नाम एक फ़नकार अनेक

नाम एक फ़नकार अनेक सीरीज़ का ये तीसरा पार्ट है। एक जैसे नामों की लिस्ट में ऐसे नाम जुड़ते ही जा रहे हैं, जिनकी पहचान को लेकर लोग अक्सर उलझ जाते हैं। इस पार्ट में बात करेंगे दो महत्वपूर्ण नामों की ग़ुलाम मोहम्मद और कनु रॉय।

जब जब पाकीज़ा फ़िल्म के गीत सुनाई देते हैं तब तब संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद का नाम याद आता है, ये उनका आख़िरी शाहकार था। और ग़ुलाम मोहम्मद नाम सुनकर सिर्फ़ संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ही याद आते हैं, लेकिन ग़ुलाम मोहम्मद नाम के एक एक्टर और एक सिंगर भी हिंदी सिनेमा में हुए हैं हाँ उनके बारे में ज़्यादा मालूमात लोगों को नहीं है। तो पहले गायक और अभिनेता ग़ुलाम मोहम्मद की ही बात करते हैं।

नाम एक फ़नकार अनेक – ग़ुलाम मोहम्मद

गायक ग़ुलाम मोहम्मद (नाम एक फ़नकार अनेक)

गायक ग़ुलाम मोहम्मद के बारे में ये तो तय है कि वो अभिनेता और संगीतकार से अलग व्यक्ति थे, मगर उनकी पहचान के लिए उनकी कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है। ये भी एक वजह हो सकती है कि लोग उनके बारे में कुछ नहीं जानते और जो जानते हैं वो जानकारी भी बहुत कम है क्योंकि उनका करियर बहुत ज़्यादा लम्बा नहीं रहा। उन्होंने कोई 7 फ़िल्मों में प्लेबैक दिया, 1957 की ‘कितना बदल गया इंसान’, 1958 में आई “अजी बस शुक्रिया” और “मधुमती”, 1959 की “हीरा मोती”, 1960 की “एयर मेल”, 1966 की “बीवी और मकान” और 1973 की “गुरु और चेला” ।

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निम्नलिखित गीतों में गायक ग़ुलाम मोहम्मद की आवाज़ सुनाई देती है –

  • कितना बदल गया इंसान – पाँव बढ़ाता चल तू शोर मचाता चल – हेमंत कुमार के साथ गाया। ये फ़िल्म 1954 की अमेरिकन फ़िल्म “सेवन ब्राइड्स फॉर सेवन ब्रदर्स” पर बेस्ड थी जिस पर बाद में “सत्ते पे सत्ता” फ़िल्म बनी।
  • अजी बस शुक्रिया – कड़की तेरा ही नाम क्लर्की – आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी के साथ।
  • मधुमती – कांचा ले काँची ले, नए नए राजा की नई टकसाल – इस गीत में उनके साथ आशा भोसले और सबिता बैनर्जी की आवाज़ें भी हैं। लेकिन इसे फ़िल्म से हटा दिया गया था और यह बहुत ही कम समय के लिए फिल्म में आता है। उस समय जब गांव के लोग खाना खाने जा रहे हैं और महिलाओं का समूह इसे गा रहा है, दिलीप कुमार और जॉनी वॉकर खिड़की से बाहर देख रहे हैं।
  • हीरा मोती – तू दुनिया में सर को उठा के चल
  • एयर मेल – जादूगर मैं निराला, मुल्क मेरा बंगाला – सुमन कल्याणपुर के साथ।
  • बीवी और मकान – जब दोस्ती होती है – मन्ना डे, हेमंत कुमार, और बलबीर के साथ गाया।
  • गुरु और चेला – ये सुर्ख़ियाँ ये लालियाँ – आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी के साथ।

अभिनेता ग़ुलाम मोहम्मद (नाम एक फ़नकार अनेक)

अभिनेता ग़ुलाम मोहम्मद 30-40 के दशक में फ़िल्मी परदे पर नज़र आए। 1932 में उनकी पहली फ़िल्म आई “गुल-ए-बकावली” लेकिन उन्हें असल लोकप्रियता मिली फ़िल्म “डाकू की लड़की” से। 1932 से 1938 तक उन्होंने इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी के साथ काम किया। इसके बाद लाहौर के मशहूर फ़िल्ममेकर दलसुख पंचोली ने उन्हें लाहौर बुला लिया।

1932 से 1935 तक की अभिनेता गुलाम मोहम्मद की फ़िल्में

  • 1932 – गुल-ए-बकावली
  • 1932 – माधुरी
  • 1932 – नेक अबला
  • 1932 – नीति विजय
  • 1933 – डाकू की लड़की
  • 1933 – नक्श-ए-सुलेमान
  • 1933 – सौभाग्य सुन्दरी
  • 1933 – सुलोचना
  • 1933 – यहूदी की लड़की
  • 1934 – आजकल
  • 1934 – ग़ाफ़िल मुसाफ़िर
  • 1934 – गुल सनोबर
  • 1934 – पिया प्यारे
  • 1935 – काला सवार
  • 1935 – नया ज़माना
  • 1935 – रात की बात

लाहौर में उन्होंने “ख़ानदान”, “ज़मींदार”, और “शीरीं फ़रहाद” जैसी कुछेक फ़िल्में कीं। 1945 में आई “शीरीं फ़रहाद” बहुत बड़ी फ्लॉप रही और फिर वो वापस बम्बई आ गए। यहाँ उन्होंने “एक दिन का सुल्तान”, “सन्यासी”, “बैरम ख़ान”, “हमजोली”, “राजपूतानी”, “छीन ले आज़ादी”, “जुगनू”, “लाखों में एक”, “हीर-राँझा”, “परदेसी मेहमान”, और “विद्या” जैसी कई फ़िल्मों में काम किया। अपने समय में उनकी काफ़ी डिमांड थी और उन्होंने कुल मिलाकर 65 भारतीय फ़िल्मों में अभिनय किया। 1949 के आस-पास वो पाकिस्तान चले गए और वहाँ भी बहुत सी फ़िल्मों में अभिनय करते नज़र आए। लेकिन जिस ग़रीबी में उनका जन्म हुआ था उसी ग़रीबी में उनका निधन हो गया।

नाम एक फ़नकार अनेक

संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद (नाम एक फ़नकार अनेक)

संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद 1924 में बम्बई आये थे, यहाँ उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। वो संगीतकार उस्ताद झंडे ख़ाँ, रफ़ीक़ ग़ज़नवी और अनिल बिस्वास के सहायक रहे। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात संघर्ष कर रहे नौशाद से हुई, और तभी से दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। बाद के दौर की फ़िल्मों में संगीतकार नौशाद के संगीत में जो ढोलक और तबला का कमाल दिखता है उसके पीछे ग़ुलाम मोहम्मद का ही हाथ माना जाता है। क्योंकि तबला, ढोलक, पखावज, मटका, ढफ, खंजीरा और चिमटा बजाने में उन्हें महारत हासिल थी। ये तो सभी जानते हैं कि ग़ुलाम मोहम्मद नौशाद के असिस्टेंट रहे लेकिन एक ज़माना वो भी था जब नौशाद ग़ुलाम मोहम्मद के सहायक रहे थे। 

1937 की फ़िल्म बाँके सिपाही से बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनके फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत हुई। इसके बाद मेरा ख़्वाब (1943), मेरा गीत (1946), डोली (1947), टाइगर क्वीन (1947), गृहस्थी (1948), पगड़ी (1948), पराई आग (1948), दिल की बस्ती (1949), शायर (1949) जैसी कई फ़िल्मों में ग़ुलाम मोहम्मद का म्यूज़िक सुनाई दिया। लेकिन 1950 में आई “परदेस” उनकी पहली सबसे बड़ी हिट फिल्म थी और अकेली ऐसी फिल्म भी जिसके शोख़ गाने संजीदा गीतों से ज़्यादा मशहूर हुए।

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परदेस के अलावा “लैला मजनूँ”, और “दिल-ए-नादाँ” के गीत भी बहुत मशहूर हुए मगर “मिर्ज़ा ग़ालिब” एक मील का पत्थर साबित हुई, इसके गीतों ने उस वक़्त धूम मचा दी थी। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि फ़िल्मेकर्स उनके टैलेंट का सही इस्तेमाल नहीं कर सके। और इतने मधुर गीत देने के बाद भी काफ़ी वक़्त तक उन्हें काम नहीं मिला। लेकिन जब सालों बाद वही मधुर संगीत और क्लासिक धुनें लेकर फ़िल्म “शमाँ” आई तो इस के गीतों ने अपार लोकप्रियता पाई।

हाँलाकि उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति “पाकीज़ा” ही है, म्यूजिकल मास्टरपीस। लेकिन ये इतनी देर से रिलीज़ हुई कि वो कामयाबी देखने से पहले ही ग़ुलाम मोहम्मद इस दुनिया से चले गए। इस फ़िल्म का एक एक गाना लाजवाब है, उन्होंने इसमें अपना दिल और आत्मा सब डाल दी थी। भले ही उनका जीवन संघर्ष में गुज़रा लेकिन आज भी अगर ग़ुलाम मोहम्मद का नाम आते ही सिर्फ़ एक संगीतकार का चेहरा ज़हन में उभरता है तो इसे उनकी कामयाबी ही कहा जाएगा।

नाम एक फ़नकार अनेक – कनु रॉय

रॉय कन्फ्यूज़न (नाम एक फ़नकार अनेक)

एक संगीतकार हुए कनु रॉय जिन्होंने 1971 की फिल्म “अनुभव” में संगीत दिया था। इस फिल्म में सालों बाद गीता दत्त ने एक गीत गाया था जो कि शादी से पहले गीता रॉय कहलाती थीं। इसी वजह से कई लोगों ने मानना शुरु कर दिया कि कनु रॉय गीता दत्त के भाई थे। ये सिर्फ़ एक ग़लत जानकारी है, जो कि रॉय होने के कारण हुई ग़लतफ़हमी के सिवा कुछ नहीं है।

नाम एक फ़नकार अनेक

गीता दत्त के भाई का नाम था मुकुल रॉय (16 अगस्त 1926 – 08 नवंबर 2009), वो भी अपने समय के एक गुणी संगीतकार थे, लेकिन उनका फ़िल्मी सफर बहुत छोटा था। उन्होंने सिर्फ़ 5 हिंदी, 2 बांग्ला और एक गुजराती फ़िल्म में संगीत दिया था। उनके संगीत से सजी हिंदी फ़िल्म “डिटेक्टिव” जिसमें प्रदीप कुमार हीरो थे, उस के गीतों को काफ़ी पसंद किया गया था।

मुकुल रॉय की फ़िल्मों की सूची

  • 1950 – भेद,
  • 1950 – भेदी डाकू,
  • 1953 – दो बहादुर
  • 1956 – सैलाब
  • 1958 – डिटेक्टिव
  • बांग्ला फिल्में –
  • 1954 – गृह प्रवेश
  • 1973 – काया हिनर कहिनी

संगीतकार कनु रॉय (नाम एक फ़नकार अनेक)

संगीतकार कनु रॉय को “अनुभव”, “अविष्कार” और “गृह प्रवेश” में संगीत देने के लिए जाना जाता है। हाँलाकि इनका भी फ़िल्मी सफ़र बहुत लम्बा नहीं रहा लेकिन जिन फ़िल्मों में भी उन्होंने संगीत दिया वो सभी फ़िल्में अपने गानों और संगीत के लिए जानी जाती हैं और एक ख़ास दर्शक वर्ग को उनका संगीत बहुत पसंद आता है। कनु रॉय प्लेबैक सिंगर बनने के लिए बम्बई आये थे मगर गाने के जो भी मौक़े मिले वो या तो कोरस में थे या सामूहिक गीत थे।

कनु रॉय के करियर की शुरुआत संगीतकार सलिल चौधरी के सहायक के तौर पर हुई। कई साल उनके साथ काम करने के बाद भी कनु रॉय को गाने का मौक़ा नहीं मिला। कनु रॉय जब इप्टा से जुड़े तो उन्होंने धुनों की रचना शुरु की जो उनके साथियों को बहुत पसंद आती थीं। 60 के दशक में वो बासु भट्टाचार्य के संपर्क में आये जिन्होंने उन्हें अपनी फ़िल्मों में संगीत देने के कई मौक़े दिए। 1966 की उसकी कहानी, 1971 की अनुभव 1974 की अविष्कार ये तीनों फ़िल्में बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी थीं।

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कनु रॉय को कम वाद्य यंत्रों के साथ संगीत देने के लिए जाना जाता है और वाक़ई उन्होंने कम से कम म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स यूज़ करके बेहतरीन गीत बनाये, लेकिन ये उनकी मजबूरी भी थी। उनका पूरा जीवन बेहद ग़रीबी में गुज़रा था, उधर बासु भट्टाचार्य की फ़िल्मों का बजट हमेशा कम ही होता था। वो कोशिश करते थे कि अपनी फ़िल्मों में उन्हीं कलाकारों, फ़नकारों को लें जो दोस्त हों, उन्हें वो बहुत कम पैसों में राज़ी कर लेते थे। कनु रॉय को तो अच्छे मौक़े की तलाश थी। इसीलिए कनु रॉय के गानों में बहुत कम इंस्ट्रूमेंट्स सुनाई देते हैं।

कनु रॉय ने 1979 की फ़िल्म “श्यामला” में पहली बार 40 पीस ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया। वो गाना है “बलमा मेरा बलमा” इस गीत को मुकेश और दिलराज कौर ने गाया है। कनु रॉय को ताउम्र वो पहचान नहीं मिली जिसकी तमन्ना उन्हें थी। 20 दिसम्बर 1982 को कैंसर के कारण कनु रॉय इस दुनिया से चल बसे। संगीतकार कनु रॉय ने किसी फ़िल्म में अभिनय नहीं किया, जिन्होंने अभिनय किया उन्होंने किसी फ़िल्म में संगीत नहीं दिया। यानी संगीतकार और अभिनेता दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं।

नाम एक फ़नकार अनेक

अभिनेता कनु रॉय (नाम एक फ़नकार अनेक)

कनु रॉय नाम के जो अभिनेता थे, उनका असली नाम था नलिनी रंजन रॉय। जिस वक़्त वो फ़िल्मों में आये थे, पहले से ही कई नलिनी नाम की अभिनेत्रियाँ काम कर रही थीं। ऐसे में उनके नाम को लेकर कोई कन्फ्यूज़न न हो इसलिए उनके निक नेम कनु को ही उनका फ़िल्मी नाम बना दिया गया। 9 दिसंबर 1912 को जबलपुर में जन्मे अभिनेता कनु रॉय ने बम्बई आकर बॉम्बे टॉकीज़ ज्वाइन कर लिया। 1942 की “बसंत” उनकी पहली थी, फिर “किस्मत”, “महल”, “जागृति”, “मुनीम जी”, “तुमसा नहीं देखा”, “प्यार की राहें”, “नॉटी बॉय”, “बंदिनी” जैसी क़रीब 46 फ़िल्मों में काम किया। उनकी आख़िरी फिल्म थी 1983 में आई “किसी से न कहना” ।

कनु घोष (नाम एक फ़नकार अनेक)

कनु नाम के एक और व्यक्ति थे जिनका सम्बन्ध फ़िल्म संगीत से था। वो थे कनु घोष, जो मधुमती, छाया और माया जैसी कई फ़िल्मों में सलिल चौधरी के असिस्टेंट रहे। 1953 में एक फ़िल्म आई थी तीन बत्ती चार रास्ता, उसमें एक मल्टीलिंगुअल सांग है,  इसके बांग्ला सेगमेंट का म्यूजिक उन्होंने ही दिया था और बोल भी उन्हीं के थे। कहा जाता है कि फ़िल्म मधुमती में जब एक ग़ज़ल (हम हाल-ए-दिल सुनाएँगे ) तैयार करनी थी तो सलिल चौधरी के कहने पर कनु घोष ने उस ग़ज़ल का म्यूज़िक तैयार किया था।

“शहीद” जैसी कुछ फ़िल्मों में वो प्रेम धवन के सहायक भी रहे। स्वतंत्र रूप से उन्होंने कई यादगार बांग्ला नॉन-फ़िल्मी गीतों की रचना की। हिंदी में उन्होंने 1957 की “नया ज़माना” और 1959 की “प्यार की राहें” में स्वतंत्र रूप से संगीत दिया था। हिंदी के अलावा उन्होंने कुछ मलयालम और कन्नड़ फ़िल्मों का संगीत भी दिया। इनमें कन्नड़ फिल्म प्रतिमा (1978) और मलयालम फिल्म नाज़िकाक्कल्लु (1970) शामिल हैं। इस फिल्म के एक गीत (“निन पदंगलिल”) को अब तक के बेहतरीन मलयालम फिल्म गीतों में से एक माना जाता है।

सरनेम अलग हों तो फिर पहचान संभव है और उलझन या ग़लतफ़हमी की गुंजाइश कम होती है। लेकिन जहाँ नाम और सरनेम एक जैसे हों तो एक्टर का क्रेडिट संगीतकार को और संगीतकार का क्रेडिट गायक को दे दिया जाना कोई बड़ी बात नहीं है। मगर क्रेडिट सही व्यक्ति को मिलना चाहिए इसीलिए इस पोस्ट में कुछ ऐसी हस्तियों की बात की जिन्हें लेकर अक्सर एक उलझन रहती है। उम्मीद है ये पोस्ट उस उलझन को सुलझाने में मददगार साबित होगी।