आरज़ू लखनवी वो पहले शायर थे जिन्होंने उर्दू को फ़ारसी और अरबी से अलग कर आसान बनाने की कोशिश की और आम लोगों की ज़बान पर चढाने का काम किया। जबकि उन्हें अरबी और फ़ारसी की अच्छी समझ थी लेकिन उनके फ़िल्मी गीत रहे हों या नॉन-फ़िल्मी ग़ज़ल्स उन्होंने कठिन फ़ारसी शब्दों से परहेज़ किया, इसीलिए उनके अशआर सुनने वालों पर गहरा असर छोड़ जाते हैं। आरज़ू लखनवी जो सिनेमा में आने से पहले ही ख़ासे मक़बूल हो चुके थे और इसकी वजह थी – आसान उर्दू अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल से गहरी से गहरी बात कह जाने का उनका अंदाज़।
आरज़ू लखनवी की प्रतिभा बचपन से ही दिखने लगी थी
अपने समय के बेहतरीन शायर और गीतकार सैयद अनवर हुसैन “आरज़ू” के जन्म को लेकर कई मत हैं पर ज़्यादातर जगहों पर उनके जन्म की तिथि और साल 16 फ़रवरी 1873 है। (26 फ़रवरी 1893 ) लखनऊ में मीर ज़ाक़िर हुसैन “यास” के घर जन्मे आरज़ू के पिता और उनके बड़े भाई यूसुफ़ हुसैन “क़यास” का शुमार बेहतरीन शायरों में होता था। ऐसे माहौल में वो भी ख़ुद को शायरी के जादू से बचा नहीं पाए और शेर कहने लगे, हाँलाकि काफ़ी वक़्त तक ये बात घर वालों से छुपी रही।
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एक बार जब इनके वालिद के एक शगिर्द ने अपनी एक ग़ज़ल इस्लाह के लिए दी तो वालिद ने उसे बड़े भाई के हवाले किया आरज़ू साहब भी वहीं बैठे थे उन्होंने अनायास उसे ठीक किया तब घरवालों को उनके इस हुनर का पता चला। अपने पिता की तरह वो भी “जलाल लखनवी” के शागिर्द रहे, और उसी दौरान वो दूसरे शागिर्दों को भी सिखाने लगे थे। उनकी शायरी में वो कमाल था कि 18 साल की उम्र तक आते-आते उनका शुमार बड़े-बड़े शायरों में होने लगा था। और फिर जल्दी ही वो उर्दू अदब का एक जाना-माना नाम बन गए। एक वक़्त आया जब उन्हें “अल्लामा” के ख़िताब से नवाज़ा गया था।
सबसे पहले मुशायरे में जो ग़ज़ल उन्होंने पढ़ी उसके कुछ शेर यूँ थे –
हमारा ज़िक्र तो ज़ालिम की अंजुमन में नहीं, जभी तो दर्द का पहलू किसी सुख़न में नहीं
शहीद-ए-नाज़ की महशर में दे गवाही कौन, कोई सहू का भी धब्बा मेरे कफ़न में नहीं।
Aarzoo Lakhnavi
थिएटर और सिनेमा का सफ़र
शायरी में अपना परचम लहराने के साथ-साथ उनकी रूचि थिएटर में हुई और फिर उनका एक नाटक प्रकाशित हुआ-“मतवाली जोगन’ जिसे लोगों ने तो पसंद किया ही, उसकी ख्याति कई थिएटर पर्सनालिटीज तक भी पहुंची और जब वो एक मुशायरे में भाग लेने कोलकता गए तो पारसी थिएटर के कई बड़े निर्देशकों ने उनसे नाटक लिखने की पेशकश की और फिर वो शायरी करने के साथ-साथ थिएटर के लिए नाटक भी लिखने लगे।
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उस समय तक सिनेमा बे-आवाज़ था और जैसे ही सिनेमा बोलने लगा तो आवाज़ आने के साथ ही डायलॉग्स, स्क्रीनप्ले से लेकर गीत लिखने के लिए अच्छे लेखकों, शायर और कवियों की माँग बढ़ने लगी थी। उस समय कई मशहूर शायर और लेखकों ने सिनेमा का दामन थामा। ऐसे ही मशहूर शायर थे आरज़ू लखनवी उस समय के कई बड़े लेखक सिनेमा से जुड़े, हांलाकि कुछ को सिनेमा की दुनिया रास नहीं आई मगर आरज़ू लखनवी एक बार सिनेमा से जुड़े तो फिर ताउम्र जुड़े रहे।
उनके नाटक का मंचन न्यू थिएटर्स के मालिक बी एन सरकार ने देखा था और वो उनके लेखन से काफ़ी प्रभावित थे तो उन्होंने आरज़ू लखनवी को न्यू थिएटर्स में स्टोरी डिपार्टमेंट का हेड बनने की पेशकश की और इस तरह आरज़ू लखनवी न्यू थिएटर्स से जुड़ गए। वहाँ काम करने के दौरान आरज़ू लखनवी ने गीत लिखने के साथ-साथ कहानी और संवाद लेखन भी किया।
1936 में आई “मंज़िल” वो पहली फ़िल्म थी जिसके डायलॉग्स और सांग्स आरज़ू लखनवी ने लिखे थे। इसके बाद मुक्ति (37) और फिर दुश्मन में उन्होंने गीत लिखे, उन गीतों ने अपने वक़्त में धूम मचा दी थी। फिर स्ट्रीट सिंगर (38), दुश्मन (39) जवानी की रीत (39), नर्तकी (40), लगन (41), डॉक्टर (41) जैसी फिल्मों के गीत भी बहुत मशहूर हुए। कुछ गाने पंकज मलिक या के. एल. सहगल के गाए गानों के कलेक्शन में मिल जाते हैं, मगर कुछ एलबम्स पर गीतकार के नाम में आरज़ू लखनवी की जगह मुंशी आरज़ू लिखा मिलता है।
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1942 में महबूब ख़ान के बुलावे पर वो मुंबई चले गए। महबूब ख़ान की फ़िल्म रोटी (42) में बहज़ाद लखनवी और सफ़दर आह के साथ आरज़ू लखनवी ने भी गीत लिखे थे। उनका लिखा एक गाना “उलझ गए नयनवा छूटे नहीं छुटाए बेगम अख़्तर की आवाज़ में इतना मशहूर हुआ था कि स्टेज परफॉरमेंस के दौरान बार-बार उनसे उस गाने की फरमाइश की जाती थी।
आज़ादी के बाद आरज़ू लखनवी पाकिस्तान चले गए
देश की आज़ादी के बाद फ़िल्मों का रुप-रंग बदल रहा था नए-नए गीतकार सिनेमा में प्रवेश कर रहे थे। उस समय आरज़ू लखनवी ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया। वहाँ वो रेडियो से जुड़े रहे और 17 अप्रैल 1951 में इस दुनिया से रुख़सत हो गए। आरज़ू लखनवी के जन्म और मृत्यु के बारे में अलग अलग जगहों पर अलग अलग जानकारी मिलती है, मैंने वो शेयर किया है जो ज़्यादातर फ़िल्म समीक्षक और उर्दू के जानकार मानते हैं।
फिल्मों से इतर भी उन्होंने हर तरह की शायरी की लेकिन उनकी ग़ज़लें, गीत और मर्सिया बहुत पसंद किये गए। उन्होंने हज़ारों ग़ज़लें लिखी जिनमें ज़्यादातर रोमेंटिक थीं, उनके सात दीवान मिलते हैं। उनकी शायरी का एक मशहूर कलेक्शन है – “सुरीली बांसुरी” जिसमें एक भी फ़ारसी और अरबी का लफ़्ज़ नहीं है, सिर्फ़ उर्दू और हिंदुस्तानी। उसी का एक बहुत मशहूर शेर है- “जिसने बनाई बाँसुरी गीत उसी के गाए जा, साँस जब तक आए जाए, एक ही धुन बजाए जा”