ये है क़ुतुब मीनार …. अरे वही क़ुतुब मीनार जो आजकल न्यूज़ में छाई हुई है कि ये असल में है क्या ? क़ुतुब मीनार या विष्णु स्तम्भ ?
मैं सोचती हूँ कि क्या हम इतने बेफ़िक्र हो चुके हैं या हमारी ज़िंदगियाँ इतनी आसान हो गई है कि कोई और मसला बचा ही नहीं है कि हम मुश्किलों को तलाश रहे हैं। कि “आ बैल मुझे मार”…. या फिर खूंखार बैल का ध्यान भटकाने के लिए ज़बरदस्ती लाल कपड़ा लहरा रहे हैं ! anyway मैं इस मसले पर कुछ नहीं बोलूंगी no comments…. ये सोचना आपका काम है। मैं बस आपको क़ुतुब मीनार की सैर कराऊँगी।
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क़ुतुब मीनार परिसर
क़ुतुब मीनार का नाम पहली बार तब सुना था जब एक दिन चित्रहार में एक गाना आया “दिल का भंवर करे पुकार प्यार का राग सुनो” तब पता चला कि ये गाना क़ुतुब मीनार के अंदर फ़िल्माया गया है। उस दिन ये जानकर बहुत एक्ससाइटमेंट हुआ था कि क़ुतुबमीनार दिल्ली में ही है और हम उसे देखने जा सकते हैं। उसके बाद शायद स्कूल वाले पिकनिक पर वहाँ ले गए थे पर उसकी कोई याद बाक़ी नहीं है। उस ज़माने में स्कूल वाले पिकनिक पर कुछ गिनी-चुनी जगहों पर ही तो लेकर जाते थे – चिड़ियाघर, लाल क़िला, क़ुतुब मीनार, पुराना क़िला,जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राजघाट जैसी कुछ पर्टिकुलर जगह हुआ करती थीं या फिर म्यूजियम।
चांस की बात है कि कुछ वक़्त पहले ही मैं और मेरी एक दोस्त वहाँ पहुँच गए। दरअस्ल हमें जाना कहीं और था मगर वो गाना है न चलती का नाम गाड़ी फ़िल्म का – “जाना था जापान पहुँच गए चीन समझ गए न” तो हम भी पहुँच गए क़ुतुब मीनार।
सालों बाद क़ुतुब मीनार जाकर बहुत अच्छा लगा। बहुत कुछ बदला-बदला था इन बेटर सेन्स, लेकिन पुरानी यादें कहाँ पीछा छोड़ती हैं तो मुझे याद आया कि क़ुतुब मीनार की जो आख़िरी याद है वो कॉलेज के बाद की है जब मेरी एक दोस्त का एग्जाम था तो मैं और पापा उसके साथ गए थे। एग्जाम के बाद हम तीनों क़ुतुब मीनार चले गए थे घर से खाना पैक करा के ले गए थे वो हमने वहीं खाया था।
तब वहाँ खाने-पीने का सामान ले जाने की इजाज़त थी, मगर अब नहीं है। शायद कोरोना की वजह से….. एक तरह से ठीक भी है क्योंकि हमारी आदतें आज भी बदली कहाँ है, जहाँ मौक़ा मिलता है गंदगी फैला देते हैं। पहले बहुत से लोग वहाँ घर से खाना लेकर पिकनिक मानने आते थे। पर अब वहां खाना ले जाना allowed नहीं है। अब बहुत कुछ ऐसा है जो allowed नहीं है। उसके बारे में बताऊँ उससे पहले आप ज़रा सोचिये कि क़ुतुब मीनार के नाम पर आपको क्या याद आता है ?
अक्सर लोगों को सिर्फ़ दो चीज़ें याद आती हैं। एक तो मीनार और दूसरा अशोक की लाट। लेकिन वहाँ और बहुत कुछ है जिसे देखने में पूरा दिन बिताया जा सकता है। जैसे इमाम ज़ामिन का मक़बरा, अलाई दरवाज़ा। आधी-अधूरी बनी अलाई मीनार। जिसे दूर से देखने पर बस टूटे-फूटे पत्थर ही दिखेंगे लेकिन जब आप पास जाएँगे तो और पास जाने की इच्छा होगी। सीढ़ियां चढ़ने के बाद जो खुला दरवाज़ा है ऊपर चढ़कर उससके अंदर झाँकने की ख़्वाहिश जागेगी। लेकिन ऊपर चढ़ना नॉट allowed .
इल्तुतमिश का मक़बरा है जो चारों ओर दीवारों से तो घिरा है मगर इसकी छत नहीं है, कहते हैं छत बनाने की कोशिश की गई थी मगर छत टिकी ही नहीं इसलिए ये मक़बरा बिना छत का ही रह गया। वहीँ से सूरज की रौशनी यहाँ पड़ती है और सफ़ेद संगमरमर और ज़्यादा चमकने लगता है।
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वहाँ पर क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, खिलजी का मदरसा, मक़बरा और एक कुएँ के अलावा क़ब्रिस्तान भी है। साथ ही गार्डन एरिया में लगी सेंडरसन की सन-क्लॉक जिससे उस समय में समय का अंदाज़ा लगाया जाता था। इसके अलावा मेजर स्मिथ की छतरी, जिसके उखड़े और टूटे हुए पत्थरों को बदला जा रहा था।
सालों पहले जब कभी आप गए होंगे तो आपने भी क़ुतुब मीनार में लगे लौह स्तम्भ से सट कर पीठ की तरफ़ से दोनों हाथ मिलाने की कोशिश ज़रुर की होगी। सब लोग ये कोशिश करते थे ताकि ये जान सकें कि वो क़िस्मतवाले हैं या नहीं क्योंकि ऐसा कहा जाता था कि जिसके हाथों की पकड़ में वो लोहे का पिलर आ गया वो बहुत लकी इंसान है। इसी को आज़माने के लिए लाइन लग जाती थी। थी इसलिए कह रही हूँ कि अब ऐसा कोई चांस ही नहीं है अब आप उसे छू तो सकते है मगर उसके क़रीब नहीं जा सकते लोहे की ग्रिल से उसे कवर कर दिया गया है।
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अच्छा आपको पता है कि क़ुतुब मीनार धीरे-धीरे एक एंगल पर झुक रही है? मुझे भी वहाँ जाकर पता चला, वहां किसी विभाग की एक टीम आई हुई थी वो लोग कुछ इंस्ट्रूमेंट्स लगाकर उसके झुकने की रफ़्तार नज़र रख रहे थे। इससे पहले मुझे पीसा की झुकती मीनार के बारे में ही पता था।
क़ुतुब मीनार की ख़ूबसूरती अपने आप में बेमिसाल है। इतनी ऊंची मीनार को जब नीचे से देखते हैं तो आँखें तो पूरा देख लेती हैं मगर फ़ोन के कैमरा में पास से पूरी मीनार समाती ही नहीं है। सोचा था कभी तो उसका दरवाज़ा खुलेगा और ऊपर चढ़कर देखने का मौक़ा मिलेगा। मगर अब तो उसे छूने का भी चांस नहीं रहा। क्योंकि इसे भी लोहे के जाल से कवर कर दिया गया है।
इससे पहले कि आप इसे देखने का मौक़ा भी गवाँ दें। पहली फुर्सत में वहाँ जाने का प्लान बना लीजिए। सच झूठ/ अफ़वाह/हक़ीक़त से परे भी कुछ होता है। वो है अनुभव, बिना किसी पूर्वाग्रह के। किसी भी पुराने स्मारक के खंडहर देखने में शायद एक जैसे लगते हों मगर वहां जाकर उन खंडहरों को छूने का, महसूस करने का, वहां के माहौल में झाँकने का अनुभव एकदम अलग होता है। उस अनुभव पर किसी तरह की अफ़वाह या तथ्य की धूल नहीं पड़नी चाहिए।
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