सावे दादा, लाला दीनदयाल उन शुरूआती लोगों में से थे जिनकी वजह से भारत में कैमरा का कमाल देखने को मिला और मोशन पिक्चर की शुरुआत हुई।
सिनेमा सिनेमा नहीं होता अगर सिनेमैटोग्राफ़ी नहीं होती या कैमरा नहीं होते। क्योंकि सिनेमा अपने शुरूआती दौर में इसीलिए तो मशहूर हुआ क्योंकि लोगों ने उसमें अपने जैसे लोगों को चलते फिरते देखा। इसी तरह के चमत्कारों ने सिनेमा को पॉपुलर किया।
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लाला दीनदयाल स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी में भारत का पहला प्रसिद्ध नाम
मोशन पिक्चर से पहले थी स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी और इस विधा में भारत का पहला प्रसिद्ध नाम है – लाला दीनदयाल जिन्हें भारत के पहले प्रोफेशनल फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर जाना जाता हैं। हैदराबाद के छठे निज़ाम महबूब अली ख़ान ने उनकी कला से प्रभावित होकर कहा था –
“अजब ये करते हैं तस्वीर में कमाल कमाल,
उस्तादों के हैं उस्ताद लाला दीन दयाल ।”
उन्होंने 1860 में फ़ोटोग्राफ़ी सीखना शुरू किया था, 1874 में उन्होंने वॉयसरॉय लार्ड नॉर्थब्रुक की तसवीरें खींची और फिर 1875-76 में उन्होंने प्रिंस ऑफ़ वेल्स की शाही यात्रा की तसवीरें लीं। उनके टैलेंट से प्रभावित होकर सर हेनरी उन्हें अपने साथ बुंदेलखंड की यात्रा पर ले गए। इसके बाद उनकी यात्राओं का सिलसिला थमा ही नहीं। उन्होंने ग्वालियर, खजुराहो, रेवा, साँची जैसी कितनी ही जगहों के दुर्ग, महल और मंदिरों के फोटोग्राफ़्स लिए। बाद में उन्होंने इंदौर, मुंबई और हैदराबाद में अपने स्टूडियो बनाये। जहाँ 50 से ज़्यादा फ़ोटोग्राफर्स और दूसरे सहायक काम करते थे।
1894 में उन्हें हैदराबाद के शाही परिवार में कोर्ट फ़ोटोग्राफ़र नियुक्त किया गया और हैदराबाद के निज़ाम ने दीनदयाल को अपने रनिवास में जाने की इजाज़त दी थी इसी से आप उनकी अहमियत का अंदाज़ा लगा सकते हैं। इतना ही नहीं उनकी इस कला से प्रभावित होकर निज़ाम ने उन्हें राजा बहादुर मुस्सविर जंग की उपाधि दी और तब से उनका नाम इतिहास में राजा दीनदयाल के नाम से अमर है। उनके लिए गए फोटोज़ आज भी अलग अलग संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं।
ये बात थी भारत में स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी की शुरुआत की। लेकिन जब लुमियर ब्रदर्स ने फ़िल्म बनाकर अपनी चलती-फिरती तस्वीरों से दुनिया को चौंकाया तो इत्तिफ़ाक़न ये चलती-फिरती तसवीरें भारत आ गईं। इसके पीछे क़िस्सा ये है कि उन्होंने अपनी फ़िल्मों के पैकेज के साथ अपने एक एजेंट को ऑस्ट्रेलिया की तरफ़ भेजा था। लेकिन जब वो एजेंट बम्बई पहुंचा तो उसे पता चला कि ऑस्ट्रेलिया जाने वाला जहाज़ ख़राब है और उसे ठीक होने में कुछ दिन लगेंगे। वो उस समय के वॉटसन होटल में आकर ठहरा था और तभी उसे ये विचार आया कि जिस काम के लिए वो ऑस्ट्रेलिया जा रहा था उसे यहाँ बम्बई में ही क्यों न किया जाए !
और फिर उसने एक अखबार में विज्ञापन दिया, जिसमें शीर्षक लिखा “दुनिया का अजूबा’, विज्ञापन पढ़कर बहुत से लोग 7 जुलाई 1896 को वॉटसन होटल पहुँचे। उस समय उस अजूबे को दिखाने की फ़ीस रखी गई एक रुपए जो उस समय के हिसाब से एक बड़ी रक़म थी, तो आप समझ सकते हैं कि सिर्फ़ रईस या प्रोफेशनल लोग ही वहाँ पहुँचे होंगे। पर इस तरह भारत में मोशन पिक्चर का पहला शो हुआ।
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सावे दादा उर्फ़ हरिश्चंद्र सखाराम भटावडेकर
सिनेमा के इस पहले शो को देखने बम्बई के एक फ़ोटोग्राफर हरिश्चंद्र सखाराम भटावडेकर भी गए थे। H S भटावडेकर जिन्हें सावे दादा के नाम से ज़्यादा जाना जाता है, उन का जन्म मुंबई में 15 मार्च 1868 में हुआ। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की एक प्रोफ़ेशनल पोर्ट्रेट फ़ोटोग्राफ़र के रूप में। पर उनका कैमरा और फ़िल्म उपकरणों का बिज़नेस भी था। वो अपने आस-पास के लोगों में बहुत लोकप्रिय थे।
जब सावे दादा ने लुमीयर ब्रदर्स की ये फ़िल्म देखी तो उनके मन में भी देशी फ़िल्म बनाने के ख़याल ने जन्म लिया। उनका मुंबई में एक स्टूडियो था और फिर सिर्फ़ दो साल बाद उन्होंने लंदन से लूमियर सिनेमेटोग्राफ़ ख़रीदा जो 3 in one इंस्ट्रूमेंट था। जिसमें मूवी कैमरा और प्रोजेक्टर के साथ साथ प्रोसेसिंग मशीन भी थी। इसके लिए सावे दादा ने 21 सोने की गिन्नियॉँ ख़र्च कीं। और फ़ैसला किया कि वो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को इस वीडियो कैमरा में रिकॉर्ड करेंगे और उन्होंने किया भी उसके अलावा कई ऐतिहासिक पलों को भी उन्होंने रिकॉर्ड किया।
सावे दादा ने जो पहली फ़िल्म शूट की वो थी “The Wrestler” इसे आप शार्ट डॉक्यूमेंट्री या factual फ़िल्म कह सकते हैं। दरअस्ल ये एक रेसलिंग मैच की रिकॉर्डिंग थी। इस तरह सावे दादा पहले भारतीय हैं जिन्होंने मोशन पिक्चर बनाई। भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने पहली फुल लेंथ फ़ीचर फ़िल्म बनाई थी। जिसके लिए प्रॉपर कहानी लिखी गई कलाकारों का चयन किया गया, पोशाकें और मेकअप हुआ। मगर उनसे सालों पहले भारत में पहली बार मोशन पिक्चर बनाने का करिश्मा किया था सावे दादा ने, जिन्हें पहला भारतीय सिनेमेटोग्राफर भी कहा जा सकता है।
सावे दादा की दूसरी फ़िल्म सर्कस के बंदरों की ट्रेनिंग पर बनाई गई – A Man And His Monkeys । इन दोनों ही फ़िल्मों को उन्होंने डेवलप करने के लिए लंदन भेजा और 1899 में उनका सार्वजनिक शो रखा गया। ये मोशन पिक्चर का भारत का अपना पहला शो था। इसके बाद उन्होंने बहुत सी फिल्में बनाई, इनमें रेनोवेशन ऑफ़ पारसी फायर टेम्पल के अलावा कई बड़े इवेंट्स कवर करने का कीर्तिमान उनके नाम दर्ज है।
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1901 में जब R P परांजपे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित में सबसे ज़्यादा मार्क्स लेकर भारत लौटे तो बंदरगाह पर उनके स्वागत के जश्न को सावे दादा ने अपने कैमरा से शूट किया। इसे भारत की पहली न्यूज़ रील माना जाता है। 1903 में जब दिल्ली के कोरोनेशन पार्क में एडवर्ड 7th के राज्याभिषेक के लिए दिल्ली दरबार का आयोजन हुआ तो उन्होंने उस समारोह को भी कवर किया। हाँलाकि इस इवेंट को कवर करने वाली मुख्य कंपनी दूसरी थी मगर कहा जाता है सावे दादा ने वहां चल रही शाही कार्रवाई को शूट किया था।
कहते हैं सावे दादा ने फ़िल्ममेकिंग में भी हाथ आज़माया पर उनकी उन फिल्मों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती। बाद में मुंबई में गेटी थिएटर भी ख़रीदा, आखिरी समय तक वो उस थिएटर को सँभालते रहे। 20 फ़रवरी 1958 को उनका निधन हुआ। H S भटावडेकर उर्फ़ सावे दादा पहले डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर थे, पहली न्यूज़रील उन्होंने बनाई और इसी वजह से फ़िल्म इतिहास में उन का नाम उन हस्तियों में शामिल किया जाता है जिन्होंने हिंदी सिनेमा की नींव रखी और दूसरों के लिए राहें खोलीं।