं। बाद में उन्होंने वो सारा मटेरियल न्यूयॉर्क के निकोलस रोरिक म्यूजियम में भेज दिया।
लेकिन बॉम्बे टॉकीज़ की कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती। देविका रानी के जाने के बाद अशोक कुमार जो बॉम्बे टॉकीज़ के एक मेजर शेयर होल्डर थे, उन्होंने वापसी की तो आख़िरी सांस लेता हुआ स्टूडियो फिर से जीने लगा। 1948 में आई फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ जिसने देवानंद को तो शोहरत दिलाई ही किशोर कुमार को भी प्लेबैक का मौक़ा इसी फ़िल्म से मिला। बॉम्बे टॉकीज़ की 1942 में आई फ़िल्म ‘बसंत’ में मधुबाला ने बतौर बाल कलाकार बेबी मुमताज़ के नाम से डेब्यू किया था और जिस फ़िल्म से वो एक हेरोइन के रूप में वो मशहूर हुईं वो भी बॉम्बे टॉकीज़ की ही फ़िल्म थी – 1949 में आई ‘महल’, जो बेहद कामयाब हुई।
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इन मशहूर और कामयाब फ़िल्मों के बावजूद स्टूडियो में सब कुछ ठीक नहीं था और आख़िरकार 1953 में बॉम्बे टाल्कीस में फ़िल्म- निर्माण बंद हो गया। संग्राम, मशाल, माँ जैसी कुछ और फिल्मों के बाद आख़िरी फ़िल्म रही 1954 में आई “बादबान”।
“कँगन”, “बंधन”, “झूला”, “नया संसार”, “क़िस्मत“, “पुनर्मिलन”, “महल” जैसी कई कालजई फ़िल्में बनाने वाले “बॉम्बे टॉकीज़” से कला, संगीत, नृत्य, लेखन आदि के क्षेत्र की चुनी हुई प्रतिभाएँ जुड़ी थी।
कई मशहूर स्टार्स को इस स्टूडियो ने मौक़ा दिया। जिनमें अशोक कुमार, मधुबाला के अलावा दिलीप कुमार भी बॉम्बे टॉकीज़ की खोज थे उन्होंने 1944 की फ़िल्म “ज्वार-भाटा” से फ़िल्मों में क़दम रखा। बतौर लीड एक्ट्रेस लीला चिटनीस भी यहीं से उभरीं।निरंजन पाल के अलावा जे एस कश्यप बॉम्बे टाल्कीस के शुरूआती स्क्रिप्ट राइटर थे जिन्होंने 1940 तक बॉम्बे टॉकीज़की फ़िल्मों के गीत भी लिखे। “कंगन” फिल्म से बतौर गीतकार कवि प्रदीप भी स्टूडियो का हिस्सा बन गए। अनिल बिस्वास, पन्नालाल घोष, पी एल संतोषी, अमिय चक्रबर्ती इन सब ने मिलकर बॉम्बे टॉकीज़ की प्रतिष्ठा को बढ़ाया और उसे उन ऊंचाइयों तक पहुँचाया जहाँ फ़िल्म इतिहास में वो सबसे अलग खड़ा दिखता है।