ग़ुलाम मुस्तफ़ा दुर्रानी जिन्हें सिने-प्रेमी G M दुर्रानी के नाम से जानते हैं, 40s और 50s की शुरुआत तक भी प्लेबैक सिंगिंग में छाए रहे। इंडस्ट्री में आने के कुछ ही सालों में वो इतने मशहूर और कामयाब हो गए थे कि उन्हें अपने ही दोस्तों की जलन का शिकार होना पड़ा।
G M दुर्रानी का प्रारंभिक जीवन
30 – 40s में जब के एल सहगल का सितारा चमकता था ऐसे वक़्त में एक ऐसा गायक उभरा जिसने मेल प्लेबैक सिंगिंग का परिदृश्य ही (सेनारिओ) बदल दिया। उस वक़्त जब सब सहगल साब के स्टाइल को कॉपी कर रहे थे उस गायक ने अपने अलग अंदाज़ से अपनी ऐसी पहचान बनाई कि फिर उनके नक़्श-ए-क़दम पर बहुत से नए गायक भी चले। वो एक्टर-सिंगर-म्यूजिक डायरेक्टर थे – G M दुर्रानी जिन्हें मोहम्मद रफ़ी जैसे महान गायक अपना आइडल मानते थे। और आप कह सकते हैं कि वो अपने ज़माने के मोहम्मद रफ़ी थे।
1919 में पेशावर में जन्मे G M दुर्रानी एक पठान थे। यूँ तो उनकी मातृभाषा पश्तो थी लेकिन वो हिंदी-उर्दू-पंजाबी भी बहुत अच्छी बोल लेते थे। वो एक बहुत ही रुढ़िवादी परिवार से थे जहाँ फ़िल्मों को बहुत बुरा समझा जाता था। पेशावर में वो जिस पेंटर के यहाँ काम करते थे वो हमेशा रफ़ीक ग़ज़नवी के गाने गुनगुनाते रहते थे। उन्हें सुनते-सुनते G M दुर्रानी को भी गाना गाने का शौक़ हुआ और वो भी गाने लगे और जब अपने साथियों से उन्हें प्रोत्साहन मिला तो उन्होंने बिना देखे बिना मिले रफ़ीक़ ग़ज़नवी को अपना गुरु मानकर गाने का रियाज़ करना शुरु कर दिया।
G M दुर्रानी का करियर
उनके आस-पास के जानने वाले अक्सर कहा करते थे कि इस लड़के को तो बम्बई जाकर हीरो बन जाना चाहिए और यहीं से बम्बई जाने का शौक़ पैदा हुआ। उन्हीं दिनों उनके पिता ने उन्हें अपने एक दोस्त की मोटर-पार्ट्स की दुकान पर काम पर लगा दिया। वहां उनका बिलकुल दिल नहीं लगता था लेकिन पिता बहुत सख़्त थे, उनसे कुछ कह नहीं सकते थे इसलिए एक दिन जेब में 22 रुपए लेकर मुंबई भाग आए।
जब पैसे ख़त्म होने लगे तो काम करने का ख्याल आया और फिर थोड़ी सी कोशिश से उन्हें फ़िल्म स्टूडियो में नौकरी मिल गई। उन्होंने दो-एक फिल्मों में अभिनय भी किया मगर ये काम उन्हें भाया नहीं और जब उन्होंने एक्टिंग करने से मना कर दिया तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। फिल्म स्टूडियो की नौकरी छूटने के बाद उन्हें किसी तरह मुंबई रेडियो स्टेशन में ड्रामा आर्टिस्ट का काम मिल गया। रेडियो पर उनकी मुलाक़ात संगीत के क्षेत्र की कई हस्तियों से होती थी, संगीत के बड़े जानकार वहां आते थे। उनके साथ बैठ कर, उन्हें सुनकर, उन्हीं की संगत में G M दुर्रानी ने गायन की बारीक़ियाँ सीखीं।
क़िस्मत उन्हें एक बार फिर फ़िल्म इंडस्ट्री तक ले गई। उनकी आवाज़ सुनकर एक्टर-फ़िल्ममेकर सोहराब मोदी काफ़ी प्रभावित हुए और 1935 में उन्हें मिनर्वा मूवीटोन में नौकरी मिल गई। 1936 की फ़िल्म सईद-ए-हवस में G M दुर्रानी को मौक़ा मिला एक ग़ज़ल गाने का। गाने की रिहर्सल तक सब ठीक था यहाँ तक कि संगीतकार बुंदू ख़ाँ ने भी उनका गाना सुनकर वाह-वाह की। मगर कैमरा के सामने गाने के ख़याल से ही उनके पसीने छूट गए।
जब उन्हें दरबारी पोशाक पहनाकर ढेर सारा मेकअप लगाया गया तो वो बिलकुल भी कम्फर्टेबल नहीं थे। लेकिन शूट तो करना था, जैसे ही कैमरा चालू हुआ और उन्होंने गाना शुरु किया तभी कट की आवाज़ आई संगीतकार कह रहे थे कि ऊँचा गाओ, लेकिन ऊँचा गाने से आवाज़ फटने का डर था। पर जैसे-तैसे वो शूट पूरा हुआ और उनकी जान में जान आई। लेकिन ज़िन्दगी उन्हें रेडियो और फ़िल्म इंडस्ट्री के बीच घुमाती ही रही, ये दो जगहें जैसे उनके दो घर बन गए थे। एक बार फिर फ़िल्मों का साथ छूटा और इस बार वो पहले दिल्ली रेडियो पहुंचे और फिर वापस मुंबई आए।
उस समय उनकी आवाज़ सुनकर बहुत से लोगों ने उन्हें फ़िल्मों में गाने की सलाह दी। और जब क़िस्मत में कुछ लिखा हो तो रास्ते ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाते हैं।उन्हें भी एक फ़िल्म में गाने का ऑफर मिला उस फ़िल्म में संगीतकार थे रफ़ीक़ ग़ज़नवी जिन्हें वो अपना गुरु मानते थे। वो ये मौक़ा गवाना तो नहीं चाहते थे, मगर उस वक़्त तक वो रेडियो पर 70 रुपए महीने की नौकरी कर रहे थे और उन्हें प्राइवेट रिकॉर्डिंग करने की इजाज़त नहीं थी। किसी को पता चलता तो उनकी नौकरी जा सकती थी।
तो तय ये हुआ कि रेकॉर्ड्स और फ़िल्म क्रेडिट्स में उनका नाम नहीं दिया जाएगा। रिकॉर्डिंग भी छुट्टीवाले दिन रात के वक़्त की गई थी ताकि कोई बाहर का व्यक्ति उन्हें देख न ले। ये फ़िल्म थी सागर मूवीटोन की 1940 में आई बहुरानी। उस एक रिकॉर्डिंग के लिए उन्हें 75 रुपए मिले थे और ये उनकी पसंद का काम भी था इसलिए उन्होंने कुछ समय बाद रेडियो की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह फ़िल्मों से जुड़ गए।
किसी ज़माने में नए उभरते हुए संगीतकार नौशाद अली से उनकी जान पहचान हुई थी फिर उन्होंने नौशाद के लिए 1941 की फ़िल्म दर्शन के गाने गाये। इस फिल्म में हीरो थे प्रेम अदीब और हेरोइन थीं – ज्योति जिनका असली नाम सितारा बेगम था। ज्योति इस हैंडसम गायक पर फ़िदा हो गईं और दोनों का ये प्यार जल्दी ही शादी में बदल गया।
फ़िल्मों में शोहरत का ज़माना
G M दुर्रानी के लिए 40 का ये दशक हर लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण रहा, इसी दशक में उन्होंने शोहरत की बुलंदियों को छुआ। 1942 में आई नई दुनिया में उन्होंने गाना तो गाया ही, वो इसके सहायक संगीतकार भी थे। इस फ़िल्म में राजकुमारी के साथ गाए उनके डुएट काफी पसंद किये गए। उस दौर में इस जोड़ी के कई मशहूर गाने आए।
उनका पहला मशहूर गाना माना जाता है 1942 में आई फ़िल्म “शारदा” का – “दुनिया में सब जोड़े-जोड़े, आशिक़ फिरें निगोड़े” फ़िल्म का संगीत दिया था नौशाद ने और गीत लिखे थे डी एन मधोक ने। लेकिन जब 1943 में “नई कहानी“ फ़िल्म आई तो उसमें उनका गाया गाना – “नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे कितने मीठे कैसे प्यारे” इतना मशहूर हुआ कि इसके बाद से उनकी शोहरत बढ़ती ही चली गई। उस दौर में G M दुर्रानी, म्यूज़िक डायरेक्टर ख़ुर्शीद अनवर और गीतकार डी एन मधोक इस तिकड़ी ने कई मशहूर गीत दिए।
करियर ख़त्म करने की साजिश
1941 की ही बात है जब उनकी शोहरत बढ़ती जा रही थी तो उनके एक दोस्त जो ख़ुद एक जाना-माना नाम थे उन्होंने G M दुर्रानी से पान खाने की गुज़ारिश की, जब उन्होंने मना किया तो उस दोस्त ने दोस्ती का वास्ता दिया। दोस्ती की ख़ातिर उन्होंने पान की गिलौरी मुँह में रख ली लेकिन जैसे ही पान का रस गले से नीचे उतरा उन्हें कुछ अजीब सा एहसास हुआ और उन्होंने तुरंत वो पान पीकदान में उगल दिया।
वो दोस्त भी शायद अपनी इस हरक़त पर शर्मिदा थे इसलिए वहाँ से निकल गए। उनके जाने के बाद G M दुर्रानी उस पीकदान को लेबोरटरी ले गए और टेस्ट कराने पर पता चला कि अगर वो वक़्त पर पान नहीं थूकते तो शायद फिर कभी गा नहीं पाते। उन दिनों के अख़बारों में भी इस घटना की बहुत चर्चा हुई थी। बाद में ‘माधुरी” मैगज़ीन में ये पूरा वाक़या छपा था। अख़बारों और पत्रिकाओं में छापे लेखों के मुताबिक़ उनके वो दोस्त थे ख़ान मस्ताना जो ख़ुद एक नामी गायक और संगीतकार थे।
लता मंगेशकर के साथ विवाद
लता मंगेशकर के साथ भी उनका एक विवाद हुआ था। ये वाक़या है फ़िल्म “चाँदनी रात” के एक गाने की रिकॉर्डिंग का। संगीतकार नौशाद के साथ लता मंगेशकर की ये पहली फिल्म थी। लता जी जब डुएट रिकॉर्ड करने पहुँचीं तो G M दुर्रानी उनसे कुछ ज़्यादा ही फ्रेंडली होने की कोशिश करने लगे। वो एक हैंडसम आदमी थे और उस वक़्त इंडस्ट्री के कद्दावर लोगों में उनका नाम शामिल होता था।
लेकिन लता मंगेशकर को उनकी बातें पसंद नहीं आईं और वहाँ से बिना रिकॉर्डिंग किए तुरंत चली गईं। बिना इस डर के कि वो इंडस्ट्री में नई हैं और उनका ये क़दम नौशाद जैसे म्यूजिक डायरेक्टर को नाराज़ कर सकता है। साथ ही उन्होंने फैसला ले लिया कि वो कभी भी G M दुर्रानी के साथ नहीं गाएंगी। वो गाना था – “छोरे की जात बड़ी बेवफ़ा,बेवफा से कोई दिल लगाए न” हाँलाकि रेकॉर्ड्स पर लता मंगेशकर और GM दुर्रानी का नाम लिखा मिलता है, मगर ये गाना असल में लता मंगेशकर और सादत हसन नाम के गायक की आवाज़ में है।
बहुत से रेकॉर्ड्स पर कई डुएट्स में G M दुर्रानी के साथ लता मंगेशकर का नाम मिलता है पर लता जी ने अपने एक इंटरव्यू में स्पष्ट रुप से कहा था कि उस दिन उन्होंने क़सम खाई थी और अपने पूरे करियर में G M दुर्रानी के साथ उन्होंने कभी कोई गाना नहीं गाया। अब सच क्या है इसके बारे में तो यही कहा जा सकता है कि या तो रिकॉर्ड कंपनियों से कोई भूल हुई है या फिर वो गाने “चाँदनी रात” के वाक़ये से पहले रिकॉर्ड किये गए होंगे।
1941 से 1951 के बीच G M दुर्रानी ने क़रीब 500 गाने गाये। साथ ही उन्होंने कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया इनमें 1943 की अँगूरी, 1943 में ही आई विजयलक्ष्मी, 1944 की भाग्यलक्ष्मी और 1946 में आई धड़कन में उन्होंने ग़ुलाम मुस्तफ़ा दुर्रानी के नाम से संगीत दिया। 1961 की क़िस्मत पलट के देख और 1961 ही की स्टेट एक्सप्रेस में उन्होंने गुंजन नाम से संगीत दिया।
नौशाद के अलावा ख़ुर्शीद अनवर, शंकर राव व्यास, पंडित गोबिंदराम, हुस्नलाल भगतराम, सज्जाद हुसैन, A R क़ुरैशी, श्याम सुन्दर, पं अमरनाथ, S D बर्मन जैसे उस समय के लगभग हर संगीतकार के लिए उन्होंने गाने गाए। राजकुमारी, अमीरबाई कर्नाटकी, नूरजहाँ, शमशाद बेगम के साथ उन्होंने कई हिट डुएट गाये। गीता दत्त के तो सिंगिंग करियर की शुरुआत ही G M दुर्रानी के साथ हुई। वो गाना था फ़िल्म दो भाई (1947) का – आज प्रीत का नाता।
मोहम्मद रफ़ी ने अपने करियर का पहला हिंदी गाना G M दुर्रानी के साथ ही गाया था। 1945 में आई वो फिल्म थी – गाँव की गोरी और गाना था – दिल हो क़ाबू में तो दिलदार की ऐसी-तैसी। ये वो वक़्त था जब G M दुर्रानी मोहम्मद रफ़ी की सिफ़ारिश करते थे और फिर एक वक़्त वो आया जब रफ़ी साहब की सिफारिश पर उन्हें 1956 की फ़िल्म “हम सब चोर हैं” में गाना गाने का चांस मिला।
इस बदलाव के पीछे वजह ये मानी जाती है कि जब वो हज के लिए गए तो वापस आने पर भी उसी असर में रहे। अपने पीक टाइम पर होते हुए उन्होंने गाना-बजाना, फ़िल्म इंडस्ट्री सब छोड़ दिए। उन्होंने अपनी दाढ़ी भी बढ़ा ली थी ताकि कोई उन्हें पहचान न सके, उनका दिल सब दुनियावी चीज़ों से उठ गया था। उनके पास जितना पैसा था वो सब उन्होंने ग़रीबों में बाँट दिया लेकिन उसका नतीजा ये निकला कि उनके खाने लाले पड़ गए, तब उन्होंने गुज़र बसर के लिए किसी से उधार लेकर एक परचून की दुकान खोली। पर हालात बिगड़ रहे थे तब रफ़ी साहब ने फिर से काम दिलाने में उनकी मदद की।
लेकिन गया वक़्त लौट कर नहीं आता, हाँलाकि इसके बाद भी उन्होंने काफ़ी गाने गाये। पर फ़िल्मों का फ्लेवर बदल गया था, नए सिंगर्स आ गए थे और सच तो ये है कि उनका वक़्त चला गया था। 1966 में आई “सुनहरे क़दम” उनकी आख़िरी हिंदी फ़िल्म थी। फ़िल्मों के अलावा उन्होंने बहुत से नॉन-फ़िल्मी गीत और भजन भी गाए थे, जो अपने वक़्त में काफ़ी मशहूर हुए।1982 में उन्हें गले का कैंसर हुआ और 8 सितम्बर 1988 में उनकी मौत हो गई।
हम लोग, मग़रुर, शमा, नमस्ते, सबक़ जैसी कितनी ही फिल्मों में उनके गाये गीतों ने धूम मचाई थी। मगर वक़्त का पहिया ऐसा पलटा कि सारी शोहरत भाप बनकर उड़ गई। आज शायद ही कोई जानता हो कि मोहम्मद रफ़ी से पहले भी कोई ऐसा गायक था जिसने अपनी अलग पहचान बनाई और जो हमारे आइडल का आइडल था। पर इतना ज़रुर है कि जब जब फ़िल्मी गायकों बात होगी तो G M दुर्रानी के नाम को विंटेज एरा के गायकों में ज़रूर शामिल किया जाएगा।
G M दुर्रानी के गाये कुछ मशहूर गीत
भरत मिलाप (1942) – हे भरत तुम्हारे राम अभी हैं आते / रघुकुल रीत सदा चली आई – G M दुर्रानी -शंकर राव व्यास
चूड़ियाँ (1942) – चूड़ियाँ ले लो – G M दुर्रानी – S N त्रिपाठी
नई कहानी (1943) – नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे कितने मीठे कैसे प्यारे – श्याम सुन्दर – वली साहेब
मिर्ज़ा साहिबाँ (1947) – हाथ सीने पे जो रख दो तो क़रार आ जाए ,दिल के उजड़े हुए गुलशन में बहार आ जाए – नूरजहाँ – पं अमरनाथ – अज़ीज़ कश्मीरी
दो भाई (1947) – आज प्रीत का नाता टूट गया – S D बर्मन – राजा मेहदी अली ख़ान
दीदार (1951) – नज़र फेरो न हमसे हम हैं तुमपे मरने वालों में – शमशाद बेगम – नौशाद – शकील बदायूँनी
प्यार की बातें (1951) – वो हमसे मोहब्बत करते हैं कभी एक आना जी कभी दो आने – बुलो सी रानी – मनोहर खन्ना
हम सब चोर हैं (1956) – हमको हँसते देख ज़माना जलता है चोर बनो या मोर यहाँ सब चलता है – G M दुर्रानी, रफ़ी – ओ पी नैयर – मजरूह सुल्तानपुरी
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