राज खोसला

राज खोसला की 100 वीं जयंती पर विशेष 

31 मई 2025 को हिंदी फ़िल्मों के मशहूर निर्देशक राज खोसला की 100 वीं जयंती है। वो राज खोसला जो हिंदी फ़िल्मों में निओ-नुआ (Neo-Noir) शैली लेकर आए। वो राज खोसला जो ट्रेंड सैटर कहे जाते हैं और जिनकी कुछ फ़िल्में अपने समय से आगे की कहानी कहती दिखती हैं। वो राज खोसला जिन्हें women’s डायरेक्टर कहा जाता है क्योंकि वो अपनी फ़िल्मों के ज़रिए एक स्त्री का पॉइंट ऑफ़ व्यू रखते थे, एक तरह से स्त्री-मन को समझते थे। उन्हें अपनी फिल्मों में मजबूत महिला पात्रों के लिए जाना जाता है।

राज खोसला गायक बनने के लिए मुंबई आए थे

“वो कौन थी”, “मेरा साया”, “दो बदन”, ‘अनीता”, “मैं तुलसी तेरे आँगन की” इन फिल्मों के नाम सुनते ही फ़िल्म की हेरोइन का चेहरा नज़रों के सामने आता है, न कि हीरो का। कहानी चाहे सस्पेंस थ्रिलर हो, या सोशल इशू पर या फैमिली ड्रामा, उनकी फ़िल्मों का सेंट्रल कैरेक्टर फ़िल्म की हेरोइन ही होती थी। आमतौर पर हीरो को महत्त्व देने वाली फ़िल्म इंडस्ट्री में इस तरह की महिला प्रधान फ़िल्में बनाने का मतलब एक बड़ा रिस्क लेना, वो भी आज से कोई 50-60 साल पहले, जब आमतौर पर फ़िल्म की कहानी एक ही खाँचे में फिट होती थी।

हीरो हेरोइन का प्यार, विलैन की एंट्री और हीरो का विलेन से भिड़ना और फिर हैप्पी एंडिंग। ऐसे में महिला प्रधान फ़िल्में बनाने का रिस्क लिया राज खोसला ने और शायद बहुत सोच-समझ कर लिया। क्योंकि जहाँ उन्हें फ़िल्ममेकिंग की समझ थी वहीं वो भारतीय दर्शकों की नब्ज़ भी पहचानते थे। हिंदी फ़िल्मों की कामयाबी में तो बाक़ी फैक्टर्स के साथ साथ संगीत का भी अहम् रोल हमेशा से रहा है। आप देखें तो राज खोसला की फ़िल्मों का संगीत हमेशा अव्वल दर्जे का होता था और लोगों को पसंद भी आता था।

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संगीत के सुपरहिट होने की एक और वजह थी वो ये कि राज खोसला ख़ुद एक प्रशिक्षित शास्त्रीय गायक थे, और वो गायक बनने के लिए ही फ़िल्मों में आए थे। उन्होंने कुछेक फ़िल्मों में गीत गाये भी थे। 1950 की फ़िल्म ‘आँखें’ में संगीत मदन मोहन ने दिया था और राज खोसला उनके असिस्टेंट थे। इसी फ़िल्म में राज खोसला ने गाया “रेल में जिया मोरा सननन होए रे”,  इससे पहले 1949 में आई “भूल भुलैया” में भी राज खोसला ने एक गीत गाया था “मधुर सुरों में सुनो झमेला”। उन्होंने 1949 की फ़िल्म ‘अंदाज़’ में “टूटे ना दिल टूटे ना’ भी गाया था, जिसे बाद में मुकेश की आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया।

राज खोसला का संगीत का ज्ञान बहुत अच्छा था मगर कभी कभी संगीतकारों पर भारी पड़ जाता था। जब एक मुसाफ़िर एक हसीना फ़िल्म के संगीत में राज खोसला इंटरफेयर करने लगे तो संगीतकार OP नैयर ने उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन प्रोडूसर शशधर मुखर्जी के पास जाकर फ़िल्म छोड़ने की बात कही। तब शशधर मुखर्जी बीच में पड़े और बात संभल गई। लेकिन इसके बाद राज खोसला और OP नैयर ने कभी एक दूसरे के साथ काम नहीं किया। दासी फ़िल्म के संगीत में भी राज खोसला ने हस्तक्षेप किया तो संगीतकार राजेश रोशन फ़िल्म से अलग हो गये, बाद में उनकी जगह रवींद्र जैन को लिया गया।

राज खोसला के करियर की दिशा बदली देवानंद ने

19 साल की उम्र में लुधियाना से गायक बनने की चाहत लिए बम्बई आए राज खोसला गायक बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन्होंने कुछ समय ऑल इंडिया रेडियो में म्यूज़िक स्टाफ के रूप में भी काम किया। उनके करियर को सही मार्गदर्शन मिला देवानंद से। देवानंद में प्रतिभाओं को परखने की क्षमता थी और उन्होंने कहीं न कहीं राज खोसला में छुपे निर्देशक को पहचान लिया था। इसीलिए जब नवकेतन की फ़िल्म बाज़ी (51) बन रही थी तो देवानंद ने राज खोसला से पूछा कि क्या वो निर्देशक गुरुदत्त के सहायक बनेंगे ?

राज खोसला

इसे उनकी डेस्टिनी की तरफ़ बढ़ा पहला क़दम कह सकते हैं क्योंकि बाद में राज खोसला गुरुदत्त के काफ़ी क़रीबी मित्र बन गए थे। बाज़ी के बाद जाल (1952), बाज़ (1953) और आर-पार (1954) जैसी यादगार फिल्मों में वो गुरुदत्त के सहायक थे। निर्देशक के रूप में राज खोसला का फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ 1955 में आई फ़िल्म “मिलाप” से। जिसमें देवानंद और गीता बाली मुख्य भूमिकाओं में थे। ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर चली नहीं लेकिन शायद देवानंद के साथ साथ गुरुदत्त को भी राज खोसला के टैलेंट पर इतना भरोसा था कि इस फ़्लॉप के बावजूद उन्होंने CID जैसी क्राइम थ्रिलर के निर्देशन की ज़िम्मेदारी राज खोसला को सौंप दी।

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CID अपने वक़्त की बहुत बड़ी हिट थी इसी फिल्म से वहीदा रहमान की हिंदी फ़िल्मों में एंट्री हुई लेकिन इसकी वजह राज खोसला नहीं थे, ये चयन गुरुदत्त का था। राज खोसला तो कुछ हद तक वहीदा रहमान से ख़फ़ा थे क्योंकि एक न्यूकमर होते हुए वो अपनी डिमांड्स रखती जा रही थीं। एक बार शूटिंग के टाइम पर वहीदा रहमान मेकअप रूम से बाहर ही नहीं निकली। क्योंकि जो ड्रेस उन्हें पहनने के लिए दी गई थी वो ट्रांसपेरेंट थी और वहीदा रहमान उसे पहनकर शूटिंग करने में कम्फ़र्टेबल नहीं थीं।

राज खोसला

शूटिंग का टाइम निकला जा रहा था, नई ड्रेस बनाने का टाइम नहीं था और उस ड्रेस में वहीदा रहमान मेकअप रूम से बाहर निकलने को ही तैयार नहीं थीं। राज खोसला पहले से ही उनसे नाराज़ थे, इस वाक़ए से वो और उखड़ गए और सीधे गुरुदत्त को कॉल लगाया। गुरुदत्त आये उन्होंने बात की और तब स्थिति को देखते हुए ख़ुद वहीदा रहमान ने ही सुझाया कि वो उस ड्रेस पर एक दुपट्टा डाल सकती हैं। इस तरह CID फ़िल्म के उस पूरे गाने की शूटिंग दुपट्टे के साथ ही हुई। वो मशहूर गीत था – “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना”

राज खोसला की फ़िल्मों का मेन एलिमेंट था सस्पेंस, थ्रिल, और मिस्ट्री

CID के बाद “काला पानी” फिर “सोलहवाँ साल”, “एक मुसाफ़िर एक हसीना”, “बम्बई का बाबू” जैसी फ़िल्मों ने राज खोसला को एक कामयाब निर्देशक की श्रेणी में  ला खड़ा किया। इन सभी फ़िल्मों की फ़िल्म इतिहास में ख़ास जगह है। उनकी फ़िल्मों की ख़ासियत हुआ करती थी स्टोरीलाइन और शानदार म्यूज़िक। राज खोसला ने जो भी फ़िल्में डायरेक्ट कीं, उनकी कहानी में सस्पेंस मेन फैक्टर है जिसे उन्होंने म्यूज़िक के साथ इस तरह से प्रेजेंट किया कि वो उनका स्टाइल बन गया। लेकिन ये सिर्फ़ शुरुआत थी।

राज खोसला को असली पहचान और कामयाबी तब मिली जब 1964 में आई फ़िल्म ‘वो कौन थी’। इस फ़िल्म की स्टोरीलाइन तो ज़बरदस्त थी ही, राज खोसला ने इसे जिस तरह इस कहानी को परदे पर क्रिएट किया वो लाजवाब है। फ़िल्म का एक एक फ्रेम कमाल का है, और ग्रिप कहीं छूटती नहीं है। इस फ़िल्म ने साधना को मिस्ट्री गर्ल का ख़िताब दिला दिया। लेकिन इंटरेस्टिंग बात ये है कि फ़िल्म “वो कौन थी” की कहानी पर गुरुदत्त ने दो बार फ़िल्म बनाने की कोशिश की थी।

50s में जब उन्होंने फ़िल्म शुरू की तो उसमें हीरो थे सुनील दत्त और हेरोइन थीं वहीदा रहमान। लेकिन गुरुदत्त उसके निर्माण से संतुष्ट नहीं थे इसलिए फ़िल्म को डिब्बे में बंद कर दिया गया। अगर ये फ़िल्म बनती तो यही संगीतकार RD बर्मन की पहली फ़िल्म होती। 60 के दशक में गुरुदत्त ने राज़ नाम की इस फ़िल्म को दोबारा बनाना शुरू किया। इस बार हीरो वो ख़ुद थे, लेकिन 12 रील शूट होने के बाद फिर से इसे बंद कर दिया गया। फिर राज खोसला ने ये स्क्रिप्ट ली और उसे अपने तरीक़े से ऐसे फ़िल्माया कि फ़िल्म एक मिसाल बन गई।

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फिर साधना को लेकर राज खोसला ने बनाई एक और बड़ी सस्पेंस मूवी “मेरा साया”। ये कमाल की फ़िल्म है जिसे आप बार-बार देख सकते हैं, आपको पता है कि स्टोरी में आगे क्या होगा फिर भी आप इसे देखते हैं क्योंकि जिस तरह से कहानी मोड़ लेती है, जिस तरह अदालत में केस चलता है वो देखना मज़ेदार है। वो सस्पेंस एलिमेंट्स को बहुत अच्छी तरह फ़िल्म में डालते थे, ताकि दर्शक हर दृश्य से जुड़े रहें। उनके कलाकार आँखों से अभिनय करते है, ये उनकी फ़िल्मों में दिखाई देता है।

राज खोसला

टाइट क्लोज़ अप्स, और सांग पिक्चराइज़ेशन राज खोसला की फ़िल्मों की जान हैं।  जिस तरह विजय आनंद और गुरुदत्त अपने सांग पिक्चराइज़ेशन के लिए जाने जाते हैं, राज खोसला के गीत भी उसी श्रेणी में आते हैं। गानों का पिक्चराइजेशन जहाँ लाजवाब है, वहीं उनकी फ़िल्मों का संगीत भी बेमिसाल है। और ख़ास बात ये है कि संगीतकार कोई भी हो, उनकी फ़िल्मों में एक गाना ज़रुर लोकगीत पर आधारित होता था। झुमका गिरा रे, बूझ मेरा क्या नाम रे, मत जइयो नौकरिया छोड़ के, जैसे कई गीत राज खोसला की फ़िल्मों में मिल जाते हैं जो लोकसंगीत से प्रेरित हैं।

इन फ़िल्मों ने राज खोसला को women’s डायरेक्टर का ख़िताब दिलाया

“वो कौन थी”, “मेरा साया” जैसी ही कहानी को राज खोसला ने दोहराया “अनीता” में। गानों को छोड़ दें तो “अनीता” वो मैजिक क्रिएट नहीं कर पायी जो “वो कौन थी” और “मेरा साया” ने क्रिएट किया था। और ये ज़रुरी भी नहीं है कि किसी निर्देशक की हर फ़िल्म कोई शाहकार ही हो। शुरुआत से लेकर मेरा साया, अनीता तक राजखोसला की पहचान थीं सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्में लेकिन इसके बाद उनकी फ़िल्मों का फ्लेवर बदलता हुआ दिखता है। दो बदन, चिराग़, दो रास्ते, मैं तुलसी तेरे आँगन की, सनी जैसी फैमिली ड्रामा। लेकिन इन फ़िल्मों ने ही उन्हें महिला निर्देशक का दर्जा दिलाया।

आशा पारेख की इमेज ग्लैमर गर्ल की थी, “दो बदन” वो पहली फ़िल्म थी जिस से दर्शकों को पता चला कि वो ऐसी गंभीर भूमिकाएँ भी कर सकती हैं। दो बदन में अभिनय के लिए ही सिम्मी गरेवाल को सहायक अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवॉर्ड मिला। राज खोसला की “दो रास्ते” मुमताज़ के करियर की टर्निंग पॉइंट कही जा सकती है, ब्रेकथ्रू मूवी। क्योंकि इससे पहले वो या तो बी ग्रैड फ़िल्में कर रही थीं या कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दें तो A ग्रेड फ़िल्मों में ज़्यादातर साइड हेरोइन या डांसर के रोल्स ही वो कर रही थीं। “दो रास्ते” फिल्म से वो एक जाना माना नाम बन गईं।

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राज खोसला की फ़िल्म “मैं तुलसी तेरे आँगन की” बहुत महत्त्व रखती है। क्योंकि एक तो ये उनकी आख़िरी कुछ कामयाब फ़िल्मों में से है दूसरा इसमें राज खोसला ने जिस तरह से एक पत्नी और प्रेमिका के इमोशंस को उभारा वो क़ाबिले तारीफ़ है। इस फ़िल्म को बेस्ट फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया और नूतन ने इस फ़िल्म में अपने किरदार के लिए जीता बेस्ट एक्ट्रेस का पाँचवाँ फिल्मफेयर अवॉर्ड।

राज खोसला

राज खोसला ने सस्पेंस और फ़ैमिली ड्रामा के बीच “मेरा गाँव मेरा देश” और “कच्चे धागे” जैसी डकैत ड्रामा भी बनाई। “मेरा गाँव मेरा देश” को तो “शोले” जैसी फ़िल्म का आधार माना जाता है। इसके अलावा “दोस्ताना” जैसी फॉर्मूला फ़िल्म भी उन्होंने बनाई। हाँलाकि इस बीच और बाद में उनकी बहुत सी फिल्में चली नहीं। मगर इन अलग-अलग फ्लेवर की कामयाब फ़िल्मों ने ये तो साबित किया कि वो दर्शकों की पसंद नापसंद से वाक़िफ़ हैं और हर सब्जेक्ट को बड़ी ही ख़ूबी से हैंडल कर सकते हैं।

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70 – 80 का दशक राज खोसला के लिए निराशा लेकर आया। उनकी कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दिया जाए तो सिर्फ़ नाकामी ही उनके हिस्से आई। वो अपनी नाकामी पचा नहीं पाए और उन्होंने भी दूसरे कई कलाकारों फ़िल्मकारों की तरह शराब का सहारा लिया। 9 जून 1991 को वो इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। उनकी मौत के बाद उनकी बेटी सुनीता खोसला ने “राज खोसला फाउंडेशन” की स्थापना की। 2013 में उन पर एक डाक टिकट जारी किया गया। हाल ही में उन पर एक किताब भी आई है।

राज खोसला के बारे में इतना कहा जा सकता है कि उनकी फ़िल्में और उन फ़िल्मों के लिए दर्शकों का अमर प्रेम ही उनका रिवॉर्ड, अवॉर्ड सब कुछ है। क्योंकि इनकी फ़िल्म इतिहास में ही नहीं बल्कि लोगों के ज़हन में भी ख़ास जगह है और हमेशा रहेगी।