के सी डे (24 August 1893– 28 November 1962) – अभिनेता, गायक, संगीतकार और टीचर। कहते हैं कि ज़िंदगी आपसे कुछ लेती है तो कुछ और ज़रुर देती है। बंगाली गायक-अभिनेता और संगीतकार के सी डे इसकी मिसाल हैं। ज़िन्दगी ने उनसे कम उम्र में ही रंग छीन लिए लेकिन ऐसा स्वर दिया कि संगीत के क्षेत्र में उनका नाम अमर हो गया। संगीतकार S D बर्मन उनके शागिर्द थे, और महान गायक मन्ना डे उनके भतीजे।
Melody is the only language a singer needs to gain command over. – K C DEY
के सी डे का शुरुआती जीवन
बहुत से युवाओं को अपने गायन से प्रेरित करने वाले के सी डे विंटेज एरा के महान गायकों में से एक थे। के सी डे का जन्म 24 अगस्त 1893 में हावड़ा में हुआ। उनका पूरा नाम था कृष्णचन्द्र डे। उनके पिता का नाम था शिबचंद्र डे और माँ का नाम – रतनमाला देवी। जिस दिन के सी डे का जन्म हुआ उस दिन जन्माष्टमी थी शायद इसीलिए उनके माता-पिता ने उनका नाम भगवान कृष्ण के नाम पर रखा।
बचपन से ही उन्हें संगीत में रूचि थी, वो संगीत की महफ़िलों में जाया करते थे। पर जब वो 13 साल के थे तो एक ट्रेजेडी हो गई। एक दिन उनके सिर में तेज़ दर्द उठा, बहुत इलाज कराया गया मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ और फिर उनकी आँखों की रोशनी चली गई। लेकिन इसके बाद संगीत से नाता और गहरा हो गया।
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के सी डे की संगीत-यात्रा
इसके बाद के सी डे ने जैसे ख़ुद को संगीत के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने शशि भूषण डे, सतीश चट्टोपाध्याय, उस्ताद दबीर खाँ, उस्ताद करमतुल्लाह ख़ान, उस्ताद बादल ख़ान जैसे कोलकाता के कई जाने माने उस्तादों से संगीत की शिक्षा ली। बनारस के काण्ठे महाराज से उन्होंने तबला बजाना भी सीखा। 18 साल की उम्र तक आते-आते वो बतौर गायक स्थापित हो गए थे।
जब के सी डे स्टेज पर गाया करते थे तो उस समय बिना माइक के ही बोलना और गाना पड़ता था। उनकी आवाज़ का थ्रो और कंट्रोल इतना अच्छा था कि सॉफ़्ट गानों में भी उनकी आवाज़ ऑडिटोरियम की आख़िरी row तक सुनाई देती थी। उनकी आवाज़ में एक तरह की रूहानी कशिश और ऐसा दर्द था जो सुनने वालों के दिल को छू जाता था।
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गायक के सी डे
उन्होंने ग्रामोफ़ोन कंपनी के लिए 1917 में पहली बार रिकॉर्डिंग की थी। माना जाता है कि फ़िल्मों में उनके सफ़र की शुरुआत हुई मदन थिएटर की सवाक फ़िल्म से, लेकिन उन्हें अपार सफलता मिली न्यू थिएटर्स की फ़िल्मों से। वो मंज़िल (1936), देवदास (1936), धरतीमाता (1938), जैसी कई हिंदी-बांग्ला फ़िल्मों का हिस्सा रहे। जिनमें उन्होंने अभिनय भी किया और गाने भी गाये। पूरन भगत (1933), धूप छॉंव (1935), विद्यापति (1937) जैसी फ़िल्मों में उनके गाए गीत सालों तक दोहराए जाते रहे।
“धूप-छाँव” वही फ़िल्म है जिससे भारतीय फ़िल्मों में प्लेबैक की शुरुआत हुई, जिसे बांग्ला में “भाग्य चक्र” के नाम से बनाया गया था। के सी डे ने इसके हिंदी और बांग्ला वर्ज़न दोनों में सूरदास का किरदार निभाया साथ ही अपनी आवाज़ भी दी। इन सभी फ़िल्मों में उनके गाये गाने इतने पसंद किए गए कि उनकी माँग बढ़ती चली गई।
के सी डे के कुछ मशहूर गीत
- जाओ-जाओ ओ मेरे साधो रहो गुरु के संग – पूरन भगत (1933) – रायचंद बोराल
- तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफिर जाग ज़रा – धूप छाँव (1935) – रायचंद बोराल/पंकज मलिक – पं सुदर्शन
- बाबा मन की आँखें खोल – धूप छाँव (1935) / भाग्यचक्र (बांग्ला)- रायचंद बोराल/पंकज मलिक – पं सुदर्शन
- मत भूल मुसाफ़िर – देवदास (1935)
- पनघट पे कन्हैया आता है – विद्यापति (1937) – रायचंद बोराल – केदार शर्मा
- गोकुल से गए गिरधारी – विद्यापति (1937) – रायचंद बोराल – केदार शर्मा
- मान न कर अब सजनी – आँधी (1940) – के सी डे- आरज़ू लखनवी
- मन मूरख कहना मान – मीनाक्षी – (1942) – पंकज मलिक – पं भूषण
संगीतकार के सी डे
बतौर सिंगर-एक्टर जो सफ़र शुरु हुआ उसने के सी डे को बहुत मान-सम्मान और कामयाबी दिलाई। इस दौरान उन्होंने ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी और सागर मूवीटोन की फ़िल्मों में म्यूजिक भी दिया और यहाँ भी कामयाबी ने उनके क़दम चूमे। ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी की 1933 में आई “आब-ए-हयात” में पहली बार उन्हें संगीत देने का मौक़ा मिला। और फिर आईं 1934 में “चन्द्रगुप्त”, “किस्मत की कसौटी (1934)”, “सीता(1934)”, “सुनहरा संसार (1936)” “शहर का जादू (1934)” जैसी फ़िल्में जिनमें उनकी धुनें सुनाई दीं। शहर का जादू फ़िल्म में मोतीलाल ने उनके संगीत निर्देशन में अपना पहला गाना गाया “हमसे सुन्दर कोई नहीं है”
इन जैसी फ़िल्मों ने के सी डे को बतौर संगीतकार भी स्थापित कर दिया। और फिर उनकी माँग बढ़ती चली गई। इसका क्रेडिट उनकी सरल और मीठी धुनों को दे सकते हैं। के सी डे देख नहीं सकते थे मगर उनमें वो अद्भुत क्षमता थी जिससे वो कहानी की रुह में उतर कर उसके मिज़ाज को परख लेते थे और सिचुएशन के ठीक मुताबिक़ धुनें बनाते थे।
के सी डे ने ये भी महसूस किया कि आम श्रोता (लिसनर) शास्त्रीय संगीत की गहराई को समझ नहीं पाता है या उसकी कठिनाई में उलझ कर रह जाता है। इसलिए उन्होंने शास्त्रीय संगीत को आसान बनाकर पेश किया जो लोगों को बहुत पसंद आया। इस विधा को हम सुगम-संगीत के नाम से जानते हैं और इससे परिचय कराने का श्रेय के सी डे को ही दिया जाता है।
के सी डे का मानना था कि एक गायक को अगर किसी भाषा को सीखने की ज़रुरत है तो वो है – मेलोडी यानी मधुरता। जिसकी उनके गानों में कोई कमी नहीं थी इसीलिए वो अपने जीवन काल में ही लेजेंड बन गए थे। जब वो पाकिस्तान गए और उन्होंने कराची के कॉन्सर्ट में ” तेरी गठरी में लागा चोर” जैसे अपने मशहूर गाने गाए तो वहाँ बैठा हर व्यक्ति उनके साथ-साथ गा रहा था, ऐसा जादू था उनकी आवाज़ में।
ट्रिविया –
1934 में आई सीता अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फर्स्ट इंडियन टॉकी थी। ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी की इस फ़िल्म का निर्देशन किया था देबकी बोस ने और संगीत दिया था के सी डे ने। इस फिल्म में मराठी के मशहूर अभिनेता, गीतकार और शास्त्रीय संगीत के उस्ताद गोविंदराव तेम्बे ने वाल्मीकि की भूमिका निभाई थी। इंदुबाला जिन्हें कभी मैसूर की राजगायिका की पदवी मिली थी उन्होंने इस फ़िल्म में क्लासिकल सांग्स गाकर बहुत शोहरत पाई।
के सी डे का मुंबई का सफ़र
कोलकाता में अपनी जगह बनाने के बाद के सी डे 1942 में मुंबई चले गए और उनके साथ गए प्रबोध चंद्र डे जिन्हें के सी डे ने ही नया नाम दिया था मन्ना। जी हाँ लाजवाब गायक मन्ना डे उनके भतीजे थे और उनकी गायकी से बहुत ज़्यादा प्रेरित थे। क्योंकि के सी डे देख नहीं सकते थे इसलिए मन्ना डे के बड़े भाई या ख़ुद मन्ना डे उनका गाना या कम्पोज़ीशन लिखा करते थे और नोटेशन करते थे। घर पर अक्सर उस समय के बड़े-बड़े संगीत के जानकार आया करते थे, म्यूज़िक सेशंस हुआ करते थे। जिसका गहरा असर मन्ना डे पर पड़ा।
जब कोलकाता से एक पूरी टीम मुंबई गई नए रास्तों की खोज में, तो उसमें के सी डे के शागिर्द SD बर्मन भी थे और मन्ना डे भी। क्यूंकि के सी डे देख नहीं सकते थे तो उनके साथ परिवार के किसी व्यक्ति का होना ज़रूरी था और मन्ना डे ख़ुद इसी क्षेत्र में करियर बनाना चाहते थे। इसलिए वो उनके साथ गए और मुंबई में उनके असिस्टेंट के तौर पर काम करते रहे। के सी डे ने ही मन्ना डे को पहली बार फ़िल्म “तमन्ना” में सुरैया के साथ डुएट गाने का मौक़ा दिया।
मुंबई में के सी डे जो काम कर रहे थे वो उससे संतुष्ट नहीं थे, उनकी प्रतिभा वहाँ waste हो रही थी, इसी वजह से 1946 में वो वापस कोलकाता लौट आए और संगीत की शिक्षा देने लगे।
आम धारणा है कि के सी डे सिर्फ़ भजन गाते थे पर ऐसा नहीं है उन्होंने कई फ़िल्मी और नॉन-फ़िल्मी ग़ज़लें और नात भी गाये हैं। ये अलग बात है कि उनमें से बहुत सी अब उपलब्ध नहीं हैं और जो उपलब्ध हैं उनकी क्वालिटी बहुत ख़राब है। उन्होंने हिंदी बांग्ला गुजराती और उर्दू में क़रीब 600 गाने गाए, अपने अलावा उन्होंने R C बोराल, पंकज मलिक और तिमिर बरन जैसे संगीतकारों के लिए भी बेहतरीन और मशहूर गाने गाये। उनके हिंदी और बांग्ला के नॉन-फ़िल्मी गीत, ग़ज़ल, नात, और भजनों की लिस्ट भी काफ़ी लम्बी है।
के सी डे के कुछ मशहूर नॉन-फ़िल्मी गीत
- होली खेले कन्हैया -होरी
- श्री राम भजो सुख में दुःख में – भजन
- जपो रे राम नाम सुखदाई – भजन
- रोज़े पे पहुँचिए जब तौसीफ़-ए-सना कीजै – नात
- काली कमली का टुकड़ा मुझे भीख दे
के सी डे की मशहूर फिल्में थीं
- चन्द्रगुप्त -1934
- क़िस्मत की कसौटी -1934
- सीता -1934
- शहर का जादू -1934
- सुनेहरा संसार – 1936
- मिलाप – 1937
- आँधी – 1940
- मेरा गाँव -1942
- सुनो सुनाता हूँ – 1944
- देवदासी – 1945
- दूर चलें – 1946
के सी डे का निजी जीवन
के सी डे के बारे में यूँ तो कहा जाता है कि वो आजीवन अविवाहित रहे पर ये भी कहा जाता है कि ग्रामोफ़ोन कंपनी की सिंगर मिस तारकबाला के साथ उनका गहरा रिश्ता था, के सी डे उनके गानों के लिए म्यूज़िक दिया करते थे। बाद में उनका वो रिश्ता शादी में बदला, शादी के बाद उन का नाम रखा गया रोमा देवी। दोनों का एक बेटा हुआ था लेकिन वो 14 साल की उम्र में ही चल बसा। 28 नवम्बर 1962 में 69 साल की उम्र में के सी डे भी इस दुनिया से रुख़्सत हो गए।
के सी डे शुरुआती दौर के ऐसे गायक थे जिनके स्टाइल को बहुत से सिंगर्स ने कॉपी किया। उनकी आवाज़ की गहराई संगीत की समझ और स्वरों पर उनकी पकड़ ने उन्हें उस समय के सभी गायक-गायिकाओं-संगीतकारों से अलग सम्मान दिलाया। और इन्हीं ख़ासियतों के कारण उनका नाम विंटेज एरा के महान गायकों में लिखा जाएगा।
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