महात्मा गाँधी दुनिया भर में कितने लोकप्रिय रहे हैं इसका प्रमाण है उनकी जयंती 2 अक्टूबर जिसे “विश्व अहिंसा दिवस” के रूप में मनाया जाता है। मैडम तुसाद म्यूजियम में भी उनका मोम का पुतला है। और भारत में तो आज भी उनके नाम पर बहुत कुछ होता है।
भारत में कुछ चीज़ें कभी outdated नहीं होतीं – धर्म में भगवान राम, एंटरटेनमेंट में फिल्में और राजनीति में महात्मा गाँधी। भगवान राम से तो गाँधी जी का गहरा नाता रहा भी है मगर सिनेमा से बिलकुल नहीं। उन्होंने अपने पूरे जीवन में सिर्फ़ दो फ़िल्में देखीं थीं वो भी तब, जब वो बीमार थे। एक थी – माइकल कर्टेस की 1943 में आई “मिशन टू मॉस्को” जो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आई। दूसरी फ़िल्म भारतीय थी – 1943 में ही आई विजय भट्ट की “राम राज्य”। मगर सिनेमा का महात्मा गाँधी से एक अजीब सा नाता रहा है।
सिनेमा में गाँधी सिद्धांत या ब्रांड
सिनेमा की शुरुआत से नज़र डालें तो ग़ुलाम भारत में महात्मा गाँधी पर फ़ीचर फ़िल्म बनाना तो संभव ही नहीं था। क्योंकि अंग्रेज़ वैसे ही उन से इतना ख़ौफ़ खाते थे कि अगर किसी फ़िल्म के नाम में भी “महात्मा” शब्द हो तो फ़िल्मकार को फ़िल्म का नाम तक बदलना पड़ता था, तो गाँधी जी के जीवन पर फ़ीचर फ़िल्म बनाना तो किसी हाल में मुमकिन नहीं था। हाँ, कुछ स्टुडिओज़ ने उनके दिखाए सिद्धांतों को ज़रुर डायरेक्ट-इनडाइरेक्ट फ़िल्मों में दिखाया। लेकिन एक अनोखी बात ये रही कि फ़िल्म पब्लिसिटी में उनके नाम का काफ़ी इस्तेमाल हुआ।
साइलेंट एरा की उनकी एक साइलेंट रील मौजूद है, और जब आवाज़ कैप्चर करने की सुविधा आई तो उनका एक इंटरव्यू भी मिलता है जो 1931 का कहा जाता है। इस तरह के शॉट्स और रिकॉर्डिंग्स को कई फ़िल्मों के इंटरवल के दौरान दिखाया गया और फ़िल्म के पोस्टर में इसका जमकर प्रचार किया गया (1933 की चिंतामणि का पोस्टर) कितनी फिल्में तो ऐसी थीं जिनका महात्मा गाँधी या उनके विचारों और सिद्धांतों से सीधे-सीधे कोई वास्ता नहीं था, मगर फ़िल्मी पोस्टर्स में इसी तरह से प्रचार किया गया जैसे वो फ़िल्में ख़ासतौर पर सत्य अहिंसा धर्म-अधर्म जैसे बापू के सिद्धांतों पर बनी हों।
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माया मछिन्द्र (32), जंगल किंग(39), हीरो नं1(39) पयाम-ए-हक़ a.k.a. नीतिविजय (39), रॉयल कमांडर(39), शिव जन्म(39) ऐसी ही कुछ फ़िल्में थीं। महात्मा गाँधी पर बनी पहली सीरियस डॉक्यूमेंट्री आई -1940 में, जिसके लिए A K चेट्टियार ने तीन साल तक दुनिया भर में घूम-घूम कर फुटेज इकठ्ठा की थी। ये एक तरह से उनके राजनीतिक यात्राओं, भाषणों और क्रिया- कलापों का संग्रह था। उस दौरान विदेशों में विदेशी कलाकारों को लेकर कुछ फ़िक्शनल फ़िल्में ज़रुर बनी मगर वो कोई बढ़िया इम्पैक्ट नहीं डाल पाईं।
आज़ादी के बाद बापू पर बनी फ़िल्में
आज़ादी के बाद भी उनके जीवन पर गंभीरता से नज़र डालने वाली फ़िल्म बनने में क़रीब 2 दशक लग गए। 1968 में “गाँधी नेशनल मेमोरियल फंड” और “फिल्म्स डिवीज़न” के सहयोग से एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनी “महात्मा – लाइफ ऑफ़ गाँधी 1869 टू 1948”, इस डॉक्यूमेंट्री के कई version हैं, हिंदी में इसकी अवधि थी क़रीब सवा दो घंटे इसके अलावा 5 घंटे का इंग्लिश version और डेढ़ घंटे से ऊपर का जर्मन version। इस ब्लैक एंड वाइट डॉक्यूमेंट्री में एनीमेशन, पुरानी तस्वीरों और लाइव फोटोग्राफ़ी के ज़रिए महात्मा गाँधी की ज़िंदगी पर रोशनी डाली गई।
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महात्मा गाँधी पर बनी पहली फ़ीचर फ़िल्म एक विदेशी ने बनाई
महात्मा गाँधी पर फ़ीचर फ़िल्म आने में और 14 साल लगे और कमाल की बात है कि वो भी किसी भारतीय ने नहीं बनाई थी और न ही मुख्य किरदार किसी भारतीय कलाकार ने निभाया था, लेकिन इसे उनके राजनीतिक जीवन पर बनी सबसे विश्वसनीय फ़िल्म माना जाता है। ये थी, इंडिया और UK का को-प्रोडक्शन “गाँधी” जो 1982 में रिलीज़ हुई। इसके निर्माता-निर्देशक थे रिचर्ड एटनबरो और महात्मा गाँधी जी का किरदार निभाया था बेन किंग्सले ने, जिनके पिता भारतीय गुजराती थे और इसीलिए उनका चुनाव किया गया था। उन्होंने वाक़ई महात्मा गाँधी को परदे पर जीवंत कर दिया था।
“गाँधी (1982)” की झोली में अकादमी अवार्ड्स समेत दुनिया भर के अवार्ड्स आए और सालों तक यही इकलौती फ़िल्म हुआ करती थी जो 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को सभी टीवी चैनल्स पर दिखाई जाती थी, कुछ चैनल्स तो अब भी दिखाते हैं। इसके बाद अगली महत्वपूर्ण फ़िल्म आने में फिर 14 साल लग गए। ये फ़िल्म थी 1996 में आई “द मेकिंग ऑफ़ महात्मा”। ये भी इंडिया और साउथ अफ़्रीका का जॉइन्ट वेंचर थी, जिसका निर्देशन किया था श्याम बेनेगल ने और इसमें लीड रोल में दिखे रंजीत कपूर।
इंग्लिश में बनी ये फ़िल्म “द मेकिंग ऑफ़ महात्मा” फातिमा मीर की किताब पर आधारित है। इसमें महात्मा गाँधी के जीवन के उन दिनों पर दृष्टि डाली गई है जो उन्होंने साउथ अफ़्रीका में बिताए थे। इस फ़िल्म को बेस्ट इंग्लिश फ़ीचर फ़िल्म के नेशनल अवार्ड से नवाज़ा गया और रंजीत कपूर को युवा गाँधी के किरदार को कामयाबी से निभाने के लिए मिला बेस्ट एक्टर का नेशनल अवार्ड।
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सदी बदलते हुए देश के वीर नायकों पर फ़िल्म बनाने का सिलसिला चल पड़ा था। उस दौरान कई बायोपिक्स आईं जैसे “लेजेंड ऑफ़ भगत सिंह”, “नेताजी सुभाष चंद्र बोस”, “बाबा साहेब आंबेडकर” और “सरदार” जो सरदार वल्लभ भाई पटेल के जीवन पर बनी, केतन मेहता की इस बायोपिक में सरदार पटेल की मुख्य भूमिका में थे परेश रावल और महात्मा गाँधी का रोल किया अन्नू कपूर ने। “संविधान” और “द लास्ट डेज ऑफ़ द राज” जैसी कुछ टीवी फिल्म्स और सीरीज़ भी आईं जिन में गाँधी जी एक किरदार की तरह शामिल तो रहे मगर वो मुख्य पात्र नहीं थे। इनमें बापू को फ़िल्म के सेंट्रल कॅरक्टर की नज़र से दिखाया गया था।
बापू के सिद्धांतों को दर्शाती फ़िल्में
वक़्त-वक़्त पर ऐसी कई फ़िल्में बनती रहीं जिनमें गाँधी जी के सिद्धांतों और जीवन मूल्यों पर डायरेक्ट इनडायरेक्ट फ़ोकस किया गया। ऐसी फ़िल्मों में “नया दौर”, “जागृति”, “पैग़ाम”, “जिस देश में गंगा बहती है” जैसी कई फ़िल्मों के नाम लिए जा सकते हैं पर 1969 में आई “सत्यकाम” एक ऐसी फ़िल्म थी जो पूरी तरह सत्य और ईमानदारी के उनके सिद्धांत पर बनी। पिछले कुछ सालों में “स्वदेस” जैसी फ़िल्में आईं मगर सबसे मशहूर रही राजकुमार हिरानी की 2006 में आई “लगे रहो मुन्नाभाई” इस फिल्म ने गाँधी जी के सिद्धांतों का परिचय एक नए अंदाज़ में कराया।
“लगे रहो मुन्नाभाई” में उनके जीवन मूल्यों पर कोरा भाषण नहीं था, बल्कि ये बताया कि उन्हें कैसे आम ज़िंदगी में शामिल किया जा सकता है। और आज के दौर में ऐसी ही फ़िल्मों की ज़रुरत है जो बातों-बातों में ऐसा कुछ कह जाएँ की इंसान सोचने समझने पर मजबूर हो जाए। इसी तरह 1951 में आई थी फणी मजूमदार की फ़िल्म “आंदोलन” उसमें सत्याग्रह की कहानी सुनाते हुए कुछ रियल वीडियोज़ का इस्तेमाल किया गया।
महात्मा गाँधी नायक या आम इंसान
ऐसा नहीं है कि महात्मा गाँधी पर बनी हर फ़िल्म में सिर्फ़ उनके उजले पक्ष को ही दिखाया गया हो या उनके सिद्धांतों का महिमामंडन ही किया गया हो। “बाबा साहेब अम्बेडकर” और “गाँधी माई फ़ादर” में उन्हें एक नकारात्मक चरित्र या कहें एक आम इंसान के रूप में भी दिखाया गया। साल 2000 में आई “बाबासाहेब अम्बेडकर” महात्मा गाँधी को नकारात्मक रूप से चित्रित करने वाली पहली फिल्मों में से एक है। जब्बर पटेल की इस फिल्म में गाँधी का किरदार निभाया मोहन गोखले ने, इस फिल्म में दिखाया गया कि कैसे महात्मा गाँधी ने अपनी असहयोग नीति और उपवास की रणनीतियों का इस्तेमाल भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने और अपनी मांगों के अनुसार काम करवाने के लिए किया।
“बाबासाहेब अम्बेडकर” के बाद, मोहन गोखले को एक बार फिर महात्मा गाँधी की भूमिका के लिए साइन किया गया। दुर्भाग्य से, फिल्म की शूटिंग के दौरान मोहन गोखले का निधन हो गया और और तब कमल हासन ने अपनी इस फ़िल्म में इस भूमिका के लिए चुना नसीरुद्दीन शाह को। फिल्म कमल हसन द्वारा निभाए गए एक आम आदमी पर महात्मा गाँधी के प्रभाव के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म चरमोत्कर्ष तक बापू को एक नकारात्मक रोशनी में दिखाती है जहां चीजें उनके पक्ष में हो जाती हैं और उनकी छवि फिर से जीवित हो जाती है। नसीरुद्दीन शाह ने बापू के गुजराती उच्चारण और शरीर की भाषा को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था।
चंदूलाल भगुभाई दलाल ने हरिलाल गाँधी की जीवनी लिखी थी 2007 में आई “गाँधी माई फ़ादर” उसी जीवनी पर आधारित है, इसीलिए ये बापू से ज़्यादा उनके बेटे हरिलाल की कहानी है। एक ऐसा बेटा जो अपने पिता के विराट व्यक्तित्व, उनके आदर्श और अपने सपनों के बीच ख़ुद को खोज रहा है। इस फ़िल्म को भी तीन राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इस फिल्म का निर्माण किया था अनिल कपूर ने और निर्देशन किया फ़िरोज़ अब्बास ख़ान ने। दर्शन जरीवाला ने बापू की भूमिका निभाई और उनके बेटे हरिलाल के रोल में नज़र आये अक्षय खन्ना।
यह फिल्म गाँधी के राजनीतिक जीवन के बजाय उनके व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित है जिसके बारे में बहुतों को पता नहीं था। ये फ़िल्म दिखाती है कि कैसे ‘राष्ट्रपिता’ होने के बावजूद, वह अपने बेटे हरिलाल गाँधी के लिए एक अच्छे पिता नहीं बन सके। फिल्म पिता-पुत्र के जटिल संबंधों को बयाँ करती है, एक पिता के रुप में उनकी भूमिका, उनकी अपेक्षाओं के साथ-साथ अपने आदर्शों और अपनी संतान के बीच की कशमकश को दिखाती है।
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महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तित्व का असर दुनिया भर के जनमानस पर पड़ा आज भी बहुत से लोग उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं और उनके बताए रास्तों पर चलते हैं। मगर वहीं ऐसे लोग भी हैं जो उनके विचारों और नीतियों से सहमत नहीं हैं। उनके विचारों को कोई माने या न माने मगर दुनिया को दिखाना तो लाज़मी है, इसीलिए राष्ट्रवाद की तरह गाँधीवाद भी हर दौर में डिमांड में रहा है और आगे भी रहेगा।