राधू करमाकर (Radhu Karmakar) वो सिनेमेटोग्राफर थे जिन्हें चार बार फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
जिस तरह गुरुदत्त की कल्पना को परदे पर उतारते थे वी के मूर्ति उसी तरह राज कपूर की फ़िल्मों के यादगार दृश्यों के पीछे था राधू करमाकर के कैमरा का कमाल। राधू करमाकर ने सिर्फ़ कैमरा की कमान ही नहीं संभाली बल्कि डायरेक्टर की कुर्सी पर भी बैठे।
राधू करमाकर ने छोटी सी उम्र में ही घर छोड़ दिया था
राधू करमाकर का असली नाम था राधिका जीबन करमाकर, उनका जन्म 3 जून 1919 को ढाका में एक ऐसे परिवार में हुआ जहाँ सोने चाँदी का कारोबार होता था। लेकिन अपने ख़ानदानी कारोबार में उनकी कतई दिलचस्पी नहीं थी, वो फोटोग्राफी में कुछ करना चाहते थे। उस समय के चलन के अनुसार उनकी शादी भी जल्दी कर दी गई थी, लेकिन जब उन्होंने घरवालों को बताया कि वो फ़िल्मों में कैमरामैन बनना चाहते हैं तो जैसे कोहराम मच गया। क्योंकि उस समय फ़िल्मों में जाना धर्म भ्रष्ट होने जैसा ही था, लेकिन राधू करमाकर ठान चुके थे और फिर क़रीब 16 साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और कोलकाता आ गए।
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शुरुआत के कुछ साल उन्होंने बहुत संघर्ष किया, फिर उन्हें राधा फ़िल्म्स में लैब असिस्टेंट का काम मिल गया। कुछ समय बाद वो ज्योतिन दास के अस्सिस्टेंट बन गए और उन्हीं से सिनेमेटोग्राफी की बारीक़ियाँ सीखी। जब 1940 में ज्योतिन दास मुंबई आये तो राधू करमाकर भी मुंबई आ गए। यहाँ उन्हें मशहूर सिनेमेटोग्राफर और निर्देशक नितिन बोस के साथ काम करने का मौक़ा मिला। 1945 की फ़िल्म ‘क़िस्मत की धनी’ से बतौर सिनेमाटोग्राफर उनका फ़िल्मी सफर शुरु हुआ। फिर उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ की ‘मिलन’, ‘मशाल’ जैसी कुछ फिल्में की।
राधू करमाकर और राजकपूर का साथ आवारा से ही शुरु हो गया था
‘मिलन’ फ़िल्म चली नहीं मगर इसके नाईट सीक्वेंसेस और हाई कंट्रास्ट लाइटिंग ने उस समय राधू करमाकर को काफ़ी शोहरत दिलाई। इसी से राज कपूर भी प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘आवारा’ के लिए राधू करमाकर को साइन कर लिया। 1951 में आई आवारा का ड्रीम सीक्वेंस (घर आया मेरा परदेसी) तो आज भी आइकोनिक है। ‘आवारा’ के बाद राधू करमाकर को कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा, इसी फ़िल्म से वो राजकपूर की टीम का हिस्सा बन गए।
जब ‘आवारा’ की शूटिंग ख़त्म हुई तो राधू करमाकर टैक्नीकलर फोटोग्राफ़ी की ट्रेनिंग लेने के लिए इंग्लैंड चले गए। वापस लौटने पर उन्होंने ‘श्री 420’ की शूटिंग शुरू की। ये वो पहली फ़िल्म थी जिसके लिए उन्हें पहली बार फिल्मफेयर का बेस्ट सिनेमेटोग्राफी का अवार्ड मिला। ये अवॉर्ड उन्हें चार बार दिया गया। ‘श्री 420’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ और ‘हिना’ के लिए जो एक तरह से राज कपूर की आख़िरी फिल्म थी और RK के साथ राधू करमाकर की भी।
राधू करमाकर के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया
1960 में राज कपूर ने एक फ़िल्म का निर्माण किया जिसका नाम था ‘जिस देश में गंगा बहती है’, उस फ़िल्म में निर्देशन की कमान संभाली राधू करमाकर ने। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ एक हिट फ़िल्म थी और इसे बेस्ट फ़ीचर फ़िल्म का नेशनल अवार्ड दिया गया। इसका म्यूजिक भी हिट था और मेन टीम भी लगभग वही थी जो राजकपूर की फ़िल्मों में अमूमन होती थी। संगीतकार, गीतकार, एडिटर और फ़िल्म में राज कपूर का किरदार भी उनकी सीधे-सादे आदमी की छवि को ही आगे बढ़ाता दिखता है।
फ़िल्म के निर्देशन में भी राज कपूर की छाप नज़र आती है और ऐसा होना एकदम सामान्य था क्योंकि राधू करमाकर सालों से राज कपूर के साथ काम कर रहे थे तो उनका प्रभाव पड़ना बहुत नार्मल था मगर इसी वजह से बहुत से लोगों ने ये कहा कि राधू करमाकर का तो बस नाम है असल में तो फ़िल्म का डायरेक्शन राज कपूर ने ही किया है। राधू करमाकर ने यूँ तो किसी को कोई जवाब नहीं दिया मगर ये बातें उन्हें हमेशा सालती रहीं। कुछ बातों का ज़िक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा “राधू करमाकर : The Painter Of Lights” में भी किया। हाँलाकि ये किताब उनकी मौत के बाद 2005 में प्रकाशित हुई थी।
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‘आवारा’ से लेकर ‘हिना’ तक राधू करमाकर RK फिल्म्स का अटूट हिस्सा रहे। राजकपूर को उन पर इतना विश्वास था कि जब उन्होंने अपनी पहली कलर फ़िल्म बनाने के बारे में सोचा तब भी सिनेमेटोग्राफी के लिए राधू करमाकर पर ही विश्वास किया। और जब वो फ़िल्म लोगों तक पहुँची तो अपनी लम्बाई के बावजूद लोगों ने इसे बहुत पसंद किया। वो थी ‘संगम’ जिसके बहुत से सीन किसी कलरफुल पोर्ट्रेट जैसे लगते हैं। इस शानदार फ़िल्म ने उन्हें बहुत पहचान और सम्मान दिलाया।
राज कपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट “मेरा नाम जोकर”, जिसकी गिनती आज कल्ट क्लासिक्स में की जाती है मगर उस समय ये बुरी तरह फ़्लॉप हो गई थी। पर उस फ़िल्म में भी राधू करमाकर की सिनेमेटोग्राफी की बहुत तारीफ़ हुई और उन्हें इसके लिए दिया गया नेशनल अवार्ड। उस समय बहुत बेहतरीन इक्विपमेंट्स नहीं होते थे, मगर इनोवेशन और एक्सपेरिमेंट्स से हर सीन को लाजवाब बनाने में जान झोंक दी जाती थी।
राधू करमाकर एक आदर्श फ़िल्म बनाना चाहते थे
RK के साथ राधू करमाकर ने सालों काम किया मगर कहते हैं उनकी तनख़्वाह में कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं हुई पर राधू करमाकर के लिए पैसा कभी इम्पोर्टेन्ट नहीं रहा। होता तो वो अपना ख़ानदानी बिज़नेस छोड़कर फ़िल्मों से नहीं जुड़ते। व्यापारी परिवार से होते हुए भी उन्हें व्यापार की बिल्कुल समझ नहीं थी इसीलिए जब उन्होंने कुछ लोगों के साथ व्यापार शुरु किया भी तो उन्हें वहाँ घाटा उठाना पड़ा क्योंकि लोगों ने उनकी साफ़दिली का फ़ायदा उठाया और खूब लूटा। कई प्रोडूसर्स तक ने उनके पैसे नहीं दिए और उन्होंने कभी मांगे भी नहीं।
अपने रीयलिस्टिक स्टाइल के लिए जाने जाने वाले राधू करमाकर के लिए जो ज़रूरी था, वो थीं फ़िल्में। फ़िल्में उनके लिए सब कुछ थीं, उनका काम, उनका पैशन, उनका शौक़, उनकी ज़िन्दगी। राधू करमाकर की पत्नी बानी करमाकर का कहना था कि उन्हें दौलत-शोहरत की ख़्वाहिश नहीं थी बस एक तमन्ना थी। वो ऑरसन वेल्स की “सिटीजन केन” जैसी एक आदर्श फिल्म बनाना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने कोशिश भी की मगर कोई फाइनेंसर नहीं मिला इसलिए उनकी ये इच्छा अधूरी रह गई।
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राज कपूर की ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’, ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’, ‘प्रेमरोग’, ‘राम तेरी गंगा मैली’ और ‘हिना’ जैसी सभी फ़िल्मों में उनका कैमरा बोलता नज़र आता है। ये सभी फ़िल्में राज कपूर के डायरेक्शन के लिए जानी जाती हैं और क्योंकि वो एक शोमैन थे ऐसे में किसी और का कंट्रीब्यूशन भले ही लोगों की ज़बान पर न आए मगर परदे पर दिखता है। चाहे ‘बॉबी’ के दृश्य हों या ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’। ‘सपनों का सौदागर’ हाँलाकि RK फिल्म्स का प्रोडक्शन नहीं थी लेकिन उसमें हीरो राज कपूर थे, उसकी सिनेमेटोग्राफी भी राधू करमाकर ने की।
राधू करमाकर को मरणोपरांत भी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया
RK की फ़िल्मों के अलावा उन्होंने दूसरे निर्माताओं के लिए भी सिनेमेटोग्राफी की, इनमें राजेंद्र कुमार की ‘लव स्टोरी’, सोहनलाल कँवर की ‘बे-ईमान’, और ‘सन्यासी’, बी. सुभाष की ‘एडवेंचर ऑफ़ टार्ज़न’, ‘डांस-डांस’ और ‘कमाण्डो’ जैसी कुछ फिल्में शामिल हैं। मगर 80 का दशक आते आते फ़िल्म इंडस्ट्री बदलने लगी थी, फ़िल्मों की क्वालिटी पर भी असर पड़ा था। उस समय उन्हें महसूस हुआ कि वो इस माहोल में काम नहीं कर पाएँगे। उन्होंने तो रिटायर होकर मथुरा-वृन्दावन जाकर बसने का मन भी बना लिया था, मगर उन्हीं दिनों एक ऑफर आया जिसे वो ठुकरा नहीं सके।
RK स्टूडियो के प्रोडक्शन मैनेजर थे मेजर अशोक कौल जो अपनी पहली इंडिपेंडेंट फ़िल्म बना रहे थे और वो चाहते थे कि राधू करमाकर उसमें कैमरा की कमान संभालें। बात यारी-दोस्ती की थी तो उन्होंने सोचा ये आख़िरी फ़िल्म और कर लेते हैं फिर रिटायरमेंट की लाइफ जियेंगे। ये फ़िल्म थी ‘परमवीर चक्र’ जो उनकी आख़िरी फ़िल्म रही। इस फ़िल्म के लिए उन्हें मरणोपरांत 42 वें राष्ट्रीय पुरस्कारों में स्पेशल जूरी अवार्ड देकर सम्मानित किया गया।
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बेहद प्रतिभाशाली होते हुए भी राधू करमाकर अपनी तारीफ़ से दूर रहते थे। बहुत सिम्पल, और धार्मिक क़िस्म के व्यक्ति थे, किताबें पढ़ना, रोज़ एक्सरसाइज करना, उनका रूटीन था। नया सीखने और अपनाने के लिए वो हमेशा तैयार रहते थे। आख़िरी दौर में वो कई बीमारियों से घिरे रहे। उन्होंने ने लैब असिस्टेंट के तौर पर शुरुआत की थी, और 30 के दशक में फ़िल्म निगेटिव्स धोने के लिए सिल्वर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड का इस्तेमाल होता था। उस दौरान उन केमिकल्स से निकलने वाले धुँए की वजह से उनके फेफड़े ख़राब हो गए थे। बाद में उनकी एक आँख में मोतियाबिंद भी हो गया था।
5 अक्टूबर 1993 को एक कार एक्सीडेंट में राधू करमाकर की मौत हो गई। राधू करमाकर जैसे लोग परदे के पीछे के जादूगर होते हैं जिनके बारे में अक्सर लोग नहीं जान पाते। इसीलिए उनके योगदान को समझना भी आसान नहीं होता। लेकिन अगर परदे के पीछे काम करने वाले न हों तो कोई फ़िल्म परदे तक पहुँच ही नहीं पाएगी। इसलिए उन लोगों के कंट्रीब्यूशन की इम्पोर्टेंस को समझना और याद रखना ज़रूरी है।