पिता को वो महान व्यक्ति कहा गया है जो अपने बच्चों की ज़रुरतों, अरमानों और सपनों को पूरा करने के लिए जी-जान लगा देता है। दिन रात मेहनत करता है ताकि उसके बच्चों को वो सब मिल सके जिसकी कमी उन्होंने महसूस की। लेकिन जाने क्यों समाज ने, साहित्य ने और फ़िल्मों ने भी पिता को सिर्फ़ विलेन बना के रख दिया।
माँ की महानता पर बहुत कुछ लिखा गया है कहा गया है मगर पिता पर लिखते हुए सभी ने थोड़ी कंजूसी कर दी। कभी-कभी तो लगता है कि लोगों ने शायद इस डर से पिता पर नहीं लिखा कि कहीं माँ को बुरा न लग जाए। पढ़ने-सुनने में ये बात अजीब लग सकती है मगर परिवारों में ऐसा अक्सर होता है। माता-पिता एक दूसरे से कितना भी प्यार करें पर औलाद पर माएँ अपना पहला हक़ समझती आई हैं। शायद इसलिए कि वो अपना प्यार दुःख-दर्द सब अपने बच्चों के साथ बाँटती हैं इसीलिए बच्चे भी माँ से जल्दी जुड़ते हैं और बेहतर समझते हैं।
पिता क्यों ज़रुरी
आजकल यूँ तो सिंगल पेरेंटिंग बहुत चलन में है मगर बच्चों की सही परवरिश के लिए माता और पिता दोनों के साथ की ज़रूरत होती है। माँ बच्चों को हर बुरी चीज़ से दूर रहने की सलाह देती है वहीं पिता सिखाते हैं कि बुरी चीज़ों / लोगों का सामना किस तरह किया जाए और किस तरह समाज में ख़ुद की पहचान स्थापित की जाए। मनोवैज्ञानिक रूप से भी पिता का साया बच्चों के लिए ज़रुरी होता है क्योंकि बहुत सी बाहरी दुनिया की बातें जो वो सिखा पाते हैं वो माँ नहीं सिखा पाती।
पिता के साथ बच्चा सुरक्षित महसूस करता है। जिन बच्चों का बचपन पिता के साये से महरुम रहता है वो अक्सर एक सुरक्षित वातावरण की कमी महसूस करते हैं और उम्र भर इसका असर उनके व्यक्तित्व पर दिखाई देता है। कितना भी कह लें कि समाज बदल गया है पर आज भी उन्हीं बच्चों को इज़्ज़त मिलती है जिनके पापा का नाम बच्चों के नाम के साथ जुड़ा होता है।
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पिता की भूमिका – पहले और अब
मेरी एक कलीग थी जब भी वो थक जाती तो कहती ओह पापा ! अमूमन हम ऐसा नहीं सुनते, क्योंकि अक्सर लोग या तो ओह माँ ! बोलते हैं या हे भगवान !, या अल्लाह !, oh God ! उस दिन मैंने सोचा वाक़ई हम कितनी छोटी-छोटी बातों में भी पिता को नज़रअंदाज़ करते हैं। जानबूझकर नहीं मगर बचपन से ही शायद पिता की छवि ऐसी बना दी जाती है कि बच्चे चाहें भी तो उनसे खुलकर बात नहीं कर पाते।
- पहले पिता आदर्श होते थे
- शिक्षक होते थे
- बच्चों और उनके बीच एक अनकही लकीर थी जिसके कारण बातचीत नहीं हो पाती थी
- उन का व्यवहार बहुत सधा हुआ और ज़िम्मेदाराना होता था शायद इसीलिए बच्चे उनसे डरते थे
अब समाज में पिता की भूमिका बहुत बदल गई है, अब वो पापा हैं, Father हैं, Dad हैं।
- वो आज भी रोल मॉडल हैं मगर पहले वाले नहीं, बल्कि आज एक दोस्त ज़्यादा हैं इसीलिए बच्चे अपनी हर बात खुलकर अपने उन से कर लेते हैं। आज कल बच्चों और पापा के बीच वो दीवार नहीं होती जो पहले हुआ करती थी।
- पिता आज भी सिखाते हैं, शिक्षक हैं मगर तरीक़ा बदल गया है। क्योंकि बच्चे वही करते हैं जो पापा को करते हुए देखते हैं इसीलिए आज के पापा बहुत सावधान रहते हैं कि कहीं उनका बच्चा उनसे कुछ ग़लत बातें तो नहीं सीख रहा।
- आज पिता भी जवाबदेह हैं। पहले उनके आगे सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की जाती थी मगर आज वो अपने परिवार अपने बच्चों के प्रति जवाबदेह हैं इसलिए उनकी ज़िम्मेदारी पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है।
पिता ढोते हैं उम्मीदों का बोझ
एक पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है जब वो अपने बच्चों की आँखों में ख़ुद को एक रोल मॉडल की तरह देखते हैं। छोटे-छोटे बच्चों के मुंह से ऐसे जुमले आपने भी सुने होंगे –
मेरे पापा सबसे स्ट्रांग हैं
My Daddy is my Hero
My Daddy is best
मेरे पापा सुपरमैन हैं
मैं पापा को बोल दूँगा वो आपकी पिटाई करेंगे
मेरे पापा मेरे लिए ढेर सारी चॉकलेट्स लेक आएँगे
बच्चों के मुँह से निकले इस तरह के जुमले जहाँ एक पिता का सीना गर्व से चौड़ा कर देते हैं वहीं जाने-अनजाने उन के काँधों पर ढेर सारी उम्मीदों का बोझ भी डाल देते हैं। वो अपने बच्चों का हीरो, सुपरमैन बनने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं। उन्हें बेस्ट देने में अपनी पूरी ताक़त झोंक देते हैं, कई बार तो इतनी कि न मैन बचता है न ही उसकी वो सुपर पावर।
फादर की हर समाज में एक अहम् भूमिका होती है। माँ अगर धरती कही गई है तो पिता को आसमान माना गया है। और बच्चों को दोनों की बराबर ज़रुरत होती है। वीमेन एम्पावरमेंट की बातें फादर की इम्पोर्टेंस को कम नहीं कर सकती ं। औरतें कितनी भी सशक्त क्यों न हो गई हों, हमारी सोसाइटी आज भी मेल डोमिनेंट है और पदवी कोई भी हो उसे बरक़रार रखने के लिए ख़ासी क़ीमत चुकानी पड़ती है, जो पिता भी चुकाते हैं। ये अलग बात है कि उस पर बात बहुत कम होती है।
अपना दबदबा क़ायम रखने के लिए हमें ख़ुद को ताक़तवर दिखाना पड़ता है, उस वक़्त भी जब आप टूटने के कगार पर हों, अपनी कमज़ोरियों से हार रहे हों। लेकिन फादर ऐसा नहीं दिखा सकते क्योंकि कोई बच्चा अपने पिता को हारते टूटते नहीं देखना चाहता क्योंकि पिता उनका सुपरहीरो होता है। एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास हर मुश्किल का हल होता है।
कुछ रवायती पिताओं को छोड़ दिया जाए तो… कहा यही जाता है कि बेटियाँ पिता के क़रीब होती हैं और बेटे माँ के। साइकोलॉजी में इन रिश्तों के लिए ख़ास टर्म भी हैं। तो आपको ये जानकार कोई हैरानी नहीं होगी कि फ़ादर्स डे शुरुआत एक बेटी ने की थी, बेटियों का लगाव भी अपने पिता से बहुत ज़्यादा होता है मगर बेटे भी अपने पापा से काफ़ी अटैच्ड होते हैं। भले ही एक उम्र के बाद ज़्यादातर घरों में बाप-बेटे के बीच तनातनी आम बात है लेकिन ये भी उतना ही सही है कि अपनी संतान को जन्म देने के बाद कहीं न कहीं वो भी अपने पिता जैसे ही हो जाते हैं। मगर क्यों ?
क्यों होते है पिता कठोर
हर समाज में पिता से बहुत सी अपेक्षाएँ की जाती हैं। वो घर की ज़िम्मेदारी उठाए, सबकी ख़्वाहिशों को पूरा करे, और आजकल तो ऑफिस के साथ-साथ घर भी संभाले और बच्चों की देखभाल भी करे, वो भी बिना किसी शिकायत के। उस पर भी लगातार बच्चों और पत्नी द्वारा अपनी तुलना का भय बना रहता है, लेकिन अपनी कमियाँ मजबूरियाँ वो घरवालों के आगे नहीं दिखा सकता, उससे ये उम्मीद की जाती है कि ऑफिस के कम्पटीशन को, बॉस की झाड़ को, बाहर की दुनिया में मिलने वाली आलोचनाओं, अवहेलनाओं, प्रताड़नाओं को वो छुपा के रखे, या ऑफिस में ही छोड़ कर आए, कम से कम अपने बच्चों के आगे तो न दिखाए।
आख़िर वो मर्द है और मर्द को दर्द नहीं होता। लेकिन दर्द सबको होता है दिल सबका रोता है बस पिता को अपना दुःख अपनी पीड़ा को कहने की इजाज़त नहीं होती। माँ तो अपने दुःख-दर्द कह-सुन लेती है, अपने बच्चों के आगे रो लेती है, एक बाप वो भी नहीं कर पाता। क्योंकि उसने अपने बाबा को भी ये मज़बूत चट्टान वाला खोल पहने देखा था। इसलिए वो अपनी कमज़ोरियों के साथ ख़ुद को उसी खोल में बंद कर लेता है। जब बर्दाश्त नहीं कर पाता है तब या तो वो आक्रोश ग़ुस्से की शक़्ल में बाहर निकलता है, या अवसाद, लत शक्ल अख़्तियार कर लेता है।
पिता को इंसान ही रहने दो
हमने माँ-बाप को इंसान रहने कहाँ दिया है ! उन्हें देवी-देवता बना कर रख दिया है जिनसे कोई ग़लती हो ही नहीं सकती, जो कमज़ोर पड़ ही नहीं सकते। हम सोचते हैं वो कभी अशक्त होंगे ही नहीं, हमेशा एक हीरो जैसे रहेंगे लेकिन जब उन्हें कमज़ोर पड़ता देखते हैं, अशक्त होते देखते हैं तो सहन नहीं कर पाते। मान नहीं पाते कि ये वही इंसान हैं जिसने कभी हमारे लड़खड़ाते क़दमों को सहारा दिया था, भीड़ में काँधों पर चढ़ा कर सुरक्षा दी थी, दूर आसमान में तारे दिखाए थे, दुनिया को देखने का नजरिया दिया था, कितना कुछ सिखाया था।
हमने उन्हें एक ऊँची पदवी पर बैठा दिया है, उस ऊँचाई से वो ज़रा नीचे आते हैं तो हम बर्दाश्त नहीं पाते। जाने कौन सा डर होता है हमारे भीतर कि हम उन्हें इंसान रहने ही नहीं देते। आइडियल बनाना अच्छी बात है पर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आइडियल भी हमारी तरह एक इंसान ही होता है। ये ठीक है कि पिता एक उम्मीद, एक हिम्मत और विश्वास है, जब बच्चे का जीवन संघर्ष के थपेड़े सहता है तो पिता ही मज़बूत दीवार बनकर उनके जीवन की छत को थामे रहते हैं मगर पिता एक इंसान भी है जिससे कुछ ग़लतियाँ भी हो सकती हैं और जो कमज़ोर भी पड़ सकता है।
हमें भी उनके दोनों पक्षों को स्वीकार करना होगा। एक वक़्त के बाद जब उस मज़बूत दीवार को सहारे की ज़रुरत हो तो उनका सहारा बनना होगा। क्योंकि एक दिन आप भी उनकी जगह होंगे और अपने बच्चों से यही अपेक्षा करेंगे। तो एक वक़्त में पिता को चाहे सुपरमैन बनाएँ या ही-मैन पर उनके भले के लिए उन्हें सिर्फ़ एक मैन रहने दें।
Excellent work mam..
happy fathers aday