नाम में क्या रखा है ? ऐसा शेक्सपियर ने कहा था। लेकिन नाम के लिए तो लोग ऐसे-ऐसे काम कर जाते हैं कि जान की परवाह भी नहीं करते। फ़िल्मों की बात करें तो ऐसे कितने कलाकार हुए हैं जिन्होंने फ़िल्मों में आकर अपना नाम सिर्फ़ इसलिए बदला क्योंकि उनका नाम फ़िल्मों के अनुकूल नहीं था। या पहले से फ़िल्मों में उस नाम का कोई कलाकार स्थापित था।तो ये बात तो बिल्कुल नहीं मानी जा सकती कि नाम में कुछ नहीं रखा। कितने ही confusion सिर्फ़ नाम की वजह से हो जाते हैं।
नाम और उपनाम की उलझन
नाम के अलावा सरनेम की वजह से बहुत से कलाकारों को लेकर ग़लतफ़हमी होने लगती है। जैसे बहुत से लोग चमन पुरी, मदन पुरी, ओम पुरी, ओम शिवपुरी और अमरीशपुरी को भाई या रिश्तेदार मानते हैं क्योंकि सबके सरनेम में पुरी है। जबकि सच ये है कि इनमें से सिर्फ़ चमन पुरी, मदन पुरी और अमरीश पुरी भाई हैं बाक़ी किसी का आपस में कोई रिलेशन नहीं है। आजकल मीडिया एक्सपोज़र बहुत है इसीलिए Kapoors को लेकर इतनी ग़लतफ़हमियाँ नहीं होतीं वरना पृथ्वीराज कपूर का ख़ानदान और दूसरे फ़िल्मी कपूर जैसे अन्नू कपूर और आदित्य रॉय कपूर को भी रिश्तेदार मान लिया जाता।
जीवन ने जिस फ़िल्म में पहली बार नारद मुनि का रोल किया था उसमें बाल कलाकार के तौर पर शशि कपूर का नाम मिलता है। दूसरे लोगों की तरह पहले मैंने भी यही सोचा कि ये पृथ्वीराज कपूर के बेटे शशि कपूर हैं, जिन्हें हम सब एक हैंडसम स्टार के तौर पर जानते हैं। लेकिन बाद में पता चला कि वो कोई दूसरे शशि कपूर थे। इस उलझन के बढ़ने की एक वजह है इंटरनेट क्योंकि यहाँ कोई भी कुछ भी लिख सकता है, बोल सकता है। कितने ही लोग बिना किसी प्रॉपर रिसर्च के कुछ भी इंटरनेट पर डाल देते हैं, ऐसे में सच और झूठ सब गड़बड़ा जाते हैं।
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अक्षय कुमार-अक्षय खन्ना, अनिल कपूर-अनिल धवन जैसे नामों में तो सरनेम अलग होने की वजह से अंतर किया जा सकता है। लेकिन सदी गुज़रने के बाद, ख़ासकर जबकि शुरूआती दौर के कलाकारों या फ़नकारों की ज़्यादातर जानकारी हमारे पास नहीं है ऐसे में बहुत से नामों को लेकर असमंजस की स्थिति होना बहुत आम है। जैसे सुलोचना, ज़ुबैदा, मनोरमा, गौहर, रतनबाई, नलिनी, राजकुमारी, मीनाक्षी, श्याम, राजकुमार, असित सेन, जगमोहन, अमरनाथ ऐसे कितने ही नाम हैं। लेकिन शुरुआत करते हैं शशि कपूर से।
नाम है शशि कपूर
जो शशि कपूर फ़िल्म इंडस्ट्री में मशहूर हैं वो हैं प्यारी सी स्माइल और टूटे दाँत वाले पृथ्वीराज कपूर के सुपुत्र शशि कपूर। उनकी शुरुआत भी बतौर बाल कलाकार ही हुई थी और यही है confusion की वजह। इन शशि कपूर का जन्म हुआ था 18 मार्च 1938 को और उन्होंने बतौर बाल कलाकार पहली बार अपने बड़े भाई राज कपूर की फ़िल्म “आग” में काम किया था जो 1948 में आई थी। इसके बाद उनकी आग, आवारा, पैसा जैसी कुछ और फ़िल्में आईं, जिनमें वो बतौर बाल कलाकार दिखाई दिए।

दूसरे जो शशि कपूर हैं, उनका पूरा नाम है शशि चंद कपूर। वो प्रोडूसर फ़तेह चंद कपूर के बेटे और गायक महेंद्र कपूर के कजिन हैं। मीना (1944), बचपन (1945), तदबीर (1945), डॉ कोटनिस की अमर कहानी(1946), भक्त ध्रुव (1947), रेणुका (1947), भक्त गोपाल भैया (1948), शहीद (1948), सती अहिल्या (1949), राम दर्शन (1950), समाधि (1950), वीर बब्रुवाहन (1950), मुरलीवाला (1951), मोरध्वज (1952), संस्कृति (1952), दाना पानी (1953), महापूजा (1954) उनकी कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं।
7 सितम्बर 1934 को जन्मे शशि (चंद) कपूर ने कोई 21 फ़िल्मों में काम किया। लेकिन फ़िल्मों से ज़्यादा इंटरेस्ट उन्हें मैथमेटिक्स में आता था तो उन्होंने अपनी पढ़ाई को ज़्यादा गंभीरता से लिया। जिस साल उन्होंने अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री ली उसी साल उनकी आख़िरी फ़िल्म आई भागवत महिमा (55)। फिर उन्होंने MSc की और LLB करने के कुछ सालों बाद वो USA जाकर बस गए। उन्होंने मिशिगन यूनिवर्सिटी से PhD कम्पलीट की और प्रोफ़ेसर के तौर पर रिटायर हुए। ज़्यादातर पौराणिक फ़िल्मों में यही शशि कपूर परदे पर अभिनय करते नज़र आए।
श्याम चड्ढा और श्याम कुमार
श्याम नाम के कई अभिनेता हुए श्याम लाल, श्याम लाहा लेकिन श्याम नाम के दो अभिनेता बहुत मशहूर हुए, एक श्याम चड्ढा और दूसरे श्याम कुमार। श्याम चड्ढा का जन्म 20 फ़रवरी 1920 को हुआ। ये वो श्याम हैं जिनकी सआदत हसन मंटो से गहरी दोस्ती थी। श्याम बहुत हैंडसम थे और उनकी अपने वक़्त में काफ़ी डिमांड थी लेकिन जब उन्होंने ग्रेजुएशन के बाद बॉम्बे टॉकीज़ में स्क्रीन टेस्ट दिया था तो वो फ़ेल हो गए थे। लेकिन बाद में उन्होंने फ़िल्मों में अपनी ख़ास जगह बनाई और अपने दौर में बेहद मक़बूल हुए।
उनकी मशहूर फ़िल्में हैं – सोसायटी (1942), तमाशा (1942), मन की जीत (1944), मजबूर (1948), शिकायत (1948), बाज़ार (1949), चाँदनी रात (1949), चार दिन (1949), दादा (1949), दिल्लगी (1949), कनीज़ (1949), नाच (1949), पतंगा (1949), रात की रानी (1949), छोटी भाभी (1950), मीना बाज़ार (1950), निर्दोष (1950), समाधि (1950), संगीता (1950), सूरजमुखी (1950), काले बादल (1951), शबिस्तान (1951)
‘शबिस्तान’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी, इसी की शूटिंग के समय उनकी घोड़े से गिरकर मौत हो गई थी। जिस दौर में श्याम फ़िल्मों में आए थे उस दौर में कलाकार अपने गाने ख़ुद गाया करते थे प्लेबैक आ चुका था और सुरैया, नूरजहाँ जैसे कलाकार अपने गीत ख़ुद ही गाते थे मगर श्याम ने कभी फ़िल्मों में गीत नहीं गाये। बल्कि इंटरेस्टिंग ये है कि उन पर फ़िल्माया गीत “तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी” दूसरे श्याम यानी श्याम कुमार ने गाया।

श्याम कुमार को आपने बतौर विलेन या चरित्र कलाकार के रुप में फ़िल्मी परदे पर देखा होगा। एक्टर-सिंगर श्याम कुमार का जन्म हुआ 1913 में, पुणे के पठान परिवार में। उनका असली नाम था सैयद गुल हामिद जो K L सहगल के गीतों के दीवाने थे और उनकी नक़्ल किया करते थे और फिर फ़िल्मों में क़िस्मत आज़माने बम्बई आ पहुंचे। भगवान दादा उनके डील-डौल से काफ़ी प्रभावित हुए, शायद इसलिए क्योंकि उन्हें भी कसरत का बहुत शौक़ था। श्याम कुमार के अभिनय सफ़र की शुरुआत भगवान दादा की ही 1942 में आई फ़िल्म “सुखी जीवन” से हुई।
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श्याम कुमार को हीरो के मौक़े उन्हें बहुत कम मिले वो भी बाद के दौर में, उन्होंने विजयगढ़ (1954), राष्ट्रवीर शिवाजी (1962), जंगल बॉय (1963), कृष्णावतार (1964), और चार चक्रम (1965) में ही हीरो की भूमिका निभाई। गाने का शौक़ श्याम कुमार को बम्बई लाया था और उन्होंने अपना पहला गाना गाया 1942 की फ़िल्म “शारदा” में और आख़िरी बार उनकी आवाज़ सुनाई दी फ़िल्म 1962 की फ़िल्म “तिलिस्मी दुनिया” में। इसके बाद उन्होंने गाना गाना बंद कर दिया था, लेकिन 1976 तक वो फ़िल्मों में अभिनय करते रहे।
शारदा (1942), नमस्ते (1943), क़ानून (1943), संजोग (1943), पहले आप (1944), रतन (1944), छमिया (1945), सन्यासी (1945), दिल्लगी (1949), घराना (1949), भगवान श्री कृष्ण (1950), लचक (1951), आन (1952), ममता (1952), निर्मल (1952), चाचा चौधरी (1953), गुज़ारा (1954), विजय गढ़ (1954), तिलस्मी दुनिया (1962) जैसी क़रीब 20 फ़िल्मों में उन्होंने 34 गाने गाए। 22 अप्रैल 1981 को गले के कैंसर की वजह से उनका निधन हो गया।
श्याम चड्ढा और श्याम कुमार ने लगभग एक ही साथ अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत की थी और उस दौर की बहुत सी फिल्में उपलब्ध भी नहीं हैं इसलिए जो जानकारी मौजूद है उसमें ग़लती की गुंजाइश हो सकती है। क्योंकि कई जगह फ़िल्में सिर्फ़ श्याम के नाम से लिस्टेड हैं उनसे ये समझना थोड़ा मुश्किल है कि वो श्याम चड्ढा थे या श्याम कुमार।
श्याम सुन्दर अभिनेता या संगीतकार ?!
श्याम नाम फ़िल्मों में काफ़ी कॉमन है, श्याम बेनेगल के नाम से तो सभी परिचित होंगे लेकिन अगर संगीतकारों की बात करें तो श्याम बाबू पाठक नाम के एक कम मशहूर संगीतकार हुए जिन्होंने 40-50 के दशक की कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया। श्यामजी घनश्यामजी नाम के भी एक संगीतकार थे जिन्होंने 1974 की फ़िल्म धुएँ की लकीर से अपने करियर की शुरुआत की। ठोकर फिल्म का गीत “मैं ढूँढता हूँ जिनको रातों को ख़यालों में” उन्हीं के संगीत से सजा है।
श्याम सुन्दर गाबा जो आमतौर पर श्यामसुंदर के नाम से जाने जाते हैं अपने समय के बहुत ही रेस्पेक्टेड संगीतकार रहे हैं। अपने साथी संगीतकारों के बीच भी उन्होंने काफ़ी इज़्ज़त पाई। वो एक बेहतरीन वॉयलिन वादक थे और उस्ताद झंडे खाँ के ऑर्केस्ट्रा में वॉयलिन बजाया करते थे। उस समय के एक और बेहतरीन संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर ने उन्हें वॉयलिन बजाते देखा और फिर अपना सहायक बना लिया, उन्हीं की वजह से श्याम सुन्दर को संगीतकार के तौर पर अपनी पहली फ़िल्म मिली जो कि एक पंजाबी फ़िल्म थी।
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दस साल के अपने छोटे से करियर में उन्होंने ऐसी अद्भुत धुनें दीं जिन्हें आम लोग सालों तक गुनगुनाते रहे। उनके संगीत से सजी कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं – नई कहानी (1943), भाई (1944), भाईजान (1945), गांव की लड़की (1945), देव कन्या (1946), एक रोज़ (1947), अभिनेत्री (1948), बाज़ार (1949), चार दिन (1949), लाहौर (1949), भाई बहन (1950), कमल के फूल (1950), निर्दोष (1950), ढोलक (1951), मुखड़ा (1951), अलिफ़ लैला (1953)

लेकिन संगीतकार श्याम सुन्दर को एक और वजह से भी याद किया जाता है, वो हैं मोहम्मद रफ़ी। जिस पंजाबी फ़िल्म “गुल बलोच”(45) में मोहम्मद रफ़ी ने अपना पहला गाना गाया था उसका संगीत श्याम सुंदर ने ही दिया था। उन्होंने ही मोहम्मद रफ़ी की प्रतिभा को पहचाना और इस फ़िल्म में गीत (सोनिये नी हीरिये नी) गाने का मौक़ा दिया।
बहुत से लोगों का मानना है कि संगीतकार श्याम सुन्दर ने फ़िल्मों में अभिनय भी किया। लेकिन एक्टर श्याम सुन्दर और संगीतकार श्याम सुन्दर दो अलग-अलग व्यक्ति थे। दोनों एक ही दौर में थे शायद इसीलिए ये ग़लतफ़हमी हुई होगी। एक्टर-सिंगर श्याम सुन्दर को कृष्णा फिल्म कंपनी ने एक बाल कलाकार के तौर पर लांच किया था। उनकी पहली फिल्म थी 1934 में आई “भक्त के भगवान”, 1935 में आई फ़ैशनेबल इंडिया में उन्होंने एक गाना भी गाया।
1935 से 1960 तक उन्होंने क़रीब 44 फ़िल्मों में अभिनय किया, और 8 फ़िल्मों में लगभग 16 गाने गाए। एक अभिनेता के रूप में वो निम्नलिखित फ़िल्मों में दिखाई दिए –
- भक्त के भगवान (1934),
- सखी लुटेरा (1934),
- बढ़े चलो (1937),
- ख़ुदाई ख़िदमतगार (1937),
- स्वराज के सिपाही (1937),
- मि. एक्स (1938),
- प्रेम समाधि (1938),
- स्नेह लगन (1938),
- बिजली (1939),
- हुकुम का इक्का (1939),
- लेदर फेस (1939),
- धर्म बंधन (1940),
- याद रहे (1940),
- मधुसूदन (1941),
- ख़ामोशी (1942),
- प्रीतम (1942),
- तलाश (1943),
- सन्यासी (1945),
- श्री कृष्ण अर्जुन युद्ध (1945),
- हूर ए जंगल (1946),
- नामुमकिन (1946),
- तूफ़ान क्वीन (1946),
- मेरे भगवान (1947),
- स्टंट क्वीन (1947),
- 11 O’Clock (1948),
- जय हिन्द (1948),
- माला द माइटी (1948),
- दिल्ली एक्सप्रेस (1949),
- धूमकेतु (1949),
- जोकर (1949),
- वीर घटोत्कच (1949),
- सर्कस वाले (1950),
- जोड़ीदार (1950),
- प्रीत का गीत (1950),
- स्वदामिनी (1950),
- हमारी शान (1951),
- हैदराबाद की नाज़नीन (1952),
- चाचा चौधरी (1953),
- शमशीर बाज़ (1953),
- शेर दिल (1954),
- जय महादेव (1955),
- राज दरबार (1955),
- क़ैदी (1957),
- लम्बे हाथ (1960)
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निम्नलिखित 8 फिल्मों में उन्होंने अभिनय भी किया और 16 गाने भी गाए –
- फैशनेबल इंडिया (1935)
- रोमांटिक इंडिया (1936)
- हीरो नंबर 1 (1939)
- अनुराधा (1940)
- सर्विस (1942)
- हंटरवाली की बेटी (1943)
- दिल की रानी (1947)
- जंगल का जवाहर (1952)
गौहर vs गौहर
फ़िल्मों में साइलेंट एरा से लेकर आज तक कई गौहर आ चुकी हैं, जिनमें से ज़्यादातर की तस्वीरें भी उपलब्ध नहीं हैं। गौहर नाम आते ही सबसे पहले सिंगर गौहर जान का नाम याद आता है लेकिन मुश्किल ये है कि गौहर जान नाम की कोई एक गायिका नहीं थीं। एक गौहर जान शोलापुर वाली गायिका थीं जिनकी रिकॉर्डिंग्स पब्लिक प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध नहीं हैं। एक गौहर जान जयपुर वाली थीं जिनके बारे में जानकारी भी उपलब्ध नहीं हैं।
सिंगर के तौर पर जिस गौहर जान का ज़िक्र बहुत ज़्यादा मिलता है, वो हैं – गौहरजान कलकत्ते वाली, जो ग्रामोफ़ोन गर्ल के नाम से मशहूर हुईं। क्योंकि वो भारत में 78 आरपीएम रिकॉर्ड पर गीत रिकॉर्ड करने वाली पहली कलाकारों में से एक थीं, उन रेकॉर्ड्स को बाद में ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया ने रिलीज़ किया। 1902 से 1920 के दरमियान गौहर जान ने 10 से ज़्यादा भाषाओं में 600 से ज़्यादा गाने रिकॉर्ड किए।
गौहर जान की पहली रिकॉर्डिंग ख़याल गायकी की थी जिसे 1902 में ग्रामोफोन कंपनी के फ्रेड गेसबर्ग ने रिकॉर्ड किया था। वो रिकॉर्डिंग कोलकाता के एक होटल के दो बड़े कमरों में एक टेम्प्रेरी रिकॉर्डिंग स्टूडियो बनाकर की गई थी। भारत में वो रिकार्ड्स 1903 में रिलीज़ हुए उसी के बाद से गौहर जान और ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स की लोकप्रियता और मांग बढ़ती चली गई। माना जाता है कि उस दौर में गौहर जान के उन रिकार्ड्स की वजह से ठुमरी, दादरा, कजरी और तराना जैसी शास्त्रीय गायन की विधाएँ लोकप्रिय हुईं।

एक और सिंगर हैं जो गौहर कर्नाटकी के नाम से मशहूर हुईं उन्हें मिस गौहर ऑफ़ बीजापुर भी कहा जाता है। ये अमीरबाई कर्नाटकी की बहन थीं। उन्होंने क़रीब 100 गीत गाए लेकिन अभी कुछ ही रिकॉर्ड्स मिलते हैं। उन्होंने 30s की कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया था।
गौहर नाम की अभिनेत्रियों की बात करें तो एक साइलेंट एरा की अभिनेत्री थीं गौहर, जिन्होंने कुछ साइलेंट फ़िल्मों में काम किया। दूसरी अभिनेत्री थीं मिस गौहर जो ज़्यादा मशहूर हुईं, खासकर रंजीत स्टूडियो की हेरोइन के तौर पर। इनका पूरा नाम था गौहर कयूम मामाजीवाला। इनके अभिनय सफ़र की शुरुआत तब हुई जब इनके पिता का बिज़नेस ठप हो गया था। उस समय इनके पारिवारिक मित्र फ़िल्म निर्देशक होमी मास्टर ने सुझाव दिया कि गौहर को फ़िल्मों में काम करना चाहिए।

1926 में कोहिनूर स्टूडियो की साइलेंट मूवी “fortune and the fools” से उनके फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत हुई। बाद में गौहर मामाजीवाला ने चंदूलाल शाह के साथ भागीदारी में रणजीत स्टूडियो की स्थापना की जो बाद में रंजीत मूवीटोन के नाम से जाना गया। उनकी मशहूर फ़िल्मों में देवी-देवयानी (1931), गुणसुन्दरी (1934), बैरिस्टर्स वाइफ (1935), प्रभु का प्यारा (1936) और अछूत (1940) जैसी फ़िल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।
आजकल जो गौहर हैं, वो हैं स्टाइलिश, ग्लैमरस मॉडल एक्ट्रेस गौहर ख़ान। जिन्हें हम “रॉकेट सिंह”, “इश्क़ज़ादे”, “बद्रीनाथ की दुल्हनिया” और “बेगम जान” जैसी फ़िल्मों में देख चुके हैं। वैसे सिंगर्स-एक्टर्स से अलग गौहर नाम के एक गीतकार भी हैं गौहर कानपुरी। जिनके फ़िल्मी गीत लिखने की शुरुआत तो 60 के दशक के आख़िर में ही हो गई थी मगर कामयाबी उनके हिस्से में ज़रा देर से आई।
1975 में आई ज़ख़्मी में उनके लिखे गीत काफ़ी मशहूर हुए उसके बाद “दादा”, “सावन को आने दो”, “दूल्हा बिकता है”, “जान तेरे नाम”, “बाज़ीगर” जैसी फ़िल्मों के गीत उनकी क़लम से निकले। पार्ट 1 यहीं तक, नामों की ये उलझी हुई गुत्थी आगे भी सुलझेगी क्योंकि सिनेमा में बहुत से लोगों के नाम एक जैसे हैं, उनका ज़िक्र अगले भाग में।