नूरजहाँ और ज़ुबैदा

नूरजहाँ और ज़ुबैदा ऐसे नाम हैं जिनके बारे में आम फ़िल्म दर्शक बहुत ज़्यादा नहीं जानता। नूरजहाँ का नाम आते ही मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ का नाम याद आता है। ज़ुबैदा नाम से शायद बहुत लोग वाक़िफ़ हैं लेकिन ज़ुबैदा एक हैं या दो और उनमें क्या अंतर है, इस विषय में काफ़ी उलझन रहती है। इसी पर रौशनी डालेंगे इस पोस्ट में, तो पहले बात करते हैं नूरजहाँ की।

नूरजहाँ – मलिका-ए-तरन्नुम, क्या फ़िल्म इतिहास में ये अकेली नूरजहाँ हैं ?

गायिका-अभिनेत्री नूरजहाँ के नाम से सभी वाक़िफ़ हैं जिन्हें मलिका-ए-तरन्नुम कहा जाता है। इनका असली नाम था अल्लाह राखी वसाई जो बचपन से ही गाने लगी थीं। जब उन्होंने स्टेज पर काम करना शुरू किया तो उन्हें नाम मिला बेबी नूरजहाँ। स्टेज के अलावा कलकत्ते में बनने वाली कई पंजाबी फ़िल्मों में उन्होंने बतौर बाल कलाकार अभिनय किया और गाने भी गाये जो बहुत ही मशहूर हुए। बतौर हेरोइन उनकी पहली फ़िल्म आई 1942 में – “ख़ानदान” नाम की ये फ़िल्म उस समय की एक बड़ी हिट थी।

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इसके बाद नूरजहाँ बम्बई आ गईं जहाँ उन्होंने “बड़ी माँ”, “ज़ीनत”, “गाँव की गोरी”, “मिर्ज़ा साहिबाँ”, और “जुगनू” जैसी कई मशहूर फ़िल्मों में काम किया। विभाजन के बाद वो पाकिस्तान चली गई और वहाँ की फ़िल्मी दुनिया का एक मशहूर ओ मारूफ़ नाम बनी। मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ ने जिस फ़िल्म “मिर्ज़ा साहिबाँ” में काम किया वो आई थी 1947 में लेकिन 1933 में भी “मिर्ज़ा साहिबाँ” नाम की एक फ़िल्म आई थी और उसमें भी नूरजहाँ नाम की अभिनेत्री ने काम किया था लेकिन ये दूसरी नूरजहाँ थीं।

नूरजहाँ सीनियर

नूरजहाँ सीनियर का असली नाम था “ज़ेबुन्निसा” लेकिन जब उन्होंने अभिनय करना शुरू किया उस समय इंडस्ट्री में पहले से ही कई ज़ेबुन्निसा थीं, इसीलिए इनका नाम नूरजहाँ रखा गया। सीनियर नूरजहाँ का ताल्लुक़ लाहौर की तवायफ़ों के ख़ानदान से था और उन्होंने गायन की बाक़ायदा ट्रेनिंग ली थी। सीनियर नूरजहाँ बहुत सुन्दर थीं और फ़िल्मों में इनकी शुरुआत हुई थी 1930 की साइलेंट फ़िल्म “गुलनार” से।

नूरजहाँ सीनियर की पहली टॉकी थी 1933 में आई “मिर्ज़ा साहिबाँ” उसके बाद उन्होंने क़रीब 57 टॉकीज़ (पतित पावन, क़िस्मत की कसौटी, वामन अवतार, देल्ही एक्सप्रेस, रंगीला नवाब, तोप का गोला) में अभिनय करने के साथ-साथ ख़ुद पर फ़िल्माए गाने भी गाये। हाँलाकि 1937 के बाद उन्हें बहुत अच्छे रोल्स नहीं मिले। नूरजहाँ सीनियर ने जिन फ़िल्मों में अपनी आवाज़ दी वो हैं – 1935 की कारवाँ-ए-हुस्न, और स्त्री धर्म, 1936 की रोमांटिक इंडिया, 1937 की परख, 1938 की रॉयल कमांडर और 1941 की राधिका।

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1935 की फ़िल्म आज़ादी समेत कई ऐसी फ़िल्में आईं, जिनमें दोनों नूरजहाँ ने काम किया, और इतने सालों बाद ये कहना वाक़ई मुश्किल है कि किस फ़िल्म में किस नूरजहाँ ने गीत गाए। ऐसा अनुमान है कि 1941 की फ़िल्म “रेड सिग्नल”, “ससुराल”, “उम्मीद”, 1942 में आई “धीरज”, “चाँदनी”, 1946 में आईं “महाराणा प्रताप”, “सोफ़िया” और 1947 की “आबिदा” में सीनियर नूरजहाँ ने गीत गाए थे।

कहते हैं कि नूरजहाँ सीनियर एक अच्छी ड्राइवर थीं तो फ़िल्मों से रिटायर होने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए बम्बई के एक ड्राइविंग स्कूल में लेडी ड्राइविंग इंस्ट्रक्टर के तौर पर काम किया। उसके बाद उनका क्या हुआ कोई नहीं जानता, और जानते भी कैसे ? तब तक फ़िल्मी पटल और लोगों के ज़हन पर दूसरी ज़्यादा मशहूर नूरजहाँ का नाम जो छप चुका था।
नूरजहाँ और ज़ुबैदा

वैसे एक नूरजहाँ और भी हुईं। ये नूरजहाँ 30-40 के दशक के एक्टर-प्रोडूसर मज़हर ख़ान की बेटी थीं। शादी के बाद वो कहलाईं नूरजहाँ ओबेरॉय मगर उनकी शादी बहुत ज़्यादा दिनों तक चली नहीं। फ़िल्मों में भी वो बहुत कम नज़र आईं इसलिए उनके बारे में बहुत ज़्यादा मालूमात नहीं है। सिवाय इसके कि कोविड के दौरान वो इस दुनिया को अलविदा कह गईं।

फ़िल्म इतिहास की कुछ खिड़कियाँ उस समय खुली जब भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के 100 साल पूरे हुए और कई नाम जिनके बारे में जानते पहले भी थे मगर उस समय से ज़्यादा खोजबीन शुरु हो गई। इसकी वजह इंटरनेट क्रांति भी कही जा सकती है लेकिन आज के डिजिटल दौर में उन नामों को लेकर क्लैरिटी मिलने की बजाए, उलझनें और भी बढ़ती चली गईं। ऐसे ही नाम है नूरजहाँ और ज़ुबैदा।

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ज़ुबैदा पहली भारतीय टॉकी की हेरोइन थीं, मगर इंडस्ट्री में एक और ज़ुबैदा भी हुईं। लेकिन जब आप इंटरनेट पर ढूंढने बैठेंगे तो इतना confusion होता है कि पता ही नहीं चलता कि ये दोनों एक ही अभिनेत्री थीं या अलग-अलग। ये उलझन शायद इसलिए भी है क्योंकि दोनों में कई बातें कॉमन हैं। दोनों ही अभिनेत्रियाँ थीं, दोनों ही मुस्लिम थीं, दोनों ने ही हिन्दू धर्म अपनाया और बड़े घरानों में शादी की। लेकिन हैरत तब होती है जब बड़े-बड़े फ़िल्मी जानकार भी इनको एक बना देते हैं, कई बार तो इन की तस्वीरों को भी मिक्स कर दिया जाता है।

ज़ुबैदा धनराजगीर

पहली भारतीय टॉकी “आलमआरा” में जिस अभिनेत्री ज़ुबैदा ने काम किया था वो फ़ातमा बेगम की बेटी थीं। वही फ़ातमा बेगम थीं जिन्हें भारत की पहली महिला फ़िल्म निर्देशक होने का रुतबा हासिल है। फ़ातमा बेगम की तीसरी बेटी थीं ज़ुबैदा, जिन का जन्म 1911 में हुआ। ज़ुबैदा ने 12 साल की उम्र में कोहिनूर स्टूडियो की फ़िल्म ‘वीर अभिमन्यु’ (1922) से अपने अभिनय सफ़र की शुरुआत की। 1924 की मूक फ़िल्म “गुल बकावली” से बतौर हेरोइन उन्होंने डेब्यू किया।

कहा जाता है कि उन्होंने कोहिनूर और लक्ष्मी स्टूडियो के साथ बेहतरीन फ़िल्में दीं। 1925 में, उन की 9 फ़िल्में रिलीज़ हुईं थीं। अपने पूरे फ़िल्मी करियर में उन्होंने क़रीब 41 साइलेंट फ़िल्मों में काम किया जिनमें उनकी माँ द्वारा निर्देशित फ़िल्में – ‘बुलबुल-ए-परिस्तान’ (1926), ‘हीर रांझा’ (1928) और ‘मिलन दीनार’ (1929) भी शामिल हैं। लेकिन उन्हें याद किया जाता है 1931में आई पहली भारतीय टॉकी “आलमआरा” की हेरोइन के तौर पर।

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ज़ुबैदा ने 1934 में, फिल्म निर्माता नानूभाई वकील के साथ मिलकर, महालक्ष्मी सिनेटोन की शुरुआत की और  ‘गुल सनोबर’ (1934) और ‘रश्क-ए-लैला’ (1934), जैसी हिट फ़िल्में दीं। उनकी सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में से एक असमिया भाषा की पहली फिल्म ‘देवदास’ भी मानी जाती है, जो 1937 में रिलीज़ हुई। 1935 में ज़ुबैदा ने हिन्दू धर्म अपनाकर हैदराबाद के बेहद अमीर जागीरदार राजा धनराजगीर नरसिंग गीरजी ज्ञान बहादुर से शादी कर ली, और कहलाई ज़ुबैदा धनराजगीर।

नूरजहाँ और ज़ुबैदा

ज़ुबैदा धनराजगीर के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उसके अनुसार उन्होंने शादी के बाद फ़िल्मों को अलविदा कह दिया था और घर- गृहस्थी में बिजी हो गईं थीं। फ़िल्म इंडस्ट्री के साथ-साथ दर्शक भी उन्हें भूल गए लेकिन 1981 में जब हिंदी टॉकी सिनेमा के 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य पर मुंबई में एक बड़ा आयोजन किया गया तो उस फंक्शन में इंडस्ट्री की सभी बड़ी हस्तियों के साथ-साथ आलमआरा की हेरोइन “ज़ुबैदा” भी शामिल हुई थीं।

फर्स्ट इंडियन टॉकी आलमआरा का कोई प्रिंट अब मौजूद नहीं है लेकिन फंक्शन में ज़ुबैदा की आवाज़ में एक गीत की रिकॉर्डिंग सुनवाई गई थी, जिसे organisers ने फंक्शन से पहले ज़ुबैदा के घर जाकर उनसे एक बातचीत के दौरान रिकॉर्ड किया था। ये एक ऐतिहासिक रिकॉर्डिंग है, हिंदी सिनेमा की पहली सवाक फ़िल्म का गीत, ख़ुद फ़िल्म की हेरोइन ज़ुबैदा की आवाज़ में। ज़ुबैदा का निधन 21 सितम्बर 1988 को हुआ।

उन फ़िल्मों की सूची जिनमें ज़ुबैदा नाम मिलता है और ये माना जाता है कि इन फ़िल्मों में जिस अभिनेत्री ने काम किया वो पहली भारतीय टॉकी “आलमआरा” में काम करने वाली ज़ुबैदा थीं।

  • 1931 – आलम आरा
  • 1931 – रोमांटिक प्रिंस
  • 1931 – वीर अभिमन्यु
  • 1932 – मीराबाई
  • 1932 – सुभद्रा हरण
  • 1932 – ज़रीना
  • 1933 – बुलबुल ए पंजाब
  • 1933 – महाभारत
  • 1933 – पांडव कौरव
  • 1933 – अदल-ए-जहाँगीर
  • 1934 – गुलसनोबर
  • 1934 – रश्क ए लैला
  • 1934 – सेवा सदन
  • 1935 – बीरबल की बेटी
  • 1936 – माँ
  • 1936 – मिस्टर एंड मिसेज बॉम्बे
  • 1939 – ईमानदार

ज़ुबैदा (विद्या रानी)

दूसरी ज़ुबैदा वो हैं जो बेहद ख़ूबसूरत थीं और जिनकी ट्रैजिक लाइफ पर 2001 में फ़िल्म ज़ुबैदा बनी थी। अपने ज़माने की मशहूर गायिका फ़ैज़ा बाई और क़ासिमभाई मेहता की एकलौती संतान के रूप में जन्मी ज़ुबैदा के फ़िल्मी करियर की शुरुआत 1937 में आई “औरत की ज़िंदगी” और “किसकी प्यारी” नाम की फ़िल्मों से हुई। इन फ़िल्मों में ज़ुबैदा बानो नाम मिलता है लेकिन यही नाम इससे पहले की 3 और फ़िल्मों में भी मिलता है, लेकिन ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ये यही ज़ुबैदा थीं या कोई तीसरी ज़ुबैदा भी थीं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते!

  • 1934 – ननद भोजाई
  • 1934 – नन्द के लाला
  • 1935 – गुलशन ए आलम
  • 1937 – औरत की जिंदगी
  • 1937 – किसकी प्यारी

ज़ुबैदा (विद्या रानी) की शादी घरवालों की मर्ज़ी के मुताबिक़, पिता की पसंद से की गई थी। उस शादी से उन्हें एक बेटा हुआ, जिन्हें हम ख़ालिद मोहम्मद के नाम से जानते हैं। जो एक पत्रकार, संपादक, फिल्म समीक्षक, पटकथा लेखक और फिल्म निर्देशक हैं। उन्होंने ही 2001 में आई फ़िल्म ज़ुबैदा की स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले लिखा था। ज़ुबैदा के पति पार्टीशन के बाद पाकिस्तान चले गए लेकिन ज़ुबैदा पाकिस्तान नहीं जाना चाहती थीं इसीलिए उनका तलाक़ हो गया। ऐसा अनुमान है कि तलाक़ के बाद उन्होंने फिर से फिल्मों में काम करना शुरू किया होगा।नूरजहाँ और ज़ुबैदा

जो जानकारी उपलब्ध है उसके अनुसार जिन दिनों ज़ुबैदा, फ़िल्म “निर्दोष अबला” में काम कर रही थीं, उसी दौरान उनकी मुलाक़ात हुई जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह से हुई और दोनों के बीच मोहब्बत पनपने लगी। दोनों शादी करना चाहते थे मगर महाराजा पहले से शादीशुदा थे, इधर ज़ुबैदा की माँ भी इस शादी के पक्ष में नहीं थीं। लेकिन ज़ुबैदा की ज़िद पर वो इस शर्त पर राज़ी हो गईं कि ज़ुबैदा का बेटा उनके साथ रहेगा। अंदाज़ा है कि शायद इसी वजह से निर्दोष अबला फ़िल्म ज़ुबैदा ने छोड़ दी होगी क्योंकि इस नाम की फ़िल्म तो है मगर उसमें ज़ुबैदा का नाम नहीं मिलता।

परेशानी ये है कि हर इतिहासकार, शोधकर्ता के अपने दावे हैं इसलिए सच क्या है ये समझना थोड़ा मुश्किल है। दिसम्बर 1950 में ब्यावर के आर्य समाज मंदिर में ज़ुबैदा और महाराजा हनवंत सिंह ने गुप-चुप शादी कर ली। शादी के बाद ज़ुबैदा ने हिन्दू धर्म अपनाया और उनका नाम हो गया विद्या रानी। इस शादी से भी उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था राव राजा हुकुम सिंह। कहते हैं कि राजघराने ने कभी ज़ुबैदा को दिल से स्वीकार नहीं किया। और फिर 1952 में एक प्लेन क्रैश में ज़ुबैदा और महाराजा दोनों की मृत्यु हो गई।

नूरजहाँ और ज़ुबैदा

ज़ुबैदा नाम को लेकर ही उलझन नहीं है बल्कि इस खोजबीन के दौरान ये उलझन भी पैदा हो गई कि क्या कोई तीसरी ज़ुबैदा भी थीं ? इस उलझन का सबब ये है कि अगर आलमआरा फेम ज़ुबैदा ने 1935 तक फ़िल्मों में काम किया और दूसरी ज़ुबैदा ने सिर्फ़ 3 से 5 फ़िल्मों में काम किया तो 40-50 के दशक की फ़िल्मों में जिस ज़ुबैदा का नाम मिलता है वो कौन है आलमआरा वाली ज़ुबैदा या कोई और ?

40-50 के दशक की जिन फ़िल्मों में ज़ुबैदा नाम मिलता है वो फ़िल्में इस प्रकार हैं –

  • 1946 – मौहब्बत की दुनिया
  • 1946 – पनिहारी
  • 1946 – पराये बस में
  • 1947 – एक रोज़
  • 1948 – नेक दिल
  • 1952 – उषा किरण
  • 1953 – फरेब

फ़िल्मों में एक ही नाम की कई हस्तियाँ होना आम बात है। जब दो या तीन एक ही नाम की हस्तियां अलग-अलग फ़िल्मी क्षेत्र से ताल्लुक़ रखती हैं, और सभी मशहूर भी हों तो ग़लतफ़हमी नहीं होती क्योंकि उनकी अचीवमेंट्स के बारे में सभी को पता होता है। जैसे अभिनेत्री गीता बाली, गायिका गीता दत्त, अभिनेत्री आशा पारेख, आशालता और  गायिका आशा भोसले, अभिनेता शम्मी कपूर और अभिनेत्री शम्मी जो शम्मी आंटी के नाम से मशहूर हुई। उनका असली नाम नरगिस था, लेकिन आलरेडी एक नरगिस फ़िल्मों में थीं और दोनों का दौर भी सेम था इसलिए उन्होंने अपना नाम बदला।

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शम्मी नाम को लेकर भ्रम की स्थिति इसलिए नहीं हुई क्योंकि एक अभिनेता थे और एक अभिनेत्री। दूसरा जिस दौर में ये दोनों आए उस दौर की सारी जानकारी आज मौजूद है। उलझन उस दौर को लेकर है जिसकी जानकारी बहुत कम उपलब्ध है उसमें भी नाम जब बिलकुल ही एक जैसे हों तो ग़लतफ़हमी होना लाज़मी है। जैसे शमशाद बेगम (Not So famous) या ज़ुबैदा (Vidya Rani) या नूरजहाँ senior, या ख़ुर्शीद ऐसे कितने ही नाम फ़िल्म इतिहास में मिल जायेंगे। उम्मीद करते हैं कि अब ज़ुबैदा और नूरजहां नाम को लेकर कोई ग़लतफ़हमी नहीं रही होगी।