केशवराव भोले पहले भारतीय संगीतकार थे जिन्होंने ऑर्केस्ट्रा की कम्पोज़िशन्स में कई नए प्रयोग किए। वहीं पियानो, हवाईयन गिटार, और वॉयलिन जैसे वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट्स को उन्होंने एक साथ एक अलग रूप में पेश किया। लेकिन आज कितने लोग उनके नाम और काम से वाक़िफ़ हैं ? उनकी पुण्यतिथि पर उनके जीवन और करियर पर एक नज़र।
भारतीय फ़िल्में संगीत के बिना अधूरी हैं, तभी तो फ़िल्मों में आवाज़ आते ही इंद्रसभा जैसी फिल्म बनी जिसमें 20 से ऊपर गाने थे। शुरुआत से लेकर आज तक फ़िल्म संगीत का स्वरुप ज़रुर बदला है मगर इस संगीत ने हर दौर के संगीत प्रेमियों को झूमने पर मजबूर किया है। और इसमें सबसे बड़ा योगदान है संगीतकारों का, शुरूआती दौर के कुछ संगीतकार ऐसे थे जिन्होंने फिल्म संगीत में कई ऐसे अनूठे प्रयोग किये जिन्हें बाद में दूसरों ने अपनाया, ऐसे ही संगीतकार थे केशवराव भोले।
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केशवराव भोले का परिवार यूँ तो पुणे से था मगर उनके पिता वामन अनंत भोले अमरावती में आकर बस गए थे और फिर वो बतौर असिस्टेंट एक्सक्यूटिव इंजीनियर नौकरी करने लगे। केशवराव भोले छः भाइयों में सबसे छोटे थे उनके जन्म से पहले ही उनके पिता का निधन हो गया था। उनके पिता को संगीत का बहुत शौक़ था और वो सितार बजाया करते थे। अपनी स्कूली पढाई पूरी करने के बाद केशवराव भोले मेडिकल की पढ़ाई के लिए मुंबई चले गए। मगर वहाँ संगीत में वो ऐसे डूबे कि मेडिकल छोड़ कर थिएटर में रूचि रखने वाले एक समूह से जुड़ गए।
केशवराव भोले के करियर की शुरुआत
इसके बाद उनका इंटरेस्ट इतना बढ़ा कि उन्होंने एक थिएटर कम्पनी शुरु की जिसका नाम था नाट्यमानवंतर इसी कंपनी से अभिनेत्री लीला चिटनीस ने अपने अभिनय सफ़र की शुरुआत की थी। इस नाटक कम्पनी का नाटक “अन्धाल्यांची शाला” बहुत मशहूर हुआ था इसमें हीरोइन थीं – केशवराव भोले की पत्नी दुर्गा केलकर जो शादी के बाद ज्योत्स्ना भोले कहलाने लगी थीं। ज्योत्स्ना भोले के गाये गीत और केशवराव भोले का संगीत इस नाटक के बाद रातों रात मशहूर हो गया।
1919 से 1930 तक उन्होंने बहुत सी विदेशी मूक फिल्में देखीं और उसके साथ जो ऑर्केस्ट्रा प्ले होता था उसे वो बहुत ध्यान से सुनते थे। वहीं से पियानो से एक लगाव शुरु हुआ। जब फ़िल्मों में आवाज़ आई और उन्होंने फ़िल्मों में संगीत देना शुरु किया तो उन्होंने अलग-अलग इमोशन के लिए अलग-अलग म्यूज़िकल इंट्रूमेंट का यूज़ करना शुरु किया जो उस समय एक नया प्रयोग था। और संगीत को लेकर ज़्यादातर प्रयोग उन्होंने प्रभात फिल्म कंपनी में किये।
प्रभात फिल्म कंपनी की फ़िल्मों में उनका संगीत बहुत लोकप्रिय हुआ
जिस समय गोविंदराव टेम्बे ने प्रभात फ़िल्म कंपनी छोड़ी उसी समय केशवराव भोले प्रभात से जुड़े। हाँलाकि इससे पहले केशवराव भोले एक मराठी और दो हिंदी फ़िल्मों में संगीत दे चुके थे। उन्होंने ये महसूस किया कि चाहे हिंदी हो या मराठी, उन दिनों फ़िल्मों में स्टेज के स्टाइल का ही संगीत सुनाई दे रहा था। और उन्हें लगा कि फ़िल्म बिल्कुल अलग मीडियम है, इसलिए यहाँ एकदम अलग स्टाइल का म्यूज़िक होना चाहिए। फिर उन्होंने प्रभात में नए एक्सपेरिमेंट करने शुरु कर दिए। उन्होंने वहाँ के म्यूज़िक डिपार्टमेंट को और बढ़ाया, नए साज़ लाए और साज़िंदे भी, साथ ही ऑर्केस्ट्रा को और ज़्यादा प्रभावशाली बनाया।
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प्रभात की ज़्यादातर मशहूर फ़िल्मों में उन्हीं का संगीत था। 1934 में आई “अमृत मंथन” में उन्होंने सामने बजते हुए संगीत के साथ ही रिहर्सल की और फाइनल शॉट्स लिए इससे कलाकारों के भाव और म्यूजिक का तालमेल बहुत असरदार रहा। ये फिल्म कई मायनों में मील का पत्थर थी जिसने सिल्वर जुबली मनाई और ये पहली भारतीय टॉकी थी जो 25 हफ़्तों तक चली। इस फ़िल्म में वसंत देसाई ने भी एक गाना गाया था – अमृत मंथन – सखी री श्याम बड़ी ठिठयारो
इसके बाद आई “चन्द्रसेना”, “राजपूत रमणी”, पर उनकी सबसे लोकप्रिय फ़िल्म थी 1936 में आई “संत तुकाराम” जो केशवराव भोले के संगीत के लिए जानी जाती है। संत कवि तुकाराम के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म के संगीत में उन्होंने खड़ताल, सारंगी, मृदंग, सितार जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग इतनी सुंदरता से किया कि इसके गीत घर-घर में गूँजे। और ये फ़िल्म सिर्फ़ महाराष्ट्र में नहीं बल्कि पूरे देश में पसंद की गई। कलकत्ता में तो इसने गोल्डन जुबली मनाई थी।
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इसके बाद 1937 की फ़िल्म “कुंकु” जो हिंदी में “दुनिया न माने” के नाम से प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में एक इंग्लिश गाना भी था जिसे शांता आप्टे ने गाया था। इस फिल्म में केशवराव भोले ने बैकग्राउंड म्यूज़िक की जगह बैकग्राउंड साउंड्स का इस्तेमाल किया, ये अनोखा प्रयोग भी पहली बार किसी फ़िल्म में किया गया था। ये फिल्म अपने विषय, कलाकारों के अभिनय और संगीत के कारण बहुत मशहूर हुई। इसके बाद शांता आप्टे की गिनती चोटी की हेरोइंस में होने लगी।
इन फ़िल्मों के बाद माझा मुल्गा (मेरा लड़का-1938), संत ज्ञानेश्वर(1940), संत सखु(1941) दस बजे (1942) जैसी फ़िल्मों में केशवराव भोले का संगीत गूंजा मगर 1944 की रामशास्त्री के बाद उन्होंने प्रभात छोड़ दिया। और स्वतंत्र रूप से संगीत देने लगे। इस दौर की फिल्मों में तारामती (1945), कुबेर(1947), भाग्यरेखा(1948), और हिंदी-मराठी में बानी परिजातक/श्रीकृष्ण सत्यभामा(1951) शामिल हैं। यही उनकी आख़िरी फ़िल्म भी रही। बाद में वो बॉम्बे ऑल इंडिया रेडियो के संगीत विभाग के चीफ़ नियुक्त हुए।
लेखक और आलोचक
केशवराव भोले साप्ताहिक पत्रिका “वसुंधरा” में एकलव्य नाम से समकालीन शास्त्रीय संगीतकारों पर समीक्षात्मक लेख लिखा करते थे। बतौर क्रिटिक उनके आर्टिकल्स बेहद पसंद किये गए और वो एक किताब में संकलित किये गए “अजाचे परसिद्धा गायक” ये किताब पहले 1933 में प्रकाशित हुई थी फिर इसका एक addition 1949 में “संगीताचे मनकरी” के नाम से निकाला गया। केशवराव भोले “सुद्ध सारंगा” पेन नेम से भी लिखा करते थे।
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समय समय पर उनकी कई किताबें प्रकाशित हुईं – अवाजाची दुनिया (1948), अस्ताई (1962), वसंत ककाची पत्रे (1964), और 1964 में आई उनकी आत्मकथा “माज़े संगीत : रचना और दिग्दर्शन” संगीत प्रेमियों के लिए न सिर्फ़ उनकी फ़िल्में बल्कि उनकी लिखी किताबें भी किसी ख़ज़ाने से कम नहीं हैं। 23 मई 1896 को जन्मे केशवराव भोले 10 सितम्बर 1967 को इस दुनिया से कूच कर गए।
फिल्म संगीत में शुरुआत में जिस तरह के कामयाब प्रयोग हुए उन्होंने ही आगे आने वाली पीढ़ी को और कुछ नया करने की प्रेरणा दी। इसी वजह से आज भारतीय फिल्म संगीत इतना समृद्ध हो पाया। ऐसे में उन हस्तियों के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने इसकी नींव डाली।
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