गुलशन नंदा (Gulshan Nanda) के उपन्यास अपने समय में बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे, उन्हें साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जाता था बल्कि अश्लील भी कहा गया। मगर वो हिंदी, उर्दू में छपते थे, भारत पाकिस्तान में पढ़े जाते थे और 80-90 के दशक में उनके कई उपन्यासों का अनुवाद चीनी भाषा में भी हुआ।
एक समय था जब सस्ती और आसानी से उपलब्ध होने वाली पॉकेट बुक्स बहुत मशहूर थीं। ये पॉकेट बुक्स रेलवे स्टेशंस, bus terminals, फुटपाथ, बुक स्टॉल्स पर बिकती थीं और उनमें कुछ ऐसे लेखक थे जिनके लिखे नॉवेल घर-घर में पढ़े जाते थे। ये अलग बात है कि न तो ऐसे उपन्यासों को साहित्य की श्रेणी में रखा जाता था और न ही उन्हें लिखने वालों की गिनती साहित्यकारों में होती थी। ये एक तरह से वैसा ही रहा जैसे सिनेमा को भी A /B ग्रेड या सार्थक और कमर्शियल सिनेमा में बाँट दिया जाता है।
गुलशन नंदा के उपन्यासों ने घर-घर में जगह बनाई थी
आज की gen-z के लिए शायद ये कुछ नया हो मगर पॉकेट बुक्स को लेकर उस समय समाज में एक टैबू भी था, कि ऐसे नॉवेल्स बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक़ हैं हाँलाकि सभी पॉकेट बुक्स ऐसी नहीं होती थीं तब भी इन्हें सबके सामने खुलकर नहीं पढ़ा जाता था। पर ये उपन्यास आम लोगों में बेहद लोकप्रिय थे, ख़ासकर महिलाओं और युवा लड़कियों में। पॉकेट बुक्स राइटर्स में यूँ तो वेद प्रकाश शर्मा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे कई नाम बहुत मशहूर रहे मगर गुलशन नंदा एक ऐसा नाम रहे जिनकी शोहरत ने फ़िल्ममेकर्स को मजबूर कर दिया, उनके उपन्यासों पर फ़िल्म बनाने के लिए।
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गुलशन नंदा उन लेखकों में से थे जिनके आगे पब्लिशर्स की लाइन लगी रहती थी, लोग उन्हें ये कहकर एडवांस दे जाया करते थे कि “रख लो नहीं लिख पाए तो पैसे वापस कर देना”। साल में उनका सिर्फ़ एक ही उपन्यास मार्किट में आता था। और ऐसा कहा जाता है कि ये उनकी बिज़नेस स्ट्रेटेजी थी, इससे साल भर पाठकों और प्रकाशकों में एक उत्सुकता बनी रहती थी। साथ ही नया उपन्यास आने से पहले पुराने उपन्यास की सभी प्रतियाँ बिक जाती थीं। अपनी सफलता के चरम पर पहुँच कर भी उन्होंने कभी भी ज़्यादा लिखने या छपवाने की हड़बड़ी नहीं दिखाई।
गुलशन नंदा का जन्म 1929 में हुआ, क्वेटा में उनकी परवरिश हुई, जोकि अब पाकिस्तान में है। उनके मुताबिक़ बचपन से वो बहुत से शहरों क़स्बों में घूमते रहे,शायद इसी ने उन्हें लेखक बना दिया। जब वो लाहौर कॉलेज में पढ़ते थे तब उन्होंने पहली कहानी लिखी थी। लिखने के लिए उन्होंने एक क़ब्रिस्तान चुना क्योंकि वही एक अकेली ऐसी जगह थी जहाँ उन्हें वो एकांत और शांति मिलती थी जिसमें लेखन संभव था। विभाजन के दौरान वो दिल्ली आ गए थे, दिल्ली के बल्लीमारान में वो चश्मे की दुकान पर काम किया करते थे मगर वहां भी उर्दू में लिखते रहते थे। दिल्ली में ही उन्होंने उपन्यासकार बनने के बारे में गंभीरता से सोचा।
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गुलशन नंदा का पहला उपन्यास अशोक पॉकेट बुक्स ने छापा, जिसके लिए उन्हें 100-200 रूपए मिले थे। लेकिन उसके बाद उनका लिखा लगातार छपता रहा क्योंकि लोग उसे पसंद करते थे और वो डिमांड में रहते थे। गुलशन नंदा के उपन्यासों ने जल्दी ही प्रसिद्धि पानी शुरु कर दी, और 60s तक आते-आते वो उस मुक़ाम पर पहुँच चुके थे कि पब्लिशर उनके उपन्यास मुँहमाँगी रक़म पर ख़रीदने को तैयार होते थे। पॉकेट बुक्स की श्रेणी में गुलशन नंदा पहले ऐसे लेखक थे जिनकी किताबों की रॉयल्टी लाखों में आती थी। एक और बात कही जाती है कि गुलशन नंदा जो भी लिखते थे उर्दू में लिखते थे बाद में उनके बहनोई उसे हिंदी में ट्रांसलेट किया करते थे।
कहते हैं कि उस समय तक पॉकेट बुक्स की दुनिया का सरताज कहे जाने वाले ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ ने उनका लिखा नहीं छापा था मगर जब उनका उपन्यास छापने का इरादा किया तो गुलशन नंदा ने भी मौक़ा नहीं गँवाया बल्कि अपनी शर्तों पर, मुँह माँगी क़ीमत लेकर अपना उपन्यास उन्हें छापने के लिए दिया। वो उपन्यास था “झील के उस पार”, जिस पर बाद में फ़िल्म भी बनी। उस उपन्यास का बहुत बड़े स्केल पर प्रचार किया गया, जगह-जगह पोस्टर चिपकाए गए। हिन्द पॉकेट बुक्स ने ये उपन्यास “धर्मयुग” में भी प्रकाशित कराया इस घोषणा के साथ कि ये हिंदी का पहला उपन्यास है जिसका पहला एडिशन ही 5 लाख प्रतियों का था। शायद ये अतिश्योक्ति हो पर उस उपन्यास ने वाक़ई धूम मचाई थी।
गुलशन नंदा की फ़िल्मों में एंट्री
गुलशन नंदा गुरुदत्त के बुलावे पर मुंबई आए थे, गुरुदत्त ने उनकी एक कहानी ख़रीदी थी मगर उस कहानी पर कभी फिल्म नहीं बन पाई। उस वक़्त उन्हें ऐसा लगा जैसे वो इस फ़िल्मी दुनिया में खो गए हैं। मगर फ़िल्मी दुनिया भला ऐसे लेखक को कैसे निराश करती ! एक बार गुलशन नंदा ट्रैन से कहीं जा रहे थे, एक स्टेशन पर ट्रैन कुछ देर के लिए रुकी तो LV प्रसाद उनसे मिलने आए और उनके इस उपन्यास “पत्थर के होंठ” के राइट्स ख़रीद लिए। उनके इसी नॉवेल पर पहली फ़िल्म आई थी 1963 में, “पुनर्जन्म” ये फ़िल्म तेलुगु में बनी थी। लेकिन जब 1970 में इस उपन्यास पर आधारित L V प्रसाद की हिंदी फ़िल्म “खिलौना” आई तो बहुतों की क़िस्मत चमक गई।
कहते हैं संजीव कुमार के अभिनय की गहराई का अंदाज़ा पहली बार फ़िल्ममेकर्स को “खिलौना” फ़िल्म से हुआ और उन्हें नेशनल लेवल पर पहचान मिली। मुमताज़ सिर्फ़ ग्लैमरस गुड़िया नहीं हैं बल्कि भावनात्मक अभिनय भी कर सकती हैं इसका अंदाज़ा भी इसी फिल्म से हुआ और बड़े फ़िल्ममेकर्स उन्हें गंभीरता से लेने लगे। ‘खिलौना’ का स्क्रीनप्ले भी गुलशन नंदा ने ही लिखा था, लेकिन उपन्यास और फ़िल्म के अंत में एक बड़ा अंतर किया गया। नॉवेल में हीरो मर जाता है पर फ़िल्म में वो ठीक हो जाता है और अपने पागलपन के दौरान उसने क्या किया वो सब भूल जाता है और आख़िर में ड्रमैटिकली सब ठीक हो जाता है।
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गुलशन नंदा के लेखन में कई तरह के मेलोड्रामिक ट्विस्ट एंड टर्न्स होते थे जो फ़िल्म को रोचक बनाते थे। हाँलाकि हिंदी फ़िल्मों में ऐसे ट्विस्ट्स बहुत आम बात हैं पर गुलशन नंदा ने इन्हें जिस तरह से पेश किया उसने उनकी कहानियों को एक नयापन दिया, एक ताज़गी दी। मीना कुमारी की फ़िल्म “काजल” उनके उपन्यास ‘माधवी’ पर बनी थी, ‘कटी पतंग’ भी उन्हीं का उपन्यास था। आशा पारेख तब तक ग्लैमर गर्ल और डाँसर के तौर पर ज़्यादा पहचानी जाती थीं मगर एक्टिंग के सीरियस रोल्स इससे पहले उन्हें बहुत ज़्यादा नहीं मिले थे। लेकिन “कटी पतंग” ने उन्हें एक गंभीर अभिनेत्री का दर्जा दिलाया साथ ही फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी।
गुलशन नंदा ने कहा – “मेरा गुनाह ये है कि मैं बहुत लोकप्रिय हूँ”
गुलशन नंदा के उपन्यास लेखन और फ़िल्म लेखन में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं नज़र आता, क्योंकि उपन्यास में भी वो जो लिखा करते थे कोई भी उसे आसानी से visualize कर सकता है। जिस तरह के इमोशंस फिल्म देखकर महसूस होते हैं वही उनके उपन्यास पढ़कर उजागर होते थे। और अपने इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था कि वो जब उपन्यास लिखते थे तो उन्हें ऐसा लगता था कि सभी दृश्य उनकी आँखों के आगे चल रहे हैं। उस समय के फिल्ममेकर्स ये बात अच्छी तरह समझ गए थे कि गुलशन नंदा के उपन्यासों में, उनके लेखन में वो बात है जो इंडियन ऑडिएंस को बांध के रख सकती है, इसीलिए फ़िल्ममेकर्स ने उनकी ऐसी कहानियों को चुना और उन पर हिट फ़िल्में बनाई।
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इनमें यश चोपड़ा(दाग़), शक्ति सामंत(कटी पतंग), L V प्रसाद(खिलौना), राम महेश्वरी(नीलकमल), सुबोध मुखर्जी(शर्मीली), चेतन आनंद(हँसते ज़ख़्म) जैसे इंडस्ट्री के कई बड़े नाम शामिल हैं। कितनी ही फ़िल्मों की कहानी गुलशन नंदा के पहले से प्रकाशित उपन्यासों पर आधारित थी, जो महिलाओं के उत्पीड़न की कहानियाँ कहती थीं, कुछ का स्क्रीनप्ले भी उन्होंने लिखा। पर एक अजीब बात ये है कि फ़िल्मी साहित्य में भी उन्हें बहुत ज़्यादा जगह नहीं मिली। एक मशहूर फ़िल्मी इनसाइक्लोपीडिया है जिसका लोग अक्सर रेफेरेंस लेते-देते हैं उसमें भी बतौर फ़िल्मी लेखक या साहित्यकार उनका नाम शामिल नहीं है।
गुलशन नंदा को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें साहित्यकारों की सूची में शामिल नहीं किया गया। उन्होंने ये भी कहा कि “मेरा सबसे बड़ा गुनाह ही ये है कि मैं बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हूँ, और मेरी किताबें लाखों में बिकती हैं।” वो मानते थे कि सम्पादक और पत्रकार उनके प्रति पूर्वाग्रह रखते थे, क्योंकि वो कभी अपनी कहानी या उपन्यास को छापने की प्रार्थना लेकर हिंदी पत्रिकाओं के सम्पादकों के पास नहीं गए। इसमें सच्चाई तो दिखती है वर्ना क्या वजह थी कि इतने मशहूर, इतने लोकप्रिय होने के बाद भी मीडिया उन्हें वो तवज्जो नहीं देती थी जिसके वो हक़दार थे।
गुलशन नंदा के उपन्यास हिंदी, उर्दू में छपते थे, भारत पाकिस्तान में पढ़े जाते थे और शायद बहुत लोग न जानते हों पर 80-90 के दशक में उनके कई उपन्यासों का अनुवाद चीनी भाषा में भी हुआ। एक चाइनीज़ स्कॉलर के मुताबिक़ गुलशन नंदा एकमात्र ऐसे भारतीय लेखक थे जो चीनी लोगों के बीच उतने ही लोकप्रिय थे जितने टैगोर। 2006 में बीसवीं सदी के क्लासिक्स का एक चीनी संकलन तैयार किया गया उसमें भी गुलशन नंदा का नाम शामिल है। चीन में उनके चार उपन्यासों पर नाटकों का मंचन भी हुआ।
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गुलशन नंदा जानते थे कि भारतीय युवा क्या देखना और पढ़ना चाहता है, वही वो लिखते थे। उन की कहानियों में रोमांस है, फैमिली ड्रामा है, थोड़ी बहुत मिस्ट्री और सस्पेंस भी है, और इस तरह का लेखन 60s -70s की फ़िल्मों में फ़िट बैठता था। उनकी लिखी इन फ़िल्मों को पारिवारिक फ़िल्में कहा जाता था, जिन्हें पूरा परिवार साथ मिलकर देख सकता था। पर सोचने की बात ये है कि लेखक भी वही थे और कहानियाँ भी वही, मगर जब वो पॉकेट बुक्स की शक़्ल में थीं तो उन्हें पढ़ना अच्छा नहीं माना जाता था पर उन पर बनी फ़िल्में साफ़ सुथरी फ़िल्में मानी जाती थीं। कमाल है न !
गुलशन नंदा पर नक़्ल के आरोप भी लगते रहे
हर लोकप्रिय हस्ती की तरह गुलशन नंदा पर भी समय-समय पर आरोप लगते रहे। कुछ लोगों ने कहा कि पहले वो फिल्में देखकर नॉवेल लिखा करते थे, फिर उनके नॉवेल पर फ़िल्में बनने लगीं। बहुत से लोगों ने उनकी कहानियों को विदेशी नॉवेल्स की नक़्ल बताया। जैसे कहा जाता है कि उनका उपन्यास “कटी पतंग” अमेरिकन क्राइम राइटर विलियम आयरिश की किताब “I Married A Dead man” पर आधारित था। 1973 की फ़िल्म “जोशीला” की कहानी को जेम्स हेडली चेज़ की “The Wary Transgressor” से इंस्पायर्ड कहा गया। “दाग़” थॉमस हार्डी के उपन्यास “The Mayor Of Casterbridge” की कॉपी माना जाता है।
हाँलाकि इन आक्षेपों को लेकर उनका रुख़ बड़ा दिलचस्प रहा। जब किसी ने फ़िल्मफ़ेयर के ज़रिए उन पर आरोप लगाया तो उन्होंने कहा हो सकता इसका उल्टा हो, यानी विदेशी लेखकों ने उनकी नक़्ल की हो! ये कितना सच है ये तो नहीं कहा जा सकता मगर गुलशन नंदा उन उपन्यासकारों में से थे जिनके नाम पर जाली उपन्यास छापे गए और ऐसे जालसाज़ों से बचने के लिए उन्होंने क़ानूनी मदद भी ली।
फ़िल्मों से जुड़ने के बाद गुलशन नंदा बॉम्बे शिफ़्ट हो गए थे और यहाँ भी वो इतने कामयाब हुए कि उस दौर में ये माना जाता था कि अगर कहानी गुलशन नंदा की है तो हिट होगी ही। मगर “ज़ंजीर” “शोले” “दीवार” जैसी फ़िल्मों से एक्शन हीरो को लाकर, सलीम जावेद ने जिस तरह इंडस्ट्री का सिनेरियो बदला उनमें पारिवारिक फ़िल्मों का स्कोप लगभग ख़त्म ही हो गया था। इस बीच गुलशन नंदा की तबियत भी ख़राब रहने लगी थी, फिर भी उस दौर में उनकी कई अच्छी फ़िल्में आईं।
गुलशन नंदा के उपन्यासों पर बहुत सी फ़िल्में बनी जिनमें 12 से ज़्यादा फ़िल्में जुबली हिट रहीं। उनकी आख़िरी फिल्म नज़राना 1987 में आई थी, लेकिन उसकी रिलीज़ से दो साल पहले ही 16 नवंबर 1985 को वो इस दुनिया से चले गए। मगर “एंटरटेनर पर एक्सेलेन्स” माने जाने वाले गुलशन नंदा ने अपने समय में वो स्टेटस पाया कि पॉकेट बुक्स के इतिहास में आज तक कोई लेखक न तो लोकप्रियता में, न ही सेल्स में उनके नज़दीक पहुँच पाया। वो अपनी तरह के अकेले लेखक थे जो पॉकेट बुक में भी कामयाब हुए और फ़िल्मों में भी अपार सफलता पाई।
गुलशन नंदा की फ़िल्मोग्राफ़ी
- पुनर्जन्म (1963) – तेलुगु फ़िल्म (कहानी)
- शहनाई (1964) – कहानी
- फूलों की सेज (1964) – अँधेरे चिराग़ उपन्यास पर आधारित
- काजल (1965) – माधवी उपन्यास पर आधारित
- सावन की घटा (1966) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- पत्थर के सनम (1967) – कहानी
- नीलकमल (1968) – कहानी
- वासना (1968) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- कटी पतंग (1970) – उपन्यास पर आधारित
- खिलौना (1970) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- शर्मीली (1971) – कहानी
- चिंगारी (1971) – कहानी
- नया ज़माना (1971) – कहानी
- बाबुल की गालियाँ (1972) – कहानी
- अनोखी पहचान (1972) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- दाग़ (1973) – कहानी
- झील के उस पार (1973) – उपन्यास पर आधारित
- हँसते ज़ख़्म (1973) – कहानी
- जुगनू (1973) – कहानी
- जोशीला (1973) – कहानी
- दो आंखें (1974) – कहानी
- छोटे सरकार (1974) – कहानी
- अजनबी (1974) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- भँवर (1976) – कहानी
- महबूबा (1976) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- डार्लिंग डार्लिंग (1977) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- आज़ाद (1978) – कहानी
- दिल का हीरा (1979) – कहानी
- पतिता (1980) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- दो प्रेमी (1980) – कहानी
- हथकड़ी (1982) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- मेंहदी (1983) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- बड़े दिलवाला (1983) – कहानी
- मैं आवारा हूँ (1983) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- बिंदिया चमकेगी (1984) – कहानी और स्क्रीनप्ले
- बादल (1985) – स्क्रीनप्ले
- सलमा (1985) – कहानी
- पाले ख़ाँ (1986) – कहानी
- नज़राना (1987) – कहानी