मुबारक बेगम (5 January 1936 – 18 July 2016) – हिंदी फ़िल्मों की वो गायिका जिन्हें इंडस्ट्री ने आसानी से भुला दिया।
हमारी फिल्म इंडस्ट्री जब किसी पर मेहरबान होती है तो तो उसे सर आँखों पर बिठा लेती है और जब किनारा कर ले तो उस फनकार को ऐसे अंधेरों में गम कर देती है कि फिर उसकी शोहरत का सितारा सिर्फ क़िस्से कहानियों में चमकता है। ऐसी ही गायिका रहीं मुबारक बेगम जिनकी अनूठी आवाज़ ने हिंदी फिल्मों को बहुत से लोकप्रिय गीत दिए।
मुबारक बेगम का जन्म और परवरिश राजस्थान में हुई उनके अब्बा फलों की ठेली लगाया करते थे लेकिन जब परिवार का खर्च बढ़ने लगा तो वो लोग अहमदाबाद आ गए जहाँ उनके दादा की चाय की दुकान थी। उस ज़माने में लड़कियों को पढ़ाना गैर ज़रूरी समझ जाता था इसलिए वो पढ़-लिख नहीं पाईं। लेकिन उन्हें फिल्में देखने का शौक़ था जो उन्हें अपने पिता से मिला था। फिल्मों में नूरजहाँ और सुरैया के गए गाने देख सुन कर वो उन्हीं की तरह गुनगुनाने की कोशिश करती थी। इस तरह कह सकते हैं कि गायकी की तरफ रुझान पैदा हुआ। पर शायद तब उन्होंने ऐसा नहीं सोचा होगा कि वो भी कभी फिल्मों में गाएंगी।
मुबारक बेगम के पिता को तबला बजाना बहुत पसंद था और वो उस्ताद थिरकवाँ ख़ाँ के शागिर्द भी थे। जब उन्होंने अपनी बेटी के हुनर को देखा तो मुम्बई जाने की सोची ताकि वहां मुबारक बेगम को कुछ काम मिल सके। तब लोगों की सलाह पर मुबारक बेगम ने उस्ताद रियाज़ुद्दीन खां और उस्ताद समद खां से बाक़ायदा तालीम हासिल करना शुरू कर दिया और फिर उनका परिवार मुम्बई आ गया। फिर जल्दी ही उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो का ऑडिशन पास कर लिया जिसके बाद उन्हें रेडियो पर ग़ज़ल गाने के मौक़े मिलने लगे।
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रेडियो पर मुबारक बेगम की आवाज़ सुनकर उनकी गायकी से उस समय के मशहूर संगीतकार रफ़ीक़ ग़ज़नवी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मुबारक बेगम को स्टूडियो में गाने के लिए बुलाया लेकिन स्टूडियो की भीड़-भाड़ से वो इतना घबरा गयी कि गा ही नहीं पाईं। लेकिन इस असफलता से उन्होंने हौसला नहीं हारा और जल्दी ही उन्होंने पूरे आत्मविश्वास फिर से कोशिश की और उस मेहनत का फल भी उन्हें मिला। जब 1949 की फिल्म “आइये” में संगीतकार नाशाद ने उन्हें गाने का मौक़ा दिया। 1950 में एक फिल्म आई थी “फूलों का हार” जिसके सभी गाने मुबारक बेगम ने ही गाये थे। इसके बाद तो फिल्मों में गाने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो कई दशकों तक चला।
50 के दशक में “कुंदन”, “दायरा”, “शबाब”, “माँ के आँसू”, “औलाद”, “शीशा”, “देवदास”, “मधुमती”, “रिश्ता” जैसी कई फिल्मों में मुबारक बेगम के गाये बेहतरीन गीत सुनने को मिले पर उन्हें सही मायनों में लोकप्रियता तब हासिल हुई जब उन्होंने निर्माता-निर्देशक और गीतकार किदार शर्मा की 1961 में आई फिल्म “हमारी याद आएगी” का शीर्षक गीत गाया। ‘कभी तन्हाइयों में यूँ हमारी याद आएगी’ ये गाना अपने वक़्त में बहुत बहुत मशहूर हुआ।
पहले ये गाना लता मंगेशकर की आवाज़ में रिकॉर्ड होना था। पर वो रिकॉर्डिंग के वक़्त पर पहुँच नहीं पाईं और न ही उनसे कोई संपर्क हो पाया तो केदार शर्मा ने मुबारक बेगम को बुला कर उनसे ये गाना गवा लिया। हालांकि उस दिन उनका गला बहुत ख़राब था पर जब कुछ अच्छा होना होता है तो ऐसी मुश्किलें बाधा नहीं बनती। और इस गाने ने मुबारक बेगम को बहुत लोकप्रियता दिलाई और फिर उस दौर में ऐसा होने लगा कि ज़्यादातर फिल्मों में उनका एक गाना तो लगभग होता ही था।
मुबारक बेगम ने “स्नेहल भाटकर”, “इक़बाल क़ुरैशी”, “सलिल चौधरी”, “S D बर्मन”, “कल्याणजी आनंदजी“, “ख़ैयाम” जैसे अपने वक़्त के लगभग सभी संगीतकारों के लिए गीत गाये। उनके सोलो गीत तो बेहतरीन हैं ही जो डुएट्स उन्होंने गाये वो भी कमाल के हैं चाहे वो मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद जैसे गायकों के साथ हों या लता मंगेशकर, आशा भोंसले, सुमन कल्याणपुर या किसी भी और गायिका के साथ। उनकी आवाज़ का जो अनूठापन था वो उन्हें एक अलग पहचान दिला देता था।
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60 के दशक में “हमराही”, “जुआरी”, “ये दिल किसको दूँ”, “सुशीला”, “शगुन”, “सरस्वतीचंद्र”, “मार्वल मैन”, “हमीर हठ” जैसी कई फिल्मों में मुबारक बेगम ने लोकप्रिय सोलो और डुएट्स गाये। लेकिन फिर अचानक हालात बदलने लगे, वो गाने रिकॉर्ड करती पर फिल्म में वो गाने किसी और की आवाज़ में सुनाई देते या शामिल ही नहीं हो पाते। 70 का दशक आते आते मुबारक बेगम का वक़्त जैसे चला गया। थोड़ा बहुत काम जो उन्होंने किया भी वो लोकप्रिय नहीं हो पाया। आख़िरी फिल्म जिसमें उनकी आवाज़ सुनाई दी वो थी 1980 की “रामू तो दीवाना है”।
मुबारक बेगम का फिल्मों से नाता टूटा तो ग़ुरबत से जुड़ गया अपने बड़े घर से उन्हें गंदे मोहल्ले के एक छोटे से घर में रहने को मजबूर होना पड़ा। पर फ़िल्मी दुनिया तो जैसे उन्हें भुला चुकी थी, कभी कभी उन्हें स्टेज शोज के लिए बुलाया जाता या कभी किसी प्राइवेट एल्बम के गानों की रिकॉर्डिंग के लिए चली जाती। ये सिलसिला भी ख़त्म हो गया, बाद में गठिया की बीमारी के चलते उनका घर से निकलना भी बंद हो गया। मुबारक बेगम के इन हालात का पता भी दुनिया को तब लगा जब “फिल्म्स डिवीज़न” ने उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई जिसे गोवा फिल्म समारोह में दिखाया गया।
मुबारक बेगम पाँच बहने थीं उनकी एक छोटी बहन विजय बाला के नाम से “चंगेज़ ख़ान’, “गृहस्थी” जैसी कुछ फिल्मों में अभिनय करती नज़र आई। मुबारक बेगम की शादी हुई थी शेख़ साहब से उनके दो बच्चे हुए एक बेटी और एक बेटा उन के बच्चों का फिल्मों से कोई नाता नहीं रहा। उनकी बेटी की मौत 2015 में पार्किंसन के कारण हो गई थी। बेटे के परिवार के साथ उन्होंने तंगहाली और बदहाली के दिन गिन-गिन कर काटे। उनके पास बीमारी का इलाज करने के भी पैसे नहीं थे।
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ताउम्र उन्हें फिल्म इंडस्ट्री से शिकायत रही कि जिन लोगों के बीच उन्होंने इतना अरसा गुज़ारा उन लोगों ने एक बार भी उनकी खबर नहीं ली। हालांकि सुनील दत्त की वो शुक्र गुज़ार रही जिन्होंने बुरे वक़्त में उनकी मदद की। उनकी बहु के मुताबिक़ सलमान ख़ान ने लम्बे समय तक उनकी आर्थिक मदद की। अपने आख़िरी दिनों में चलने फिरने में परेशानी के कारण वो अपने छोटे से घर की चार दीवारी में बंद हो कर रह गयी थीं और इन्हीं हालात में 18 जुलाई 2016 को बड़ी ही ख़ामोशी से वो इस दुनिया से चली गयी।
किसी भी व्यवसाय में टैलेंट के अलावा जो चीज़ चाहिए होती है वो है नेटवर्किंग, कॉन्टेक्ट्स और मौक़े का फ़ायदा उठाना। जो लोग इनमें कमज़ोर होते हैं वो गुणी होते हुए भी कहीं बहुत पीछे छूट जाते हैं। जैसा मुबारक बेगम और उनके जैसे कई फनकारों और कलाकारों के साथ हुआ। पर आज की पीढ़ी पहले से ज़्यादा समझदार और स्मार्ट है और वो जानती है कि इंडस्ट्री में टिके रहने के लिए ये सब कितना ज़रुरी है।
मुबारक बेगम के गाए कुछ गीत
- देवता तुम हो मेरा सहारा – दायरा (1953) – मोहम्मद रफ़ी, मुबारक बेगम – जमाल सेन – क़ैफ़ भोपाली
- वो न आएंगे पलट के – देवदास (1955) – S D बर्मन – साहिर लुधियानवी
- हम हाल-ए-दिल सुनाएंगे – मधुमती (1958) – सलिल चौधरी – शैलेन्द्र
- ओ हो दिलवाले – सर्कस क्वीन (1959) – शफ़ी M नागरी – नक़्श लायलपुरी
- कभी तन्हाइयों में यूँ – हमारी याद आएगी (61) – स्नेहल भाटकर – केदार शर्मा
- हमें दम दई के – ये दिल किसको दूँ (1963) – मुबारक बेगम, आशा भोसले – इक़बाल क़ुरैशी – क़मर जलालाबादी
- मुझको अपने गले लगा लो – हमराही (1963) – शंकर जयकिशन – हसरत जयपुरी
- इतने क़रीब आके – शगुन (1964) – ख़ैयाम – साहिर लुधियानवी
- आँखों आँखों में हर रात – मार्वल मैन (1964) – रॉबिन चेटर्जी – योगेश
- निगाहों से दिल में – हमीर हठ (1964) – सन्मुख बाबू – दीपक
- जब इश्क़ कहीं हो जाता – आरज़ू (1965) – शंकर जयकिशन – हसरत जयपुरी
- बेमुरव्वत बेवफ़ा – सुशीला (1966) – C अर्जुन – जाँनिसार अख़्तर
- नींद उड़ जाए तेरी – जुआरी (1968) – कृष्णा बोस, मुबारक बेगम, सुमन कल्याणपुर – कल्याणजी आनंदजी – आनंद बख्शी
- वादा हमसे किया-सरस्वतीचंद्र (1968) – कल्याणजी आनंदजी – इंदीवर
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